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साक्षात्कार

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मुस्‍ल‍िम कलाकार की ख्वाहिश- 110 साल चले मोदी सरकार, जन्मदिन के लिए बनाया 110 फीट ऊंचा कटआउट

लखनऊ में रहने वाले कलाकार जुल्फीकार हुसैन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन (17 सितंबर) की विशेष तैयारी की है। इस मौके पर वो पीएम का 110 फीट ऊंचा कटआउट बना रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार हुसैन चाहते हैं कि मोदी सरकार 110 साल तक बनी रहे इसलिए वो इतना ऊंचा कटआउट बना रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुबई में रहने वाले हुसैन इसी काम के लिए देश वापस आए हैं। 50 वर्षीय हुसैन अपने दोस्त नृपेंद्र पाण्डेय के अनुरोध पर भारत वापस आए। पाण्डेय बीजेपी के सभासद रह चुके हैं। पीएम मोदी का जन्म 17 सितंबर 1950 को गुजरात में हुआ था।

खबर के अनुसार हुसैन का बनाया कटआउट पीएम मोदी के जन्मदिन के दिन बीजेपी के लखनऊ स्थित कार्यालय के बाहर रखा जाएगा। टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार हुसैन और पाण्डेय 110 फीट ऊंचा कटआउट लगाने के साथ ही पीएम के जन्मदिन पर उन्हें 1500 किलोग्राम लड्डू और 105 किलोग्राम का घंटा भेंट करेंगे। हुसैन ने टीओआई से कहा कि उनके लिए ये सपना सच होने जैसा है और ये उपहार खुद पीएम को देना चाहते हैं। हुसैन ने अखबार से कहा कि वो चाहते हैं कि कटआउट की तरह मोदी सरकार भी 110 साल तक रहे। हुसैन यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ऐसा ही कटआउट उपहार में देना चाहते हैं।

हुसैन ने टीओआई से कहा कि वो कलाकार हैं और वो किसी भी विचारधारा से प्रभावित नहीं हैं, न ही वो अपने इस काम को अपने धर्म से जोड़ना चाहते हैं। इससे पहले हुसैन बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम और बहन मायावती तथा समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव का कटआउट बना चुके हैं। हुसैन देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भी 100 फीट ऊंचा कटआउट बना चुके हैं। हुसैन 1980 के दशक में फिल्मों के पोस्टर बनाया करते थे।

इससे पहले खबर आई थी कि यूपी की बीजेपी सरकार ने पीएम मोदी के जन्मदिन पर 130 स्कूलों को खुला रखने का निर्देश दिया है। हालांकि बाद में यूपी सरकार ने इसका खंडन किया। इस साल 17 सितंबर को रविवार है जिसकी वजहों से स्कूलों में अवकाश रहेगा। ये भी खबर आई थी कि बीजेपी ने अपने कार्यकर्ताओं को पीएम मोदी के जन्मदिन पर व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया पर इससे जुड़े संदेश भेजने के लिए कहा है।

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वाल्मीकि समाज के सामूहिक विवाह की तैयारियां कर रहे युवा

बीकानेर 15 जुलाई 2017 । महर्षि वाल्मीकि अम्बेडकर सामूहिक विवाह सम्मेलन समिति बीकानेर के तत्वावधान में जनवरी 2018 में प्रस्तावित समाज के जिला स्तरीय द्वितीय सामूहिक विवाह समारोह की तैयारियों को लेकर समिति की बैठक 16 जुलाई 17 को विनोबा बस्ती खेल मैदान में सुबह नौ बजे आयोजित की जाएगी। बैठक में 9 मई 17 को सफलता पूर्वक पुष्करणा स्टेडियम में सम्पन्न स्थानीय स्तर पर समाज के प्रथम सामूहिक विवाह समारोह के मद्देनजर आगामी समारोह को और अधिक सुविधाजनक एवं प्रभावशाली तरीके से आयोजित करने पर समिति पदाधिकारी एवं समाज के गणमान्य विभिन्न मुद्दों पर चर्चा कर जिम्मेदारियां तय करेंगे। इस प्रयोजन को लेकर समिति द्वारा शनिवार को होटल वृंदावन में प्रेसवार्ता रखी गई जिसमें मुकेश पंडित; भरत चांगरा सहित पदाधिकारियों ने प्रस्तावित समारोह को स्थानीय स्तर से आगे ले जाते हुए जिला स्तर पर विराट रूप में मनाए जाने की जानकारी दी। सुनील जावा, जगदीश सोलंकी, शिवलाल तेजी, नंदलाल जावा, मुकेश राजस्थानी, विनोद चांवरिया, राजा सर्वटा, रणजीत चंदेलिया, चोरूलाल चांवरिया, नवल वाल्मीकि आदि ने प्रस्तावित सामूहिक विवाह समारोह में कम से कम 51 जोड़ों की शादी करवाने के लक्ष्य के बारे में बताया। जावा ने बैठक के सभी आठ बिन्दुओं के बारे में बताते हुए कहा कि मीटिंग में आगामी सामूहिक विवाह समारोह के लिए जनवरी माह की तारीख तय होगी। समारोह में समाज के सहयोग एवं वर वधू को उपहार में देने के लिए सामान के बारे में भी सलाह मशिविरा किया जाएगा। मेडिकल कॉलेज मैदान का प्रस्ताव रखा जाकर मीटिंग में तय किया जाएगा। साथ ही वर वधू के परिवारजनों से विवाह पंजीयन राशि लिए जाने पर भी विचार विमर्श के बाद राशि सीमा तय की जाएगी।
– मोहन थानवी

