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त्योहारों पर हावी हो रहा है बाजार, दिखावे की खुशी दिखाने की होड़

कहते हैं बाजार में वो ताकत हैं जिसकी दूरदर्शी आंखें हर अवसर को भुना कर मोटा मुनाफा कमाने में सक्षम हैं। महंगे प्राइवेट स्कूल, क्रिकेट, शीतल पेयजल व मॉल से लेकर फ्लैट संस्कृति तक इसी बाजार की उपज है। बाजार ने इनकी उपयोगिता व संभावनाओं को बहुत पहले पहचान लिया और नियोजित तरीके से इस क्षेत्र में आहिस्ता-आहिस्ता अपना आधिपत्य स्थापित भी कर ही लिया। कई साल  पहले जब बोतल बंद पानी का दौर शुरू हुआ तो मन में सहज ही सवाल उठता… क्या जमाना आ गया है, अब बोतलों में पानी बिकने लगा है। लेकिन आज हम सफर के लिए ट्रेन पकड़ने से पहले ही बोतलबंद पानी खरीद कर बैग में रख लेते हैं। कई दशक पहले ही बाजार ने त्योहार को भी अवसर के रूप में भुनाना शुरू कर दिया। त्योहार यानी बड़ा बाजार। पहले जेबें खाली होते हुए भी त्योहार मन को असीम खुशी देते थे। त्योहार के दौरान दुनिया बदली-बदली सी नजर आती थी। लेकिन दुनियावी चिंताओं के फेर में धीरे-धीरे मन में त्योहारों के प्रति अजीब सी उदासीनता घर करने लगी।

मन में सवाल उठता… यह तो चार दिनों की चांदनी है…। जब दिल में खुशी है ही नहीं तो दिखावे के लिए खुश दिखने का मतलब। फिर त्योहारों में भी अजीब विरोधाभासी तस्वीरें नजर आने लगतीं। त्योहार यानी एक वर्ग के लिए मोटे वेतन के साथ अग्रिम और बोनस के तौर पर मोटी रकम के प्रबंध के साथ लंबी छुट्टियां की सौगात। फिर पर्यटन केंद्रों में क्यों न उमड़े भीड़। सामान्य दिनों में पांच सौ रुपयों में मिलने वाले कमरों का किराया पांच गुना तक क्यों न बढ़े। आखिर इस वर्ग पर क्या फर्क पड़ता है। लंबी छुट्टियां बिता कर दफ्तर पहुंचेंगे और महीना बीतते ही फिर मोटी तनख्वाह एकाउंट में जमा हो जाएगी। फिर सोचता हूं ठीक ही तो है। ये खर्च करते हैं तो उसका बंटवारा समाज में ही तो होता है। किसी न किसी को इसका लाभ तो मिलता है। बीच में त्योहार की चकाचौंध से खुद को बिल्कुल दूर कर लिया था क्योंकि त्योहार की धमाचौकड़ी के बीच बेलून बेच रहे बच्चों की कुछ आमदनी हो जाने की उम्मीद में चमकती आंखें और सवारियां ढूंढ रही रिक्शा चालकों की सजग-चौकस निगाहें मन में अवसाद पैदा करने लगी थीं।
कोफ्त होती कि यह भी कैसी खुशी है। एक वर्ग खुशी से बल्लियों उछल रहा है तो दूसरा कुछ अतिरिक्त कमाई की उम्मीद में बेचैन है। क्या पता उसे इच्छित आमदनी न हो। तब क्या बीतेगा उन पर। विजयादशमी के हुल्लड़ में मैंने अनेक चिंतित और हैरान-परेशान दुकानदार देखे हैं। जो पूछते ही कहने लगते हैं… क्या बताएं भाई साहब, इस साल आमदनी नहीं हुई, उल्टे नुकसान हो गया… ढेर सारा माल बच गया। हिसाब करेंगे तो पता चलेगा कितने का दंड लगा है। समझ में नहीं आता… अब बचे माल का करेंगे क्या। इस भीषण चिंता की लकीरें बेचारों के परिजनों के चेहरों पर भी स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं।
सचमुच त्योहारों ने संवेदनशील लोगों के दिलों को भारी टीस पहुंचाना शुरू कर दिया है। इस साल विजयादशमी से करीब एक पखवाड़े पहले मेरे छोटे से शहर में चार बड़े शॉपिंग मॉल खुल गए हैं। जिसमें हर समय भारी भीड़ नजर आती है। माल के कांच के दरवाजे ठेल कर निकलने वाले हर शख्स के हाथ में रंगीन पैकेट होता है जो उनके कुछ न कुछ खरीदारी का सबूत देता है। लोग खरीदें भी क्यों नहीं…। आखिर ब्रांडेड चीजें भारी छूट के साथ मिल रही हैं। साथ में कूपन और उपहार भी। लेकिन फिर सोचता हूं इसके चलते शहर के उन चार हजार दुकानदारों की दुनिया पर क्या बीत रही होगी जहां इस चकाचौंध के चलते मुर्दनी छाई हुई है। सचमुच यह विचित्र विरोधाभास है। हर साल हम नए मॉल खुले देखते हैं वहीं पहले खुले मॉल बंद भी होते रहते हैं। रोजगार से वंचित इनमें कार्य करने वाले बताते हैं कि मालिकों ने बताया कि भारी घाटे के चलते मॉल को बंद करना पड़ा या फिर बैंकों के लोन का कुछ लफड़ा था। फिर मस्तिष्क में दौड़ने लगता खंडहर में तब्दील होते जा रहे बंद पड़े वे तमाम मॉल जो कभी ऐसे ही गुलजार रहा करते थे। फिर सोच में पड़ जाता हूं आखिर यह कैसा खेल है। दुनिया में आने-जाने वालों की तरह इस बाजार में रोज नया आता है तो पुराना रुख्सत हो जाता है।
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यशवंत सिन्हा की बात में है दम, गंभीर मंथन करे मोदी सरकार

सत्यान्वेषी, सत्यनिष्ठ एवं सत्यवादी लोग सत्य को ईश्वर के समान पवित्र समझते हैं। यदि उनसे कोई त्रुटि हो जाए तो वे विनम्रता पूर्वक स्वीकार करते हैं। अपनी गलती को सही ठहराने की जिद करने वाले लोग जड़, मूर्ख एवं अहंकारी होते हैं। भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में से एक, पूर्व वित्त एवं विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा ने जीएसटी को लेकर जो चिंता व्यक्त की है, उस चिंता को उनसे पूर्व भी सुब्रमण्यम स्वामी जैसे कई अनुभवी नेता, अर्थशास्त्री एवं समाजशास्त्री व्यक्त कर चुके हैं किंतु यह देखकर हैरानी होती है कि यशवंत सिन्हा की बात पर गंभीर मंथन करने के पश्चात् ही कोई उत्तर देने के स्थान पर राजनाथ सिंह जैसे अनुभवी एवं स्वच्छ छवि वाले नेताओं ने यह कहने में विलम्ब नहीं किया कि देश की अर्थव्यस्था तेजी से पटरी पर दौड़ रही है। क्या अपनी सरकार की सही एवं गलत, हर बात में, हाँ में हाँ मिलाने तक ही आज की राजनीति सीमित होकर रह गई है!