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रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के मायने

शायद यही राजनीति की नरेंद्र मोदी शैली है। राष्ट्रपति पद के लिए अनुसूचित जाति समुदाय से आने वाले श्री रामनाथ कोविंद का चयन कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर बता दिया है कि जहां के कयास लगाने भी मुश्किल हों, वे वहां से भी उम्मीदवार खोज लाते हैं। बिहार के राज्यपाल और अरसे से भाजपा-संघ की राजनीति में सक्रिय रामनाथ कोविंद पार्टी के उन कार्यकर्ताओं में हैं, जिन्होंने खामोशी से काम किया है। यानि जड़ों से जुड़ा एक ऐसा नेता जिसके आसपास चमक-दमक नहीं है, पर पार्टी के अंतरंग में वे सम्मानित व्यक्ति हैं। यहीं नरेंद्र मोदी एक कार्यकर्ता का सम्मान सुरक्षित करते हुए दिखते हैं।

बिहार के राज्यपाल कोविंद का नाम वैसे तो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच बहुत चर्चा में नहीं था। किंतु उनके चयन ने सबको चौंका दिया है। एक अक्टूबर, 1945 को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात में जन्मे कोविंद मूलतः वकील रहे और केंद्र सरकार की स्टैंडिंग कौंसिल में भी काम कर चुके हैं। आप 12 साल तक राज्यसभा के सदस्य रहे। भाजपा नेतृत्व में दलित समुदाय की वैसे भी कम रही है। सूरजभान, बंगारू लक्ष्मण, संघ प्रिय गौतम, संजय पासवान, थावरचंद गेहलोत जैसे कुछ नेता ही अखिल भारतीय पहचान बना पाए। रामनाथ कोविंद ने पार्टी के आंतरिक प्रबंधन, वैचारिक प्रबंधन से जुड़े तमाम काम किए, जिन्हें बहुत लोग नहीं जानते। अपनी शालीनता, सातत्य, लगन और वैचारिक निष्ठा के चलते वे पार्टी के लिए अनिवार्य नाम बन गए। इसलिए जब उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया तो लोगों को ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ। अब जबकि वे राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार घोषित किए जा चुके हैं तो उन पर उनके दल और संघ परिवार का कितना भरोसा है, कहने की जरूरत नहीं है। रामनाथ कोविंद की उपस्थिति दरअसल एक ऐसा राजनेता की मौजूदगी है जो अपनी सरलता, सहजता, उपलब्धता और सृजनात्मकता के लिए जाने जाते हैं। उनके हिस्से बड़ी राजनीतिक सफलताएं न होने के बाद भी उनमें दलीय निष्ठा, परंपरा का सार्थक संयोग है।

कायम है यूपी का रूतबा

उत्तर प्रदेश के लोग इस बात से जरूर खुश हो सकते हैं कि जबकि कोविंद जी का चुना जाना लगभग तय है, तब प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पदों पर इस राज्य के प्रतिनिधि ही होंगे। उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी जिस तरह सिमट रही है और विधानसभा चुनाव में उसे लगभग भाजपा ने हाशिए लगा दिया है, ऐसे में राष्ट्रपति पद पर उत्तर प्रदेश से एक दलित नेता को नामित किए जाने के अपने राजनीतिक अर्थ हैं। जबकि दलित नेताओं में केंद्रीय मंत्री थावर चंद गहलोत भी एक अहम नाम थे, किंतु मध्य प्रदेश से आने के नाते उनके चयन के सीमित लाभ थे। इस फैसले से पता चलता है कि आज भी पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री की नजर में उत्तर प्रदेश का बहुत महत्व है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय ने उनके संबल को बनाने का काम किया है। यह विजय यात्रा जारी रहे, इसके लिए कोविंद के नाम का चयन एक शुभंकर हो सकता है। दूसरी ओर बिहार का राज्यपाल होने के नाते कोविंद से एक भावनात्मक लगाव बिहार के लोग भी महसूस कर रहे हैं कि उनके राज्यपाल को इस योग्य पाया गया। जाहिर तौर पर दो हिंदी ह्दय प्रदेश भारतीय राजनीति में एक खास महत्व रखते ही हैं।

विचारधारा से समझौता नहीं

रामनाथ कोविंद के बहाने भाजपा ने एक ऐसे नायक का चयन किया है जिसकी वैचारिक आस्था पर कोई सवाल नहीं है। वे सही मायने में राजनीति के मैदान में एक ऐसे खिलाड़ी रहे हैं जिसने मैदानी राजनीति कम और दल के वैचारिक प्रबंधन में ज्यादा समय दिया है। वे दलितों को पार्टी से जोड़ने के काम में लंबे समय से लगे हैं। मैदानी सफलताएं भले उन्हें न मिली हों, किंतु विचारयात्रा के वे सजग सिपाही हैं। संघ परिवार सामाजिक समरसता के लिए काम करने वाला संगठन है। कोविंद के बहाने उसकी विचारयात्रा को सामाजिक स्वीकृति भी मिलती हुयी दिखती है। बाबा साहेब अंबेडकर को लेकर भाजपा और संघ परिवार में जिस तरह के विमर्श हो रहे हैं, उससे पता चलता है कि पार्टी किस तरह अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने के लिए बेचैन है। राष्ट्रपति के चुनाव के बहाने भाजपा का लक्ष्यसंधान दरअसल यही है कि वह व्यापक हिंदू समाज की एकता के लिए नए सूत्र तलाश सके। वनवासी-दलित और अंत्यज जातियां उसके लक्ष्यपथ का बड़ा आधार हैं। जिसका सामाजिक प्रयोग अमित शाह ने उप्र और असम जैसे राज्यों में किया है। निश्चित रूप से राष्ट्रपति चुनाव भाजपा के हाथ में एक ऐसा अवसर था जिससे वह बड़े संदेश देना चाहती थी। विपक्ष को भी उसने एक ऐसा नेता उतारकर धर्मसंकट में ला खड़ा किया है, जो एक पढ़ा-लिखा दलित चेहरा है, जिन पर कोई आरोप नहीं है और उसने समूची जिंदगी शुचिता के साथ गुजारी है।