जीएसटी को लागू हुए पर्याप्त समय हो चुका है और इसके अच्छे-बुरे पक्ष देश के सामने आने लगे हैं। कर-वंचकों को कर देने के लिए बाध्य करना एक अच्छी सरकार की जिम्मेदारी है, इस दृष्टि से जीएसटी एक अच्छा कदम कहा जा सकता है किंतु कर-वंचकों को घेरने के चक्कर में जब सरकार आम आदमी की रोजी-रोटी पर भी फंदा डाल दे तो उसे अच्छा कदम नहीं कहा जा सकता। जीएसटी की जटिलताएं आज भी देश के लाखों वकील और चार्टर्ड एकाउण्टेंट नहीं समझ पाए हैं, आम आदमी के लिए तो यह किसी मुसीबत से कम नहीं है। छोटे-छोटे कारोबरी आज भी जीएसटी में पंजीकरण कराने, मासिक-त्रैमासिक विवरणियां भरने और पैनल्टियों से बचने में अपने आप को फंसा हुआ पाते हैं और स्वयं को अपमानित एवं ठगा हुआ अनुभव कर रहे हैं। कुछ व्यापारी तो दम घुटने जैसी स्थिति में हैं। क्या किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए जनता के बीच ऐसी स्थितियां पैदा कर देना समझदारी का काम कहा जा सकता है!
सरकार की एजेंसियों में यदि सत्य को सुनने, समझने और कहने की शक्ति है तो वे सोशल मीडिया को उठाकर देख लें, चारों तरफ जीएसटी की जटिलताओं की चर्चा है, लोगों के काम-धंधे मंद पड़ने की चर्चा है और नवीन रोजगारों के अवसर घटने की चर्चा है। सरकार की एजेंसियों के लिए कुतर्क करने के लिए पर्याप्त कारण है कि जीएसटी के बाद लेखाकारों एवं वकीलों के लिए रोजगार के नए अवसर उत्पन्न हुए हैं किंतु उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि वकीलों और लेखाकारों की हर माह मोटी फीसें कौन चुकाएगा!
जिस प्रकार रेल मंत्री पीयूष गोयल ने सत्य को स्वीकार करके रेलवे में एक लाख रिक्त पदों पर कार्मिकों की भर्ती की घोषणा करने का साहस दिखाया है और दुरंतो तथा राजधानी गाड़ियों से फ्लैक्सी किराया पद्धति बंद करने की घोषणा करने का साहस दिखाया है, क्या वित्त मंत्री अरुण जेटली जीएसटी का सरल और कॉमनमैन फ्रैण्डली विकल्प देने का नैतिक साहस दिखा सकते हैं! क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिनकी छवि जनता से कर वसूलने वाले कठोर शासक की बनती जा रही है, करों की दरें कम करने तथा लाखों करोड़ रुपए से बनने वाली बुलेट ट्रेन के फैसले पर दुबारा से विचार करने का नैतिक साहस दिखा सकते हैं!
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में अपनी ही पीठ ठोकते नहीं थकते कि वे जनता के हित में कठोर फैसले ले रहे हैं किंतु कभी जनता के मुंह से सच्चाई सुनने की हिम्मत तो दिखाएं। ईमानदारी की बात यह है कि जनता अपनी बैंक जमाओं पर ब्याज दर घटने, जिन चीजों पर पहले कर नहीं लगता था, उन पर भी कर लगने, रेलवे और वायुयान के किराए बढ़ने, पैट्रोल-डीजल के भाव बढ़ने, महंगाई बढ़ने, जीएसटी की जटिलताओं के कारण काम-धंधे में नई कठिनाइयों के उत्पन्न होने से तंग है। कहीं ऐसा न हो कि प्रधानमंत्री अपनी तारीफ करते ही रह जाएं, उनके मंत्री उनकी हाँ में हाँ मिलाते रह जाएं और जनमत भारतीय जनता पार्टी के हाथ से खिसक कर किन्हीं और हाथों में चला जाए। यह ठीक वैसा ही होगा जैसा कि सोनिया गांधी और उनकी पार्टी चारों तरफ से हो रही आलोचनाओं की अनसुनी करके 2014 के चुनावों में कुर्सी से उतर कर धरती पर आ गईं और जनता ने उन्हें सच्चाई से अच्छी तरह परिचय करा दिया।
जीएसटी को लेकर देश में जो कुछ दिखाई दे रहा है, उसके परिप्रेक्ष्य में इस कहावत का स्मरण करना अनुचित नहीं होगा कि जब रोम जल रहा था, तब नीरो वीणा बजा रहा था। शेक्सपीयर के सुप्रसिद्ध नाटक जूलियस सीजर की एक पंक्ति है, यदि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने सुनी हो तो इस पर समय रहते अमल कर लें और न सुनी हो तो सुन कर अमल कर लें- जूलियस सीजर की पत्नी को पवित्र होना ही जरूरी नहीं है, उसे पवित्र दिखना भी जरूरी है। अर्थात् इतना कह देना भर पर्याप्त नहीं है कि देश की अर्थव्यस्था तेजी से दौड़ रही है, ऐसा होते हुए दिखना भी जरूरी है।
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मुलायम का पुत्र प्रेम उमड़ा, भाई शिवपाल को फिर दिया झटका

सियासत भी अबूझ पहेली जैसी है। यहां रिश्तों की अहमियत नहीं होती है और दोस्ती−दुश्मनी की परिभाषा बदलती रहती है। सियासत के बाजार में जो दिखता है वह बिकता नहीं है और जो बिकता है वह दिखता नहीं है। इसीलिये समाजवादी पार्टी में बाप−बेटे के बीच के झगड़ों को कोई गंभीरता से ले रहा है तो तमाम लोगों को लगता है कि दिग्गज मुलायम अपने बेटे अखिलेश के सियासी सफर को आसान बनाने के लिये एक तय पटकथा पर काम कर रहे हैं, जिसमें भाई शिवपाल यादव की ‘सियासी आहूति’ दी जा रही है। चाचा शिवपाल की स्थिति तो प्यादे जैसी हो गई है। उन्हें अखिलेश की सपा से अलग−थलग कर दिया गया है तो मुलायम भी भाई शिवपाल के मामले में एक कदम साथ चलकर दो कदम पीछे चले जाने वाला ढर्रा अपना रहे हैं। इसको लेकर शिवपाल खेमे में नाराजगी है, तो अब शिवपाल का भी भाई मुलायम से विश्वास उठने लगा है। मुलायम, बेटे के प्रति सख्त होने का दिखावा करते हुए उसके प्रति ‘मुलायम’ भी बने हुए हैं। यह बात अब शिवपाल के साथ−साथ सियासी गलियारों में भी जगजाहिर हो चुकी है। मुलायम की सियासी समझदारी की दाद भी दी जा रही है।