राष्ट्रपति चुनाव की रस्साकसी

राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एकत्रित हो रहे विपक्ष की एकता में भी एनडीए ने इस दलित नेता के बहाने फूट डाल दी है। अब विपक्ष के सामने विचार का संकट है। एक सामान्य दलित परिवार से आने वाले इस राजनेता के विरूद्ध कहने के लिए बातें कहां हैं। ऐसे में वे एक ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जिसे उसके साधारण होने ने ही खास बना दिया है। मोदी ने इस चयन के बहाने राजनीति को एक नई दिशा में मोड़ दिया है। अब विपक्ष को तय करना है कि वह मोदी के इस चयन के विरूद्ध क्या रणनीति अपनाता है।

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जिन मुद्दों पर घेरती थी भाजपा अब उन्हीं मुद्दों पर सवालों के घेरे में

उत्तर प्रदेश की जनता ने जिस जानदार−शानदार तरीके से भारतीय जनता पार्टी को विधान सभा चुनाव में बहुमत दिलाया था, उससे बीजेपी और खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ऊपर अपेक्षाओं का बोझ बढ़ गया था। मोदी पर इसलिये क्योंकि उन्हीं (मोदी) के फेस को आगे करके बीजेपी ने चुनाव लड़ा था। मोदी ने चुनाव प्रचार के दोरान प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था और किसानों की बदहाली को बड़ा मुद्दा बनाया था। बीजेपी जब चुनाव जीती तो तेजतर्रार योगी आदित्यनाथ को इस उम्मीद के साथ सीएम की कुर्सी पर बैठाया गया कि वह जनता की कसौटी पर खरे उतरेंगे। तीन माह का समय होने को है, मगर आज यही दो समस्याएं योगी सरकार और बीजेपी आलाकमान के लिये परेशानी का सबब बनी हुई हैं। दिल्ली से लेकर लखनऊ तक में पार्टी नेताओं/प्रवक्ताओं को जनता और मीडिया के तीखे सवालों का जवाब देना पड़ रहा है।

योगी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में छोटे−मझोले किसानों का कर्ज माफ करने को मंजूरी दे दी गई थी, लेकिन तकनीकी कारणों से ऐसा हो नहीं पाया। योगी सरकार कार्यकाल के तीसरे माह में चल रही है, मगर अभी तक कर्ज माफी के नाम पर किसानों के हाथ कुछ भी नहीं लगा है। इसको लेकर किसानों में तो नाराजगी स्वाभाविक है, विपक्ष भी लगातार किसानों का कर्ज नहीं माफ हो पाने के मुद्दे को खाद−पानी देने का काम कर रहा है। किसान कर्ज माफी को लेकर योगी सरकार के प्रति आशंकित हैं तो बिगड़ी कानून व्यवस्था के चलते आमजन भयभीत हैं। प्रदेश की चरमराई कानून व्यस्था ने विपक्ष को बैठे−बैठाये योगी सरकार पर हमलावर होने का मौका दे दिया है। कल तक बीजेपी वाले जिस अखिलेश सरकार को बिगड़ी कानून व्यवस्था को लेकर घेरा करती थे और इसे चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया था, आज उसी वजह से योगी सरकार को बार−बार शर्मिंदा होना पड़ रहा है।

बात यहीं तक सीमित नहीं है अब तो योगी सरकार के कई फैसलों पर अदालत भी उंगली उठाने लगी है। खैर, किसी भी सरकार के कामकाज की समीक्षा के लिये तीन माह का समय काफी छोटा होता है, इसलिये योगी सरकार को भी इसका फायदा मिलना चाहिए। भले ही नई सरकार के गठन के बाद भी यूपी में हालात बहुत ज्यादा नहीं बदले हों, लेकिन जनता का योगी सरकार पर विश्वास बना हुआ है। सीएम योगी पूरी ईमानदारी और मेहनत से काम कर रहे हैं और सबको यही उम्मीद है कि देर−सवेर योगी की मेहनत रंग लायेगी। परंतु इसके लिये योगी जी को सरकारी मशीनरी के पेंच और टाइट करने होंगे। अभी तक तो यही नजर आ रहा है कि जिनके हाथों में कानून व्यवस्था दुरूस्त करने की जिम्मेदारी है, वह यूपी में आये बदलाव को देख नहीं पा रहे हैं और पुराने तौर−तरीकों पर ही चल रहे हैं। कुछ पुलिस के अधिकारी तो योगी राज में भी भी अखिलेश के प्रति वफादार नजर आ रहे हैं, जिसकी वजह से भी कानून व्यवस्था में सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। चर्चा तो यह भी है कि योगी सरकार को बदनाम करने के लिये विरोधी दलों द्वारा भी पड़यंत्र रचा जा रहा है। कई जगह आपराधिक वारदातों में विरोधी दलों के नेताओं की लिप्ता भी देखी जा रही है।