आज की तारीख में सपा की सियासत से शिवपाल यादव की पूरी तरह से विदाई हो चुकी है। 15 महीने से चल रहे यादव परिवार के विवाद में गत दिनों एक नया मोड़ तब आया था जब मुलायम सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस करके नई पार्टी बनाने की संभावनाएं तो खारिज कर ही दीं, पुत्र अखिलेश को कुछ प्रश्न खड़े करने के साथ आशीर्वाद भी दे दिया। शिवपाल के प्रति मुलायम ने प्यार का इजहार तो किया, लेकिन ऐसा लग रहा था कि मुलायम अपने छोटे भाई की सियासी महत्वाकांक्षा को लेकर सोच में पड़े हुए थे। यह बात साबित करने के लिये अतीत के कुछ पन्नों को पलटना जरूरी है। जहां शिवपाल विद्रोही नेता के रूप में नजर आते थे।
बहरहाल, रिश्तों में खटास की शुरूआत उसी समय हो गई थी, जब 2012 में सपा सत्ता में आई थी। चुनाव नतीजे आने के बाद मुलायम ने मुख्यमंत्री बनने से इंकार किया, तो शिवपाल अपने को मुलायम का उत्तराधिकारी समझने लगे। उनका सीएम बनने का सपना देखना लाजिमी भी था। उधर, अखिलेश यादव पार्टी के भीतर युवा नेता के रूप में उभर चुके थे। उन्हें सपा की शानदार जीत के लिये नायक की तरह पेश किया जा रहा था। चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश द्वारा किये गये वायदों को जनता ने गंभीरता से लिया था। यह सब पचाना चाचा शिवपाल के लिये आसान नहीं था। इसीलिये नेताजी की इच्छा जानते हुए भी शिवपाल, सीएम के लिये अखिलेश के नाम पर कभी सहमत नहीं हुए। कई दिनों तक शिवपाल की नाराजगी चर्चा का विषय बनी रही, लेकिन मुलायम ने भाई पर बेटे को तरजीह दी। तब से लेकर आज तक समाजवादी पार्टी में यही स्थिति बरकरार है। पूरे घटनाक्रम में पिता मुलायम अपने बेटे अखिलेश के हाथों सियासी शिकस्त खाने के बाद भी जीत का अहसास कर रहे हैं तो यह बाप का बड़प्पन ही है।
हाँ, पिता जैसा दिल चाचा का हो, ऐसा कम देखने को मिलता है। अखिलेश की ताजपोशी से चचा शिवपाल की पार्टी में मुलायम के बाद नंबर दो की हैसियत बनने की हसरत अधूरी रह गई थी। यह और बात थी कि अखिलेश के सीएम बनने के बाद भी शिवपाल अपनी हैसियत को लेकर मुगालता पाले रहे। उन्हें यही लगता रहा कि भतीजा−भतीजा ही रहेगा फिर, चाहे वह सीएम ही क्यों नहीं बन जाये। ऐसा हुआ भी अखिलेश ने चाचा के सामने करीब तीन साल तक मुंह नहीं खोला, लेकिन जब चचा शिवपाल की दखलंदाजी से अखिलेश की स्वयं की और उनकी सरकार की छवि खराब होने लगी तो अखिलेश ने रिश्ते निभाने की बजाय सियासी जमीन बचाने को अहमियत दी। इससे चाचा−भतीजे के बीच खाई और गहरा गई।
दरअसल, भतीजे से विवाद के बीच चाचा शिवपाल ने भाई मुलायम से कई ऐसे फैसले करवाए जिससे विवाद बढ़ता ही चला गया। चुनाव से कुछ माह पूर्व जनवरी महीने में समाजवादी पार्टी के अधिवेशन में भी अखिलेश यादव ने शिवपाल का नाम लिये बिना इशारा किया था कि कुछ लोग नेताजी का फायदा उठा रहे हैं। शिवपाल यह सब अपने बल पर नहीं कर रहे थे, जानकार कहते हैं, उन्हें अमर सिंह का भी साथ मिला हुआ था, जिन्हें एक बार फिर मुलायम के करीब लाने में शिवपाल ने अहम भूमिका निभाई थी। एक समय तो नेताजी, अमर सिंह और शिवपाल की तिकड़ी काफी मजबूत नजर आ रही थी, लेकिन सत्ता की चाभी अखिलेश के पास थी, इसलिये वह इस तिकड़ी पर हमेशा भारी पडत़े रहे। इसके अलावा मुलायम के ढुलमुल रवैये ने भी अखिलेश की राह आसान करने का काम किया। इस दौरान राजनैतिक पंडित समझ रहे थे कि शिवपाल भले ही मुलायम के भाई और खास रहे हों, लेकिन वह भूल गए कि उनका भाई एक पिता भी है। उन्हें लगा कि वह अखिलेश के खिलाफ हो जाएंगे। इतिहास गवाह है कि ऐसा कभी नहीं हुआ। यह बात जब अमर सिंह को समझ में आई तो उन्होंने तुरंत मुलायम से दूरी बना ली और अब शिवपाल को भी यह बात समझ में आ गई है। 25 सितंबर को जब सब तरफ यह उम्मीद जताई जा रही थी कि मुलायम अपने भाई शिवपाल के साथ मिलकर नई पार्टी का एलान कर सकते हैं, तब ऐन मौके पर मुलायम ने न केवल पलटी मार दी बल्कि अखिलेश को आशीर्वाद का वचन भी दे दिया।
बात अखिलेश की कि जाये तो पूरे घटनाक्रम में जहां अखिलेश ने अपना रूख कड़ा रखा तो वहीं शिवपाल भी झुकने को तैयार नहीं दिखे। कई बार ऐसा लगा कि पार्टी बिखर जायेगी। तो कई मौके ऐसे भी आए जब सुलह की गुंजाइश बनती दिखी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। शिवपाल लगातार धोखा खाने के बाद भी भाई पर विश्वास किये जा रहे थे। उन्हें लगता था कि मुलायम अलग पार्टी बनाने को तैयार हो जायेंगे। इसके लिये उनकी तरफ से पूरी रूप रेखा भी तैयार कर ली गई थी। 25 सितम्बर 2017 को शिवपाल के कहने पर मुलायम ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाई, चर्चा थी कि मुलायम अलग पार्टी बनाने की घोषणा कर सकते हैं। इसके लिये शिवपाल ने एक प्रेस नोट भी नेताजी की तरफ से तैयार करा लिया था, जिसमें एक अलग सेक्युलर मोर्चा बनाने की बात थी, लेकिन मुलायम ने शिवपाल का प्रेस नोट पढ़ा ही नहीं। इससे शिवपाल तिलमिला गये।
चाचा−भतीजे की जंग में परिवार की कुछ महिलाओं का भी नाम उछाला, जिनके बारे में कहा जा रहा था कि वह अखिलेश के खिलाफ शिवपाल का साथ दे रही हैं। तात्पर्य यह है कि मुलायम के परिवार में जब तलवारें खिंची तो इसको धार घर के भीतर से ही मिल रही थी। जो विवाद मिलकर बैठकर सुलझाया सकता था वह सड़क पर आ गया। मंच पर चाचा−भतीजे बच्चों की तरह लड़ते दिखाई देने लगे। इसका प्रभाव विधानसभा चुनाव पर भी पड़ा। बीजेपी ने इस मुद्दे को खूब हवा दी, परिणाम स्वरूप सपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। परंतु न तो रिश्तों की रार खत्म हुई और न मुलायम का ढुलमुल रवैया बदला। इसका नजारा हाल ही में एक बार फिर तब देखने को मिला था, जब मुलायम ने लोहिया ट्रस्ट से प्रो0 रामगोपाल की छुट्टी करके शिवपाल को ट्रस्ट का सचिव बना दिया, जिसके अध्यक्ष मुलायम सिंह स्वयं थे।
मुलायम के इस फैसले से शिवपाल को थोड़े समय के लिये नई ऊर्जा जरूर मिली, जो ‘सेक्युलर मोर्चा’ का गुब्बारा ऐन वक्त पर फूट जाने के बाद खत्म हो गई। यह सब अचानक नहीं हुआ था। सेक्यूलर मोर्चा बनाने और बनने न देने का खेल दोनों खेमों के बीच लम्बे समय से चल रहा था। शिवपाल इस मोर्चे को लेकर उत्साहित थे, तो अखिलेश को मानो हकीकत पता थी, सब कुछ लिखी पटकथा की तरह हुआ। बेटे के द्वारा पार्टी का संरक्षक बनाये गये पिता मुलायम सिंह ने ऐन वक्त पर जो दांव चला, उसने न सिर्फ शिवपाल को और हाशिये पर डाल दिया, बल्कि अखिलेश की पार्टी पर पकड़ पूरी तरह से मजबूत हो गई।
इस बीच एक खेल और देखने को मिला। लखनऊ में समाजवादी पार्टी के राज्य सम्मेलन में अपने संबोधन के दौरान अखिलेश ने अपने पिता मुलायम के आशीर्वाद का जिक्र कर शिवपाल खेमे को करारा जवाब दिया तो पिता को अपने पक्ष में करने की कोशिश में वह कामयाब होते दिखे। राज्य सम्मेलन में मुलायम के करीबी नेता बेनी प्रसाद की मंच पर मौजूदगी और आजम खां का अखिलेश के प्रति उमड़ा प्यार और मंच से ही शिवपाल पर करारा हमला यह जताने के लिये काफी था कि शिवपाल का समाजवादी पार्टी में सियासी सफर खत्म हो चुका है। भले ही शिवपाल ने सपा को इस मुकाम तक पहुंचाने में अहम किरदार निभाया था। मुलायम ने एक ही झटके में अखिलेश की राह आसान कर दी। इससे सबक लेते हुए शिवपाल और उनके समर्थक अलग मोर्चे के गठन की पैरोकारी करने में लगे रहे, लेकिन शिवपाल के लिये ऐसा करना आसान नहीं लगता है। मुलायम के इस फैसले के साथ ही तय हो गया है कि अब सपा में अखिलेश के लिए कोई चुनौती नहीं रह गई है। अब तक शायद शिवपाल को भी यह समझ में आ गया होगा कि बाप−बाप रहता है।
– अजय कुमार
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‘नए भारत’ के नए वादे पर आर्थिक संकट का काला बादल

चारों तरफ से आ रही आर्थिक संकट की ख़बरों ने अचानक भाजपा की जान को सांसत में डाल दिया है. बेहद खराब तरीके लागू किए गए नोटबंदी के फैसले के बाद कुछ वैसी ही बदइंतजामी जीएसटी को लागू करने के मामले में भी दिखाई दे रही है. इसने छोटे कारोबारियों की कमर तोड़ दी है, जिसका नतीजा नोटबंदी के बाद के महीनों में उत्पादन और बेरोजगारी में आई गिरावट की स्थिति के और भयावह होने के तौर पर सामने आया है.