सहारनपुर की हिंसा को इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जा सकता है। सहारनपुर में मायावती से लेकर राहुल गांधी तक ने जिस तरह माहौल खराब करने की कोशिश की उसे जनता समझती है। एक और बात विरोधी दल और पूर्ववर्ती सरकारों के वफादार सरकारी कर्मचारी तो योगी की राह में रोड़े फंसा ही रहे हैं, योगी के अपने भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। भगवाधारियों द्वारा आगरा में पुलिस थानों पर हमला, मेरठ में एसएसपी के आवास में घुस कर गुंडागर्दी, लखनऊ में बीजेपी नेता द्वारा एक होमगाई की पिटाई, गोरखपुर में एक आईपीएस महिला पुलिस अधिकारी के साथ बीजेपी विधायक राधा मोहन दास का अभद्र व्यवहार सत्तारूढ़ दल के नेताओं की गुंडागर्दी की बानगी भर है। असल में योगी के लिये विपक्षी ही नहीं उनकी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं।

इससे उलट बात अगर योगी के सार्थक प्रयासों और सराहनीय फैसलों की करें तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह से महिलाओं की सुरक्षा को लेकर गंभीर पहल की वह अपने आप में मिसाल बन गई। योगी सरकार के शपथ लेते ही पूरे प्रदेश में लड़कियों से छेड़खानी की घटनाओं पर अंकुश लग गया। बेटियों को लेकर योगी आदित्यनाथ की पहल ने निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश की बच्चियों और महिलाओं की सुरक्षा और उनकी प्रगति के लिए बहुत बड़ी उम्मीद जगा दी। हालांकि प्रदेश में कई ऐसे मामले मी सामने आये जिनमें महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल खड़ा होता रहा। फिर भी घरेलू हिंसा, एसिड अटैक, छेड़खानी और बलात्कार से पीड़ित महिलाओं और किशोरियों को योगी राज में अपनी सुरक्षा की उम्मीद बरकरार है। वैसे, यह जगजाहिर है कि यूपी में महिलाओं के साथ अपराध हमेशा ही चिंता का विषय बना रहा है। नेशनल कमीशन फॉर वीमेन के आंकड़ों के अनुसार, भारत में घरेलू हिंसा के मामले सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में हैं। वर्ष 2015−16 में अकेले उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों की संख्या 6,110 थी, जबकि दिल्ली में 1,179, हरियाणा में 504, राजस्थान में 447 और बिहार में 256 मामले दर्ज थे। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं पर अत्याचार के मामलों में उनके घर वाले ही सबसे आगे रहते हैं। पीड़ित महिलाओं द्वारा पति और रिश्तेदारों के खिलाफ सबसे अधिक मामले दर्ज कराना इस बात का संकेत है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर यूपी में योगी सरकार बनते ही एंटी रोमियो स्क्वॉड एक्शन में आ गया था, जिसके काम की काफी सराहना हुई तो कुछ आलोचनाएं भी इस स्क्वॉड को झेलनी पड़ीं।

वैसे हकीकत यह भी है कि इस तरह का अभियान पहले भी चलाया जा चुका था, लेकिन इतने वृहद स्तर पर नहीं। मायावती सरकार ने इसकी शुरूआत नोएडा में 2011 में की थी। इस अभियान के तहत पुलिस उन जगहों पर जाती थी जहां महिलाओं के साथ छेड़खानी की जाती थी, इस दल का नेतृत्व महिला पुलिस अधिकारी करती थी। पूर्व में 1986−87 में पुलिस ने इस तरह का अभियान शुरू किया था, जिसमें लड़कियों के साथ छेड़खानी करने वालों को मजनू पिंजड़े में रखा जाता था और उन्हें पूरे शहर में घुमाया जाता था।

बात कानून व्यवस्था से इत्तर की जाये तो योगी सरकार लगातार साहसिक फैसले लेती जा रही है। किसानों को चीनी मिल मालिकों से बकाया दिलाया। किसानों की फसल खरीद हो रही है। किसानों का कर्ज माफी का प्रयास लगातार जारी है। भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस की नीति अपनाते हुए पूर्ववर्ती सरकारों के भ्रष्टाचार की जांच की जा रही है तो ऐसे कदम भी उठाये जा रहे हैं जिससे भ्रष्टाचार पर अकुंश लगे। ई−टेंडरिंग के द्वारा सरकारी ठेके दिये जा रहे हैं। सड़कों को गड्ढा मुक्त किये जाने का आदेश दे दिया गया है, जिस पर काम भी हो रहा है। योगी सरकार की करीब तीन माह पुरानी सरकार कई अहम फैसले ले चुकी है, जिनका प्रदेश की जनता से सीधा संरोकार हैं। कुछ फैसलों पर योगी सरकार की वाहवाही हुई, तो कुछ को लेकर विवादों ने जन्म लिया। चाहे वह कानून−व्यवस्था, अवैध बूचड़खाने बंद करना, खनन माफियाओं पर लगाम या किसानों की कर्जमाफी हो। योगी सरकार के इन निर्णयों के साथ विवाद भी जुड़ता गया।

सीएम योगी ने पहले पहल महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अखिलेश राज के अधिकारियों से ही काम चलाने का प्रयास किया था, लेकिन इन अधिकारियों की वफादारी नहीं बदली तो प्रदेश की कानून व्यवस्था पर नकेल कसने के लिए बड़े पैमाने पर आईएएस और आईपीएस अफसरों का तबादला किया गया। यह और बात है कि अभी जमीनी हकीकत में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिख रहा है। इसी प्रकार योगी सरकार ने अखिलेश सरकार की महत्वाकांक्षी समाजवादी पेंशन योजना बंद करने में कोई गुरेज नहीं की। इस योजना के तहत पेंशन में 6 हजार सालाना की रकम मिलती थी। सपा ने इसके खिलाफ आन्दोलन का भी ऐलान किया। योगी ने इस योजना को मुख्यमंत्री पेंशन योजना का नया नाम देकर लागू कर दिया। योगी सरकार ने राज्य में नई खनन नीति लाने की योजना की घोषणा की। सरकार के इस निर्णय के कारण प्रदेश में खनन पूरी तरह से ठप हो गया था। खनन बंद होने से बालू, मौरंग आदि के दाम अचानक कई गुना बढ़ गए, लेकिन अब हालात धीरे−धीरे बदल रहे हैं। योगी सरकार का सबसे विवादित फैसला रहा अवैध बूचड़खानों पर रोक लगाना। इस कदम का हिन्दूवादी संगठनों ने तो स्वागत किया लेकिन मुसलमान इससे खुश नहीं दिखे। जबकि हकीकत में बूचड़खाने बंद करने का फैसला एनजीटी का था। एनजीटी लम्बे समय से अवैध बूचड़खाने बंद करने की सिफारिश कर रही थी, लेकिन अखिलेश सरकार वोट बैंक के चलते कान में उंगली डाले बैठी रही थी। अखिलेश के ड्रीम प्रोजेक्ट रीवर फ्रंट और माया राज के समय बने पार्कों की जांच भी योगी सरकार ने शुरू कर दी है, जिसमें पहले से ही बड़े घोटाले की बू आ रही थी।

लब्बोलुआब यह है कि योगी सरकार को दोधारी तलवार पर चलते हुए यूपी को पटरी में लाने के लिये लम्बी मशक्कत करनी होगी। एक तरफ प्रदेश का विकास करना होगा दूसरी तरफ विरोधियों के मंसूबों पर भी पानी फेरना होगा, जो योगी सरकार को बदनाम करने और अपने हित साधने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार नजर आ रहे हैं। 2019 तक यूपी के हालात नहीं बदले तो लोकसभा चुनाव पर इसका प्रभाव पड़ सकता है।

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सोमनाथ मंदिर तोड़ना, जन्मभूमि पर राम मंदिर तोड़ना और गाय काटना अक्षम्य अपराध

विवेकानंद और वीर सावरकर के जो भक्त गाय पर इतना उद्वेलित हो रहे हैं उन्हें समझाना होगा कि केवल उत्तर भारत और वहां एक बड़े सामाजिक वर्ग को ही समूचा भारत नहीं माना जा सकता। जैसे हिंदी सारा हिंदुस्तान नहीं है और शेष भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान एवं आत्मीयता दिखाये बिना भारत की एकता संभव नहीं है, वैसे ही खान-पान और पहनावे के बारे में उत्तर भारत के नियम कानून सारे देश पर कैसे लागू हो सकते हैं?

केरल और बंगलौर में सार्वजनिक रूप से जिन वहशी दरिंदों ने गाय काटी निश्चित रूप से वह अक्षम्य अपराध है और यह भी सत्य है कि उनके द्वारा गाय काटना केवल भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि भारत की काया और मन पर वैसा ही आघात है जैसा मोहम्मद गोरी ने सोमनाथ तोड़ कर और बाबर ने राम जन्म भूमि तुड़वा कर किया था। कोई मनुष्य इतनी पाश्विकता के साथ किसी भी पशु का मार सकता है और फिर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन कर एक राजनीतिक बयान दे सकता है यह पिशाचों के बारे में सुना होगा लेकिन मनुष्यों के बारे में यह कांग्रेस तथा कम्युनिस्टों ने ऐसा उदाहरण दे दिया। इस पर आने वाली पीढि़यां शर्म करेंगी और यह इतिहास में एक उदाहरण बनेगा कि एक समय भारत में ऐसा भी आया था जब कांग्रेस नाम की पार्टी के कुछ हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई कार्यकर्ताओं ने मिल कर प्रखर राष्ट्रीयता वाली सत्तासीन पार्टी के खिलाफ एक अमानुषिक राजनीतिक कृत्य किया था।