कारोबारी कंपनियां जीएसटी के लागू होने से पहले अपना स्टॉक खाली करने में लगी हुई थीं. उन्हें उम्मीद थी कि वे नई कर-प्रणाली में नया स्टॉक जमा करेंगी. लेकिन, विशेषज्ञों का कहना है कि जीएसटी को खराब तरीके से लागू किए जाने के कारण नया स्टॉक जमा करने रफ्तार काफी सुस्त है और कंपनियां फिलहाल जीएसटी व्यवस्था के स्थिर होने का इंतजार कर रही हैं. इसके बाद ही वे रफ्तार पकड़ेंगी.

इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सब त्योहारों के मौसम के ठीक पहले हो रहा है. 2017 की दूसरी छमाही में इसका असर आर्थिक विकास पर पड़ना तय है. जैसा कि कई लोगों ने आशंका जताई थी, जीएसटी को लागू करने के बाद मुद्रास्फीति में भी थोड़ी बढ़ोतरी दर्ज की गई है. पिछले कई दशकों में घरेलू पेट्रोल और डीजल की सर्वाधिक कीमत ने भी स्थिति को और बिगाड़ने का काम किया है.

इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि तेल पर लगाए गए रिकॉर्ड टैक्स स्थिर राजस्व का एकमात्र स्रोत हैं, क्योंकि इसे जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है. फिलहाल जीएसटी नहीं, तेल पर लगा कर ही केंद्र सरकार की जान बचाए हुए है.

वित्त मंत्री अरुण जेटली की मुश्किलों को और बढ़ाते हुए जीएसटी नेटवर्क के उम्मीदों से कमतर प्रदर्शन (ऐसा कहना शायद स्थिति की गंभीरता को कम करके बताना है) ने 2017-18 में राजस्व में कमी का गंभीर खतरा पैदा कर दिया है. इससे केंद्र के राजकोषीय हिसाब-किताब के गड़बड़ाने की आशंका पैदा हो गई है. वित्त मंत्रालय को पहला झटका तब लगा जब जुलाई के महीने के लिए जीएसटी के तहत जमा हुए 95,000 करोड़ रुपये में से कुल 65,000 करोड़ रुपये के रिफंड का दावा उसके सिर पर आ गया.

अगर इन सारे रिफंड दावों को स्वीकार कर लिया जाता है, तो केंद्र के पास महज 30,000 करोड़ रुपये ही बचेंगे, जबकि बजट में प्रति माह वास्तविक कर संग्रह 90,000 करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान लगाया गया है. पुराने स्टॉक पर रिफंड के प्रावधान के कारण पहले महीने में रिफंड के ज्यादा दावों के आने का अंदाजा पहले से ही था. अनुमान है कि आनेवाले महीनों में जीएसटी से ज्यादा राजस्व प्राप्त होगा. लेकिन, जीएसटीएन के सॉफ्टवेयर में आ रही दिक्कतों को देखते हुए इस वित्तीय वर्ष में इस पूरी कवायद का भविष्य अधर में लटका हुआ नजर आता है.

जीएसटीएन में आ रही विभिन्न परेशानियों को दूर करने के लिए राज्यों के मंत्रियों की नवनिर्मित समिति की अगुआई कर रहे बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने पिछले सप्ताह एक दिलचस्प बयान दिया: ‘हम नाव को खेते हुए नाव का निर्माण कर रहे हैं.’ साफ तौर पर यह बयान केंद्र को कठघरे में खड़ा करता है, जिसने बगैर पर्याप्त तैयारी के जीएसटी को लागू कर दिया.

इस नई समिति के सदस्य कर्नाटक के कृषि मंत्री कृष्ण बायरे गौड़ा ने द वायर को बताया कि जीएसटीएन के सॉफ्टवेयर के साथ कई दिक्कतें हैं, जिन्हें ठीक करने में कम से कम छह महीने का वक्त लग जाएगा.

उन्होंने कहा, ‘फिलहाल बहुत बुनियादी परेशानियां सामने आ रही हैं. मसलन, व्यापारी यह शिकायत कर रहे हैं कि उन्होंने रजिस्ट्रेशन करा लिया है और जीएसटी रिर्टन भी अपलोड कर दिया है, लेकिन इसे सिस्टम द्वारा नहीं दिखाया जा रहा है. सिस्टम की कछुआ चाल ने टैक्स भरनेवालों को दिन में तारे दिखा दिए हैं. जीएसटी सिस्टम इनवॉयस और विभिन्न चरणों, मसलन, जीएसटीआर-2 और जीएसटीआर-3, पर भरे गए रिटर्नों को अपलोड करने में भी परेशानी पैदा कर रहा है. इससे भी खराब बात ये है कि राज्य सरकारें जीएसटी अदायगी की निगरानी करने के लिए कंपनियों से संबंधित आंकड़ों को निकालने में असमर्थ साबित हो रही हैं.’

गौड़ा का कहना है कि समिति के सदस्यों से सॉफ्टवेयर प्रोवाइडर से बात की है और ‘उनका कहना है कि उन्हें जुलाई में जीएसटी के लागू होने से पहले आखिरी मौके पर प्रक्रियागत नियमावली (प्रोटोकॉल) सौंपी गई. ट्रायल रन करने के लिए पर्याप्त समय नहीं था.’ इसलिए अब हम यह समझ सकते हैं कि आखिर सुशील मोदी के यह कहने का क्या अर्थ है कि नाव का निर्माण, बहती हुई नाव पर बैठे-बैठे किया जा रहा है!

संघ परिवार के शीर्ष विचारकों ने देर से इस बात को स्वीकार किया है कि अर्थव्यवस्था की अस्थिर नाव पहले से ही नोटबंदी के कारण आए तूफान से पछाड़ खाते हुए हुए समुद्र में बह रही है. संघ परिवार के एक महत्वपूर्ण आर्थिक विचारक एस. गुरुमूर्ति ने कहा है कि एक साथ नोटबंदी, जीएसटी, बैंकों की गैर-निष्पादन परिसंपत्तियां (एनपीए), सेटलमेंट प्रोसेस और काले धन पर कई स्तरों पर किए जा रहे हमले ने व्यापार को बड़ा झटका दिया है.

गुरुमूर्ति की यह आत्मस्वीकृति काफी दिलचस्प है, क्योंकि वे नोटबंदी, जीएसटी और निजी उद्यमियों तथा छोटे कारोबारियों पर कर-अधिकारियों की मनमानी कार्रवाई के सबसे बड़े समर्थकों में से एक थे. टैक्स डिपार्टमेंट बड़े कारोबारियों पर हाथ नहीं डाल रहा है. इसका कारण शायद ये है कि उनके साथ इनके संबंध मुद्दतों से अच्छे रहे हैं. आपको अगर इस बात का अर्थ समझना है, तो आपको बस नौकरी छोड़कर भारत की शीर्ष 500 कंपनियों से जुड़नेवाले वरिष्ठ टैक्स अधिकारियों की संख्या देखनी पड़ेगी.

यानी संघ परिवार के विचारक अब ये खुलकर मान रहे हैं कि मोदी और जेटली ने दरअसल नवजात शिशु को सीधे पानी में तैरने के लिए फेंक दिया है. जीएसटी का वर्तमान चरण इसकी सबसे बड़ी मिसाल है. जुलाई महीने के लिए जीएसटी रिटर्न दाखिल करने और वाजिब रिफंड का दावा करनेवाले कारोबारियों को इस तरह परेशान किया जा रहा है, मानो वे कोई अपराधी हों.

पहले निर्यातकों को हमेशा एक्साइज ड्यूटी से मुक्त रखा जाता था, क्योंकि वे वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करते थे. जीएसटी के तहत, चूंकि सभी कारोबारियों को प्रक्रिया के तहत अप्रत्यक्ष कर भरना पड़ रहा है, इसलिए निर्यातकों से 18 प्रतिशत जीएसटी भरने के लिए कहा गया था, जिसे उनके माल को विदेश भेजने से पहले वापस लौटाने की बात कही गई थी.

लेकिन अब निर्यातकों की यह शिकायत है कि उनका टैक्स रिफंड समय पर नहीं आ रहा है. निर्यातक इसके लिए इंतजार नहीं कर सकते, क्योंकि वे मौसम के हिसाब से काम करते हैं. मसलन, क्रिसमस के लिए बाहर माल भेजना. 18 प्रतिशत जीएसटी चुका देने के बाद उनकी कामकाजी पूंजी फंस जाती है. यह एक बड़ी रकम है. उन्हें छोटी अवधि में कामचलाऊ पूंजी की जरूरत को पूरा करने के लिए कर्ज लेने के लिए अतिरिक्त पैसा चुकाना पड़ रहा है. इससे उनका मुनाफा और सिकुड़ रहा है.

भारत करीब 300 अरब अमेरिकी डॉलर का सालाना निर्यात करता है जिससे जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा आता है. कल्पना कीजिए कि जीएसटी अधिकारी निर्यात मूल्य का 18 प्रतिशत अपने पास रख लेते हैं और उसे समय पर वापस नहीं लौटाते हैं. यह निर्यातकों के लिए किसी खराब सपने से कम नहीं कहा जा सकता है. निर्यातकों को त्वरित रिफंड के इस समीकरण को समझ पाने में वित्त मंत्रालय नाकाम रहा. जाहिर है इसका खामियाजा किसी न किसी को तो उठाना ही पड़ेगा.

जीएसटी के पहाड़ जैसे कुप्रबंधन के मद्देनजर, अगर 2017 की दूसरी छमाही में जीडीपी विकास दर अप्रैल-जून में दर्ज किए गए 5.7 प्रतिशत से भी नीचे लुढक जाती है, तो मुझे कोई हैरत नहीं होगी. निश्चित तौर पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के इस साहस भरे बयान के बावजूद कि लोगों को ‘आधिकारिक आंकड़ों को नजरअंदाज करना चाहिए’ सरकार के अंदर अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहे काले बादलों को लेकर बदहवासी की स्थिति है.

भारत के अनौपचारिक क्षेत्र, खासकर कृषि और छोटे उद्योगों को हुए नुकसान का काफी विस्तार से दस्तावेजीकरण किया गया है. पिछले कुछ महीनों से सोशल मीडिया पर इस मसले पर लगातार आंकड़ों के सहारे बात की जा रही है. छोटी कंपनियों (जिनका कुल कारोबार 25 करोड़ से कम है) को लेकर किए गए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के एक सर्वेक्षण के मुताबिक जनवरी-मार्च, 2017 में उनकी बिक्री में 58 फीसदी की गिरावट देखी गई. जुलाई के बाद जीएसटी ने उनकी बदहाली को और बढ़ाया ही होगा.

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सेवा समूह, क्रेडिट सुइस की मुंबई स्थित रिसर्च इकाई ने हाल ही में कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बेहद खराब दौर से गुजर रही है और नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े नीतिगत उपायों ने अर्थव्यवस्था में बड़ी रुकावटें पैदा की हैं.

क्रेडिट सुइस का कहना है कि इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि इन रुकावटों के साथ-साथ कुल सरकारी खर्च में भी भारी कमी आई है. यह याद रखना होगा कि निजी निवेश की गैरहाजिरी में संभवतः सार्वजनिक निवेश ही वह इकलौता इंजन बचा था, जो विकास की गाड़ी को थोड़ा-बहुत आगे खींच रहा था.

2019 के चुनावों से 18 महीने पहले, भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था पूरी तरह से लड़खड़ाई हुई दिखाई दे रही है. मोदी द्वारा लगातार 2022 तक पूरे किए जाने वाले नामुमकिन वादों की झड़ी लगाने का सिलसिला जारी है. इन नए वादों के पीछे छिपा संदेश यह है कि 2019 में उनकी सत्ता में वापसी पहले से ही तय है.

इतिहास हमें बताता है कि राजनीति अक्सर चकमा देती है. किसी निजाम के आत्मविश्वास और लोकप्रियता के अपने चरम पर पहुंचने के ठीक बाद पैरों के नीचे की ज़मीन खिसकना शुरू कर देती है. मतदाता 2018 के बाद इस बारे में गंभीरता के साथ आकलन करना शुरू करेगा कि ‘नए भारत’ का वादा सच्चा है या फिर यह एक और बुलबुला है, जिसकी नियति ‘स्वच्छ भारत’ के कूड़ेदान में पड़ा पाया जाना है.

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लेख

डिजीटल शौचालयः सुविधा से मुसीबत तक (व्यंग्य)

भारत की हमारी महान सरकार ने तय कर लिया है कि वो हर चीज को डिजीटल करके रहेगी। वैसे तो ये जमाना ही कम्प्यूटर का है। राशन हो या दूध, रुपये पैसे हों या कोई प्रमाण पत्र। हर चीज कम्प्यूटर के बटन दबाने से ही मिलती है। जब से मोबाइल फोन स्मार्ट हुआ है, तब से पूरी दुनिया सचमुच मुट्ठी में आ गयी है।