पर यह बात सही समाप्त कर अगर बहुत गुस्सा और दम है और राजनीतिक क्षमता का परिचय देने की इच्छा है जो जिन लोगों ने ऐसा कृत्य किया है उनके विरुद्ध कार्यवाही करवाइये। आपको रोकता कौन है? खामख्वाह की बयानबाजी आपकी अपनी प्रचार की भूख को शांत भले ही कर दे लेकिन आहत हिन्दू मन पर मलहम नहीं लगा सकती। गाय को मारने वालों में उन तमाम लोगों का भी अपराध शामिल है जो ना केवल गाय को आरक्षित छोड़ते हैं बल्कि गौ रक्षा के लिए सरकार की ओर ताकते हैं। उगलियां पर गिनी जा सकने वाली कुछ गौशालाओं की बात छोड़ दीजिये। वे जीवनदानी महापुरुष हैं जिनके तप और देवतुल्य गौ भक्ति के कारण उनकी गौशालाएं बड़े से बड़े मंदिर से भी बढ़कर तीर्थ स्थान बनी हैं। लेकिन बाकी जगहों का क्या हाल है? हमारे तीर्थ गंदनी से भरे, मंदिरों में पंडों और संस्कृत से प्रायः अनभिज्ञ पंडितों की मनमानी, गाय के बछड़ों को भूखा तड़पा-तड़पा कर गाय का अधिकतम दूध निकालना और वह भी गाय को अत्यंत कष्टकारी इंजेक्शन लगाकर। यह सब कौन कर रहा है? इसके खिलाफ कौन बोलता है, बूढ़ी और बिना दूध वाली गायों को कसाई के हाथ बेचने के लिए किसान को मजबूर कौन करता है? उसका कोई समाधान निकालने का ऐसा प्रयास हुआ कि जिससके इस व्याधि का अंत हो? असली गौ भक्ति वह है जो सार्वजनिक जीवन में गाय की सर्व स्वीकार्य प्रतिष्ठा करवाए ना कि कानून हाथ में ले अथवा कानून के सहारे एक विद्रूप एवं हारे हुए विपक्ष में जान फूंकने वाली प्रतिक्रियाएं पैदा करवाए।

अब आप बहुत ही जिद करेंगे तो किरन रिजीजू तथा बीरेन सिंह के बयानों के क्या जवाब तलाशेगें? परमपूज्य गुरुजी (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक) ने उत्तर पूर्वांचल के संबंध में जो लिखा है वह बार-बार, बार-बार हमें पढ़ना चाहिए। वनवासी कल्याण आश्रम में काम करते हुए मेरी यह अधिक निष्ठा बनी कि उनकी कृति ‘विचार नवनीत’ हमारे वर्तमान युग के लिए कार्यकर्ताओं और राष्ट्रभक्तों का उपनिषद है। उन्होंने उत्तर पूर्वांचल में कार्य, वहां की परिस्थिति की समझ तथा वहां की गायों के संबंध में जो कहा था वो हमें याद है?

गरीबी, बेकारी, पिछड़ापन हमारे समाने कितने गंभीर प्रश्न हैं या इन समस्याओं को कोई अर्थ ही नहीं है? एक ओर प्रधानमंत्री मोदी हर घर में बिजली, सौर ऊर्जा, अच्छी रेलगाडि़यां, राजमार्गों का निर्माण, अरूणाचल और कश्मीर में सुरक्षा की मजबूत तैयारी, महिलाओं का सशक्तीकरण और युवाओं के कौशल विकास में जुटे हैं। दूसरी ओर हम सारे हिन्दुस्तान को अपनी व्यक्तिगत पसंद और ना पसंद के खाने से चलने की कवायद कर रहे हैं। देश अब ऐसे चलेगा कि किसकी थाली में क्या परोसा जाये अथवा आर्थिक और शिक्षा की नयी उड़ानों से नया भविष्य गढ़ने पर ध्यान देना जरूरी समझा जाये?

ऐसी परिस्थिति में बड़े प्रश्नों के समाधान तथा स्थायी भाव के लंबी लड़ाई के लिए जन मन तैयार करने वाले प्रतिरोधक केंद्रों की स्थापना पर ध्याना देना जरूरी है। लेकिन हिंदू का स्वभाव ही है कि वह आपसी विद्वेष, घरेलू कलेष, अहंकार, तीव्र व्यक्तिगत पसंद ना पसंद के कारण संगठन के बड़े उद्देश्यों से समझौता करते हुए बड़ी छलांग को छोटे कदमों में रूपांतरित कर देता है।

यह समय है विवेकानंद को दोबारा पढ़ने का और खानपान के संबंध में उनकी प्रहारक वाणी को ध्यान में रखने का। स्वामी दयानंद और वीर सावरकर को भी कभी-कभी पढ़ लिया करिये। हिन्दुत्व के दर्पण पर जमी प्रपंचों तथा पाखंडों की धूल साफ होती रहेगी। लम्बी दूरी के यात्री छोटे स्टेशनों पर झगड़ा कर रेलगाड़ी छोड़ने का जोखिम नहीं उठाते। रज्जू भैया बार-बार इस बात को दोहराते थे।

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जनता और सरकार के बीच पुल बनने के लक्ष्य से भटक रहा मीडिया

संचार माध्यम (मीडिया) के अन्तर्गत टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा इंटरनेट आदि का विकास जिस तेजी से हो रहा है उससे लगने लगा है कि भारत दूसरी संचार क्रांति से गुजर रहा है। दूरदर्शन और रेडियो आकाशवाणी को छोड़कर अधिकांश मीडिया निजी कम्पनियों या व्यक्तियों द्वारा संचालित है। बड़े अखबार और चैनल बड़े मीडिया घरानों या उद्योगपतियों द्वारा संचालित एवं नियंत्रित हैं। भारत में एक लाख से अधिक समाचार पत्र हैं और आज भारत विश्व का सबसे बड़ा समाचार पत्र बाजार है। इंटरनेट के युग में भी अखबारों की करीब 15 से 20 करोड़ प्रतियां बिकती हैं।

स्मार्ट मोबाइल और इंटरनेट की व्यापक पहुंच के चलते सभी बड़े-छोटे समाचार पत्रों ने अपने ई-पेपर यानी इंटरनेट संस्करण निकाल दिये हैं और इसका सबसे बड़ा फायदा पाठकों को यह हुआ है वह कहीं भी बैठकर कोई भी अखबार पढ़ सकता है, देख सकता है। इंटरनेट ने जहां पाठकों को सुविधा प्रदीन की है वहीं अखबार का प्रकाशन भी आसान हो गया है और खबरों का अदान-प्रदान सुविधाजनक हो गया है।