लेकिन हमारे शर्मा जी का मानना है कि हर चीज की कोई न कोई सीमा होती है। बात इससे आगे निकल जाए, तो मामला खतरनाक हो जाता है। सरकार ने राशन पर तो सीमा बांध दी, पर भाषण पर नहीं। इसलिए कई नेता बिना सोचे समझे बोलते चले जाते हैं। एक नेता जी भाषण के दौरान कई बार संकेत देने पर भी जब नहीं माने, तो संचालक महोदय ने माइक ही बंद करा दिया। झक मार कर उन्हें बैठना ही पड़ा। एक नेता जी को आंख बंद करके बोलने की आदत थी। चुनाव के दौरान एक बार तीन घंटे के धाराप्रवाह भाषण के बाद जब उन्होंने आंख खोली, तो वहां दरी पर कुछ कुत्ते लमलेट हो रहे थे। नेता जी ने उन्हीं से वोट की अपील कर अपना भाषण समाप्त किया।
बस ऐसी ही कुछ बात इन दिनों हो रही है। सरकार ने तय किया है कि वह ‘डिजीटल शौचालय और स्नानघर’ बनाएगी। जब से शर्मा जी ने ये खबर पढ़ी है, तबसे वे बहुत परेशान हैं। असल में पेट खराबी के कारण उन्हें दिन में कई बार वहां जाना पड़ता है। दफ्तर में भी सीट पर न होने की स्थिति में वे प्रायः वहीं पाये जाते थे। यद्यपि रिटायर होने के कारण अब घर पर इसके लिए उन्हें पूरी फुरसत रहती है। फिर भी उनकी समझ में नहीं आ रहा कि ‘डिजशौचालय’ क्या और कैसा होगा ?
क्या वहां समय की सीमा होगी; यदि निर्धारित समय में काम पूरा न हुआ तो; वहां पानी कितना मिलेगा; पैसे नकद देने पड़ेंगे या वहां कोई ए.टी.एम. या पे.टी.एम. जैसी पेमेंट मशीन होगी; क्या वहां 24 घंटे जागने वाले सी.सी.टी.वी. कैमरे भी होंगे ? बाजार में तो दुकानदार से मोलभाव हो जाता है। शर्मा जी को इसके बिना खरीदारी करने में मजा ही नहीं आता। वहां इसकी गुंजाइश होगी या नहीं ?
इस बारे में उन्होंने मुझसे पूछा। मैंने साफ बता दिया कि मेरा डिजीटल ज्ञान बहुत कम है। इस पर वे गुप्ता जी के पास चले गये। गुप्ता जी का बेटा कम्प्यूटर इंजीनियर है। उसने शर्मा जी को इस बारे में विस्तार से बताया। तबसे वे इस बारे में ही सोचते रहते हैं। परिणाम ये हुआ कि वे पहले से भी ज्यादा परेशान हो गये हैं।
कल इसी बारे में सोचते हुए उनकी आंख लग गयी। नींद में उन्हें लगा कि वे बाजार में घूम रहे हैं। अचानक उन्हें पेट पर कुछ दबाव महसूस हुआ। उन्होंने आसपास देखा, तो सामने एक ‘डिजशौचालय’ दिखायी दिया। शर्मा जी के पास उनके बेटे द्वारा दिया हुआ एक ‘ग्रीन कार्ड’ था। वह हर बैंक या ए.टी.एम. जैसी डिजीटल जगहों पर चल जाता था; पर आज उसमें पैसे बहुत कम थे। शर्मा जी ने उसे‘डिजशौचालय’ के दरवाजे पर लगाया। इससे दरवाजा खुल तो गया, पर स्क्रीन पर ये संदेश भी आ गया कि पैसे कम होने के कारण आप छोटा काम कर सकते हैं, बड़ा नहीं। शर्मा जी की जरूरत बड़े काम की थी। उन्हें बहुत गुस्सा आया; पर गुस्सा करें किस पर ? ‘डिजशौचालय’ होने के कारण वहां कोई आदमी था ही नहीं। एक तो पेट पर दबाव, फिर दिमाग में तनाव। भगवान की दया रही कि इस दोहरी परेशानी का दुष्परिणाम होने से पहले ही उनकी आंख खुल गयी।
अगले दिन फिर उन्हें ऐसा ही सपना आया। तब वे एक पर्यटन स्थल पर ‘डिजस्नानघर’ में नहा रहे थे। उन्होंने अच्छे से साबुन लगाया, पर तभी पानी बंद हो गया। हाथ, मुंह और आंखों तक में साबुन लगा था। जैसे-तैसे उन्होंने एक आंख खोलकर सामने स्क्रीन पर देखा। वहां लिखा था, “असुविधा के लिए खेद है। सर्वर डाउन होने से पानी बंद हो गया है। कुछ देर प्रतीक्षा करें।” कुछ देर बार जब उनकी आंख खुली, तो सचमुच मुंह पर कुछ साबुन लगा था। उनकी समझ में नहीं आया कि साबुन सच है सपना ?
ऐसा कई बार हो चुका है। तबसे शर्मा जी अपने घर में भी शौच-स्नान से डरने लगे हैं। हर काम को डिजीटल करने को तत्पर सरकार से मेरा आग्रह है कि शर्मा जी जैसे बुजुर्गों का भी ध्यान रखे। चीते की गति से दौड़ते हुए भी जमीन पर पैर टिकाए रखना जरूरी है। क्योंकि विज्ञान कितना भी उन्नति कर ले; पर कम्प्यूटर आदमी के लिए है, आदमी कम्प्यूटर के लिए नहीं।
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लेख

एक फकीर ने गुलाब सिंह को जम्मू-कश्मीर का राज सौंपा था!

है तो अविश्वसनीय लेकिन फिर भी विश्वास करना पड़ता है कि एक फकीर ने जम्मू कश्मीर पर राज करने वाले महाराजा गुलाब सिंह को जम्मू कश्मीर का राज सौंपा था सिर्फ इस आश्वासन के बदले कि उनके घर के साथ छेड़खानी नहीं की जाएगी। और ये फकीर थे बाबा गुलाम शाह बादशाह मशाही, जिनकी दरगाह को आज ‘शाहदरा शरीफ’ के नाम से पुकारा जाता है और अजमेर शरीफ के उपरांत उसी का स्थान भारत में माना जाता है।

पाकिस्तान से सटी नियंत्रण रेखा पर स्थित सीमावर्ती जिले राजौरी के थन्ना मंडी क्षेत्र में राजौरी से 29 किमी दूर शाहदरा शरीफ का स्थान एक दर्रे में स्थापित है जिसे ‘सीं दर्रा’ (शेर दर्रा) भी कहा जाता है। वैसे शाहदरा का असल नाम शाह का दर्रा था जो बाद में शाहदरा के नाम से प्रचलित हो गया है। आज भी इसकी इतनी ही मान्यता है जितनी बरसों पहले थीं।
बाबा शाह का जो वर्तमान मकबरा है उसका निर्माण बाबा ने आम 1224 हिजरी सम्वत में आप ही करवाया था क्योंकि वे अपनी मौत के बारे में जान चुके थे। कहा जाता है कि इस मकबरे का निर्माण मुल्तान (पाकिस्तान) के रहने वाले एक कोढ़ी ने किया था जो चल भी नहीं पाता था और बाबा की कृपया से उसका कोढ़ भी दूर हो गया तथा उसे शाहदरा का रास्ता भी मालूम हो गया। वर्तमान मकबरा अपने आप में कारीगरी का एक बढ़िया नमूना है जिसकी कोई मिसाल नहीं मिल सकती है।
वर्ष 1978 तक इस स्थान का प्रबंध स्थानीय प्रबंधक समिति देखा करती थी और उसके बाद सरकार ने इस पर अपना अधिकार जमा कर इसके विकास के लिए चार करोड़ की राशि मंजूर कर दी। आज भी प्रतिदिन तीन से चार हजार के करीब श्रद्धालु सिर्फ, जम्मू कश्मीर से ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत से आते हैं जबकि इस दरगाह पर श्रद्धालुओं द्वारा जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है वह वर्ष में एक करोड़ से अधिक का होता है। और प्रति वर्ष मुहर्रम की 10 तारीख को उर्स भी होता है जिसमें हजारों श्रद्धालु बाबा की मजार के दर्शानार्थ आते हैं।
इस पवित्र और धार्मिक स्थल की अपनी एक कथा है। किवंदती के अनुसार बाबा गुलाम शाह, जो जिला रावलपिंडी तहसील गुजरखां गांव सैयदां कसरावां (अब पाकिस्तान में) के रहने वाले थे, के गुरु इमाम वरी पाक लतीफ ने उन्हें पहाड़ों पर जाने का आदेश दिया था क्योंकि उनका कहना था कि पहाड़ खाली है और वहां किसी फकीर को अवश्य जाना चाहिए। और गुरु आदेश का पालन करते हुए छोटी सी उम्र में ही बाबा 1700 ईस्वी के दौरान पुंछ रियासत में आ कर डेरा लगाने लगे।
इस दरगाह की देखभाल करने वाले कहते हैं कि पुंछ के राजा का भाई जब बाबा का बहुत अच्छा शिष्य बन गया तो मंत्रियों ने राजा के कान भरने आरंभ किए कि उनका भाई फकीरों की शरण जा कर उनका शासन हथियाने की साजिश रच रहा है। नतीजतन कान भरने की प्रक्रिया ने अपना प्रभाव दिखाया और राजा के सैनिकों ने उनके भाई का कत्ल कर दिया।
इस कत्ल की घटना ने बाबा गुलाम शाह के दिल में गुस्से की लहर भर दी और वे पुंछ रियासत को ही बरबाद करने पर तुल गए क्योंकि उनका कहना था कि जिस स्थान पर भाई-भाई पर विश्वास न करता हो वहां रहना तथा उस स्थान का खाना अच्छा नहीं है और वे क्रोध में बड़े बड़े पौधों को जड़ से उखाड़ कर फैंकने लगे। लेकिन चेलों की विनती पर उनका गुस्सा तो शांत हो गया लेकिन पुनः एक अन्य घटना ने उन्हें मजबूर कर दिया पुंछ को छोड़ने के लिए।
अब इस दरगाह की देखभाल करने वाले अधिकारी बताते हैं कि वे गुस्से में राजौरी की ओर बढ़े चले जा रहे थे कि डेरा गली में पहुंचने पर उन्होंने पांव में डाली हुई घास फूस की जूती यह कह कर उतार फैंकी कि वे पुंछ की मिट्टी को भी राजौरी की ओर लेकर नहीं जाएंगे। बताया जाता है कि वे चलते चलते वर्तमान स्थान पर पहुंचे जो सीं दर्रा के नाम से जाना जाता था तो तब उनको अपने गुरु की बातें याद आ गईं कि उनका अंतिम मुकाम सीं दर्रा ही होगा, लेकिन वहां पक्का ठिकाना बनाने से पूर्व उन्हें दो बातों की जांच करनी होगी।
प्रथम अपने डंडे को जमीन पर मार कर देखना होगा अगर वहां से आग निकलती है तथा बकरे को शेर उठा कर ले जाता है तो वही स्थान उनके लिए उपयुक्त होगा। उन्होंने दोनों बातों की परख की तो सच निकलीं और उन्होंने वहीं अपना डेरा जमा लिया।
कहा जाता है कि जिन गुज्जर परिवारों ने उन्हें सर्वप्रथम दूध-दही अर्पण किया था उन्हें बाबा ने आशीर्वाद दिया था कि उनके परिवारों में कभी दूध-दही खत्म नहीं होगा जो आज भी सच साबित हो रहा है।
बाबा थे तो बहुत गुस्से वाले और इसका परिणाम यहां भी देखने को मिला जब राजौरी के राजा जराल खान द्वारा उनकी किसी बात पर बेइज्जती कर देने के कारण उनके शाप का परिणाम यह हुआ कि राजा के चारों बेटे मृत्यु को प्यारे हो गए। लेकिन राजा की रानी ने अंत में बाबा से मिन्नतें कर उन्हें मना लिया और उन्होंने उसे एक और बेटे की मां बनने का वरदान तो दिया लेकिन यह भी कह दिया कि वह अपने बेटे का नाम अगार रखेगी क्योंकि उसकी पीठ पर शेर के पंजे का निशान होगा और अगर वह गलत रास्तों पर चलेगा तो उसका शासन खत्म हो जाएगा। बाद में यह बातें अक्षरशः सत्य साबित हुईं। इसी स्थान पर बाबा ने एक गुफा के भीतर ही करीब 46 साल काटे जो आज भी विद्यमान है।
जैसा कि बताया जाता है कि समय के बीतने के साथ साथ अगार खान बड़ा होता चला गया और गद्दी पाने के उपरांत उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया। कहा जाता है कि उसके इसी व्यवहार का लाभ उसके मंत्रियों ने उठाया और उसे पंजाब के राजा महाराजा रंजीत सिंह को कर देने से बंद करने के लिए उकसाया जिस पर जब उसने अमल किया तो महाराजा रंजीत सिंह ने राजौरी पर हमला करने के लिए अपनी फौज भेज दी। इस फौज में एक डोगरा सिपाही गुलाबु भी शामिल था जो बाद में बाबा की कृपया से जम्मू कश्मीर का राजा बन गया क्योंकि बाबा से उसने वायदा किया कि अगर उसे राज्य मिल जाता है तो वह उनके घर (वर्तमान स्थान) से छेड़छाड़ करने की इजाजत किसी को भी नहीं देगा।
और बाबा ने अगार खान के छुपने के स्थान की जानकारी देकर उसे महाराजा गुलाब सिंह के हाथों गिरफ्तार करवा दिया और इस तरह से जब महाराजा रंजीत सिंह की नजरों में उनकी इज्जत बढ़ी तो उन्होंने महाराजा गुलाब सिंह को जम्मू का राज सौंप दिया। जबकि बाद में अमृतसर संधि के अंतर्गत महाराजा गुलाब सिंह ने कश्मीर को 75 लाख रूपयों में खरीदा और लद्दाख पर फतह पाई।
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लेख

जुमलों के सहारे ज्यादा दिनों तक बेवकूफ नहीं बना सकती सरकार

विपक्ष में बैठकर सरकार पर हमला बोलना काफी आसान होता है। मुझे याद है जब यूपीए के दौर में पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते थे तो बीजेपी के तमाम बड़े नेता सड़कों पर उतर जाते थे…हर तरफ महंगाई का रोना रोया जाता था और सरकार को नए-नए तमगों से नवाजा जाता था। यहां तक कि खुद नरेंद्र मोदी भी सरकार पर हमला बोलने से नहीं चूकते थे। आज देश के कई राज्यों में पेट्रोल की कीमत 80 रुपए तक पहुंच गयी है लेकिन अच्छे दिन का नारा देने वाली सरकार खामोश है।

एक तरफ देश की जनता पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों से परेशान है दूसरी तरफ मोदी सरकार के मंत्री उनके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं मोदी कैबिनेट में शामिल उनके नए मंत्री केजे अल्फोंस की। मंत्री जी ने देश की जनता को अर्थशास्त्र समझाते हुए कहा कार और बाइक चलाने वाले ही पेट्रोल खरीदते हैं और पेट्रोल खरीदने वाले भूखे नहीं मर रहे।
मंत्री जी के बयान पर बीजेपी ने भले ही चुप्पी साध ली हो लेकिन शिवसेना ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। शिवसेना यहां तक बोल गई कि अच्छे दिनों की हत्या हो रही है और हम बीजेपी के साथ रहकर आरोपों के भागीदार नहीं बनेंगे। शिवसेना ने गठबंधन तोड़ने की धमकी भी दे डाली।
सवाल उठता है कि जब कच्चे तेल के दाम करीब-करीब आधे हो गए तो पेट्रोल-डीजल के दाम क्यों नहीं घट रहे? आखिर ग्राहकों की जेब काटकर कौन कमाई कर रहा है? 26 मई 2014 को जब मोदी सरकार ने शपथ ली थी उस समय कच्चे तेल की कीमत 6330.65 रुपये प्रति बैरल थी। इस महीने कच्चे तेल की कीमत करीब-करीब आधी घटकर 3368.39 रुपये प्रति बैरल पर आ गई लेकिन फिर भी पेट्रोल-डीजल के दाम नहीं घटे। सरकार की ओर से तेल कंपनियों को पेट्रोल-डीजल के दाम तय करने की आजादी तो मिल गई लेकिन उसका ग्राहकों को फायदा नहीं हो रहा।
1 जुलाई से पूरे देश में लागू नई टैक्स व्यवस्था जीएसटी से पेट्रोल-डीजर को बाहर रखा गया है और इन पर अब भी केंद्र और राज्यों के अलग-अलग टैक्स लग रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक केंद्र में बीजेपी सरकार आने के बाद से डीजल पर लागू एक्साइज ड्यूटी में 380 फीसदी और पेट्रोल पर 120 फीसदी का इजाफा हुआ है। इस दौरान केंद्र को इस मद से हुई कमाई भी तीन गुणा से ज्यादा बढ़ गई है। लेकिन आम जनता की जेब अब भी कट रही है।
मोदी जी के मंत्री को कोई ये जाकर बताए कि दिल्ली में 15 हजार कमाने वाला शख्स भी बाइक रखता है…सिर्फ इसलिए नहीं कि उसे शौक है..बल्कि इसलिए क्योंकि उसे अपने दफ्तर और फैक्ट्री जाने में ज्यादा किराया नहीं भरना पड़ेगा। दिल्ली मेट्रो में दो किलोमीटर की यात्रा के लिए न्यूनतम किराया 10 रुपए है, 2 से 5 किलोमीटर के लिए 15, 5 से 12 किलोमीटर के लिए 20, 12 से 21 किलोमीटर के लिए 30, 21 से 32 किलोमीटर के लिए 40 और 32 किलोमीटर से अधिक के सफर के लिए 50 रुपए।
एक नई बाइक 50 से 55 किलोमीटर की माइलेज देती है…अगर किसी का दफ्तर उसके घर से 12 किलोमीटर दूर है तो मंत्री जी खुद अंदाजा लगा लें कि उसके लिए क्या आसान होगा बाइक से ड्यूटी जाना या फिर मेट्रो को चुनना।
हाल के कुछ महीनों में सरकार के कामकाज का आकलन करने के बाद मुझे कहीं न कहीं इस बात का आभास होने लगा है कि बीजेपी फिर अपने पुराने ढर्रे पर जा रही है। याद कीजिए साल 2004 जब बीजेपी ने ‘फील गुड’ और ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया था…बीजेपी को लगने लगा था कि जनता उसके साथ है लेकिन चुनाव में उसका ये नारा टायं-टायं फिस्स हो गया।
सोशल मीडिया के जमाने में आप प्रचार से अपने पक्ष में कोई भी इमेज बना लें…लेकिन अगर जनता नाराज हो गई तो फिर आपका कुछ नहीं होने वाला। दिल्ली में बड़े-बड़े फ्लाईओवर बनाने वाली शीला सरकार सिर्फ इसलिए सत्ता से बाहर हो गई थी क्योंकि जनता में यूपीए सरकार के खिलाफ गुस्सा था। कोई भी सरकार जुमलों के सहारे जनता को ज्यादा दिनों तक बेवकूफ नहीं बना सकती।
मनोज झा
(लेखक एक टीवी चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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लेख