भारत में 1995 में सबसे पहले चेन्नई से प्रकाशित होने वाले ‘हिंदू‘ ने अपना ई-संस्करण निकाला था और इसके बाद तो सभी ने इसे अपनाया लेकिन यह विशुद्ध रूप से डॉट.कॉम पर आधारित खबरें थीं और 1998 तक आते-आते लगभग 50 से ज्यादा समाचार पत्रों ने अपने ई-संस्करण निकाले लेकिन हूबहू ई-पेपर निकालने की शुरूआत 2008 के बाद शुरू हुई और आज तो हर छोटे-बड़े अखबार के ई-पेपर मौजूद हैं। आज भले ही आपके अखबार की छपी हुई प्रति न मिले लेकिन ई-पेपर आप दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर देख सकते हैं, पढ़ सकते हैं और शेयर कर सकते हैं। आज वेब पत्रकारिता ने पाठकों और लेखकों के लिए ढेरों विकल्प मौजूद करवा दिये हैं।

इस दौरान बाजार में टिके रहने और प्रतिष्ठा बचाने के लिए कई अखबारों ने नवीन प्रयोग भी किये, जैसे नवभारत टाइम्स ने युवा वर्ग को जोड़ने के लिए अंग्रेजी मिक्स हिन्दी भाषा का प्रयोग किया, जो अब तक जारी है। इसके अलावा समय के अनुसार जनसत्ता को छोड़कर सभी ने व्यापक बदलाव किये लेकिन जो बड़ा बदलाव हुआ है वह है पत्रकारिता में ठेकेदारी और बाजारीकरण, जिससे इसका उद्देश्य ही बदल गया है।

पत्रकारिता का बढ़ता विस्तार देखकर यह समझना मुश्किल नहीं है कि इससे कितने लोगों को रोजगार मिल रहा है और मीडिया के विस्तार ने वेब डेवलपरों एवं वेब पत्रकारों की मांग को बढ़ा दिया है। वेब पत्रकारिता किसी अखबार को प्रकाशित करने और किसी चैनल को प्रसारित करने से अधिक सस्ता माध्यम है। चैनल अपनी वेबसाइट बनाकर उस पर पर ब्रेकिंग खबर, लेख, रिपोर्ट, वीडियो और इंटरव्यू अपलोड और अपडेट कर सकते हैं। आज सभी प्रमुख चैनलों (आईबीएन, स्टार, आजतक आदि) और अखबारों ने अपनी वेबसाइट बनाई हुईं हैं। इनके लिए पत्रकारों की नियुक्ति भी अलग से की जाती है। सूचनाओं का डाकघर कही जाने वाली संवाद समितियां जैसे पीटीआई, यूएनआई, एएफपी और रायटर आदि अपने समाचार तथा अन्य सभी सेवाएं आनलाइन देती हैं। यह सब एकदम नहीं हुआ है। पहले जहां पत्रकारिता का ध्येय विशुद्ध रूप से समाज सेवा था, अब यह व्यवसाय बन चुकी है लेकिन इसमें अभी बेहतर संतुलन नहीं बन पाया है और इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब पत्रकारिता के दौर में यह अभी अपने शैशव काल में है लेकिन समय के साथ परिपक्व होने की उम्मीद है।

मीडिया समाज की आवाज शासन तक पहुंचाने में जनता के प्रतिनिधि के तौर पर काम करता है लेकिन अब यह सवाल उठने लगे हैं कि बाजारवाद के इस दौर में मीडिया जनता की आवाज है या फिर व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा जिसमें आम जनता तो है ही नहीं। आखिर मीडिया जनता किसे मानता है? शोषितों की आवाज उठाना ज्यादा महत्वपूर्ण है या क्रिकेट की रिर्पोटिंग करना, आम आदमी के मुद्दे बड़े हैं अथवा किसी सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी ? आज पत्रकारिता एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहां उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं। समय के साथ मीडिया का स्वरूप और मिशन दोनों बदल गये हैं। गंभीर और सामाजिक मुद्दों की जगह क्रिकेट और बाजार की खबरें ज्यादा हैं। अखबार के मुखपृष्ठ पर अमूमन राजनेताओं की बयानबाजी, घोटालों, क्रिकेट मैचों, अपराध और बाजार के उतार-चढ़ाव की खबरों की भरमार होती हैं। जिन पृष्ठों पर कल तक खोजी पत्रकारों की ग्रामीण समस्याओं, ग्रामीणों की राय व गांव की चौपाल की खबरें प्रमुखता से छापी जाती थीं, उन पर आज फिल्मी नायक-नायिकाओं की अर्द्धनग्न तस्वीरें छपती हैं। अंग्रेजी अखबारों के साथ निकलने वाले सप्लीमेंट में तो पार्टियों या उत्पादों, होटलों, रेस्टोरेंटों, बैंक्वेट हॉलों तथा कुछ स्कूलों की पेड न्यूज छापी जाती हैं ताकि आम जनता भ्रमित हो सके। हालांकि जनता के पास सोशल मीडिया नामक हथियार आ चुका है जिससे वह अपनी आवाज उठा सकता है।

मीडिया का सार्वजनिक लक्ष्य एक ही है- पाठकों-दर्शकों के पास सही एवं सटीक सूचना पहुंचाना और यह सूचनी झूठी या पक्षपातपूर्ण नहीं होनी चाहिए। पाठकों-दर्शकों तक निष्पक्षता से सूचनाएं, जानकारी पहुंचाना, उनका मनोरंजन करना और उन्हें किसी भी विचार, घटना, समस्या, कथन, निर्णय, कार्रवाई और प्रतिक्रिया के प्रत्येक पक्ष से परिचित कराने के लिए ही मीडिया अस्तित्व में आया था, जिसे पहले प्रेस कहा जाता था। यह सब इसलिए ताकि समाज उचित-अनुचित में भेद कर अपने निर्णय ले सके। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में प्रेस या मीडिया का ध्येय समाज को जागरूक बनाए रखना, संस्थाओं और व्यक्तियों की जवाबदेही की निगरानी करना और दोषियों को, चाहे वे कितने भी बड़े और कितने ही शक्तिशाली हों, जनता की अदालत में खींच लाना है।

देश की आजादी के बाद प्रेस का परिदृश्य एकदम से नहीं बदला। प्रेस देश के पुनर्निर्माण का सजग प्रहरी बना रहा। उसका मिशन प्रोफेशन में तब परिवर्तित हुआ जब प्रिंट में बढ़ती प्रतिस्पर्धा से पार पाने और नए पाठक वर्ग की संतुष्टि के लिए सामग्री, डिजाइन और छपाई में अधिक गुणवत्ता की जरूरत को प्रौद्योगिकी के विकास ने गति दी इससे पूंजी और आय की जरूरत भी बढ़ गई और प्रेस या मीडिया उद्योग में परिवर्तित हो गया। हालांकि समाचारों और विचारों के प्रकाशन-प्रसार पर प्रिंट का एकाधिकार बना रहा और पत्र-पत्रिकाएं छपे हुए शब्द अपने पाठकों को और अपने विज्ञापनदाताओं को बेचकर बढ़ते रहे और मोटा मुनाफा कमाते रहे।

पाठक संख्या में वृद्धि और लाभ कमाना ही मीडिया का लक्ष्य बनता गया लेकिन टीवी न्यूज चैनलों के पदार्पण से प्रिंट के सामने अपने पाठक और विज्ञापन की आय बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई और प्रोफेशनल पत्रकारिता पर बाजारवाद हावी हो गया। चैनलों की भरमार के बीच अपनी जगह बनाने की होड़ मच गयी और फिर अपराध की खबरों को सनसनीखेज तरीके से पेश करने की होड़ लग गयी और मीडिया ट्रायल के माध्यम से इसका विस्तार होता चला गया लेकिन विकास या आम जनता की खबरें नदारद हैं। मीडिया किसी को भी हीरो बना देता है और केजरीवाल इसकी मिसाल हैं जो टीवी के जरिए आसमान से तारे तोड़ लाने का दंभ भरते थे लेकिन जब काम की बारी आयी तो राजनेताओं की उसी जमात में शामिल हो गए जहां सब्जबाग तो दिखाये जाते हैं लेकिन हकीकत कुछ और होती है। आज सभी बड़े अखबारों में मीडिया मार्केटिंग टीम के साथ सम्पादक की अक्सर मीटिंग होती है और वह तय करते हैं कि किस प्रकार अखबार अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे और क्या खबरें तथा विज्ञापन छपें तथा कैसे अधिक से अधिक लाभ कमाया जाए।

स्मार्टफोन प्रौद्योगिकी से प्रिंट-टीवी की कठिनाई और बढ़ी है। मोबाइल उपकरणों पर समाचार-विचार की खपत कल्पनातीत गति से बढ़ रही है। दुनिया सचमुच अब पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं की मुट्ठी में है। इंटरनेशनल न्यूज मीडिया एसोसिएशन का ताजा आकलन यह है कि अब समाचार-विचार के लिए ऑडियंस का पहला स्रोत मोबाइल फोन है। परंपरागत मीडिया के अस्तित्व के संघर्ष से जो विडंबनाएं पैदा हुई हैं उनसे उसकी साख संकट में आ गई है। पत्र-पत्रिकाओं के संस्करण जिला स्तर पर ले जाने, क्षेत्रीय भाषाओं में न्यूज चैनल शुरू करने जैसे अति-स्थानीयता के प्रयास भी पाठक-दर्शक और विज्ञापनों में गिरावट को थाम नहीं पा रहे हैं तो अधिकतर कोशिशें अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी तथा विस्तार पर हुए भारी-भरकम खर्च की भरपाई पर केंद्रित हो गई हैं। इससे पेड न्यूज, छद्म समाचारों और पीत पत्रकारिता का दौर फिर शुरू हो गया है। ‘भ्रामक खबरें’, मिथ्या प्रचार और अपुष्ट खबरें सामान्य बात है। मीडिया संस्थानों का विलय, बिक्री और अधिग्रहण नए जमाने का मंत्र है जिससे क्रास-मीडिया स्वामित्व तेजी से बढ़ रहा है और देश की सबसे बड़ी निजी कम्पनी की तो लगभग सभी बड़े मीडिया घरानों में हिस्सेदारी है और अब तो उन्होंने बाकायदा कई चैनलों का अधिग्रहण कर लिया है और यह क्रम लगातार जारी है। इससे मीडिया जगत में एकाधिकार स्वामित्व का खतरा पैदा हो गया है।

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