पेट्रोल, डीजल की कीमतें बढ़ाते जाना मोदी सरकार की ‘शुद्ध बेईमानी’

हाल के दिनों में पेट्रोल और डीजल की कीमत साल 2014 के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें तीन साल पहले के मुकाबले आधी रह गई हैं, बावजूद इसके देश में पेट्रोल, डीजल की कीमत लगातार बढ़ती जा रही है। पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर आम-आदमी की थाली पर पड़ता है। गरीबों के साथ यह क्रूर मजाक है। महंगाई बढ़ने का कारण बनता है पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी होना। इससे मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोगों की हालत तबाही जैसी हो जाती है, वे अपनी परेशानी का दुखड़ा किसके सामने रोएं? बार-बार पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाना सरकार की नीयत में खोट को ही दर्शाता है, इस तरह की सरकार की नीति बिल्कुल गलत है, शुद्ध बेईमानी है। इस तरह की नीतियों से जनता का भरोसा टूटता है और यह भरोसा टूटना सरकार की विफलता को जाहिर करता है।

जिसके पास सब कुछ, वह स्वयंभू नेता और जिसके पास कुछ नहीं वह निरीह जनता। इसी परिभाषा ने तथाकथित नेताओं को बड़बोला बना दिया है, पेट्रोल और डीजल के बढ़े दामों की नाराजगी के बीच नए बने केंद्रीय पर्यटन राज्यमंत्री अल्फोंस कनन्नथानम ने ऐसा बयान दिया है जो जले पर नमक छिड़कने का काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि पेट्रोल-डीजल खरीदने वाले लोग कोई भूखे रहने वाले नहीं हैं, वे कार और मोटरसाइकिलों से चलते हैं। उन्हें डीजल और पेट्रोल का पैसा खर्च करने में क्यों तकलीफ होनी चाहिए। तेल की कीमत बढ़ाने का फैसला सरकार ने जानबूझ कर किया है। इससे मिलने वाले राजस्व का उपयोग गरीबों के लिए आवास, शौचालय बनाने और बिजली पहुंचाने पर खर्च किया जाता है। यह तर्क इसलिए लोगों के गले नहीं उतर रहा कि पहले ही सरकार ने अलग-अलग मदों में कई तरह के उपकर लगा रखे हैं।
नोटबंदी के बाद जीएसटी के घाव अभी भरे ही नहीं कि ऊपर से इस तरह के बयान सरकार की तानाशाही को दर्शाते हैं। देश में ऐसे कितने लोग हैं जो कारों एवं मोटरसाइकिलों पर चलते हैं? क्या गरीबों के नाम पर गरीबी का मजाक नहीं उडाया जा रहा है? क्या इसका असर किसानों, मजदूरों, गरीबों और मेहनतकशों पर नहीं पड़ेगा? आम जनता पर जबरन लादा जा रहा है इस तरह का भार। अतार्किक ढंग से गलत निर्णयों एवं नीतियों को जायज ठहराने की कोशिशों से सरकार की छवि खराब ही होती है। आखिर दाम बढ़ाने एवं करों के निर्धारण में कोई व्यावहारिक तर्क तो होना चाहिए।
यह विडम्बनापूर्ण बयान है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने से केवल आम वाहन चालकों पर असर नहीं पड़ता, असर उन पर भी पड़ता है, बजट उनका भी डांवाडोल होता है, परेशान वे भी होते हैं, लेकिन इसका ज्यादा असर आम जनजीवन पर पड़ता है क्योंकि इससे ढुलाई, सार्वजनिक परिवहन और फिर उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ती हैं। अभी जब विकास दर ने नीचे का रुख किया हुआ है और महंगाई ऊपर चढ़ रही है, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें उनसे पार पाने में मुश्किलें ही पैदा करेंगी। कोई भी सरकार स्पष्ट बहुमत में होने का अर्थ यह नहीं कि वह मनमानी करे। मंत्रीजी का यह तर्क कि गरीबों के कल्याण की योजनाओं के लिये यह बढ़ोत्तरी की गयी है, गले नहीं उतरती। क्योंकि पेट्रोल और डीजल से मिलने वाले राजस्व का कितना हिस्सा अब तक गरीबों के उत्थान के लिए उपयोग किया गया है, इसका कोई जवाब शायद उनके पास नहीं होगा।
नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, ”सबको साथ लेकर चलना, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, कथनी-करनी की समानता, लोगों का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता।“ लेकिन अल्फोंस के बयान एवं अतार्किक पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी ने इस परिभाषा पर पानी फेर दिया है। 2014 चुनावों से पहले बीजेपी का नारा था, ‘बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ सरकार बने तीन साल बीत चुके हैं लेकिन जो महंगाई कांग्रेस राज में भाजपा के लिए डायन थी वह अब देवी बन गई है। लगातार महंगाई बढ़ती ही जा रही है लेकिन पता नहीं किन विवशताओं के चलते विपक्ष भी सरकार के खिलाफ मुंह खोलने को तैयार नहीं है। कच्चे तेल की कीमत मनमोहन सरकार की तुलना में आधी हो गई है लेकिन मोदी सरकार में लगातार पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। मोदी सरकार की जनलुभावन योजनाओं में इस तेल-नीति ने पलीता लगा दिया है।
जब भाजपा सरकार बनी थी तो तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 6000 रु. प्रति बैरल थी, अब वह 3000 रु. बैरल हो गई है। इस हिसाब से आज भारत में पेट्रोल 30-35 रु. लीटर बिकना चाहिए लेकिन उसे 80 रु. लीटर कर दिया गया है। पेट्रोल पर सवा सौ प्रतिशत और डीजल पर पौने चार सौ प्रतिशत कर ठोक दिया गया है। यह सरासर लूटपाट नहीं है तो क्या है? यूपीए सरकार के समय जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें लगातार बढ़ने की वजह से पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने का फैसला किया गया था, तब भाजपा ने किस तरह संसद में हंगामा किया था। आज के अनेक मंत्री एवं भाजपा नेताओं ने किस तरह विरोध प्रदर्शन किया, फेसबुक पर उन तस्वीरों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। एक बार तो अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद परिसर में बैलगाड़ी पर बैठ कर जुलूस निकाला था।
अब जब कच्चे तेल की कीमतें काफी कम हैं, डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ा कर गरीबों के उत्थान का हवाला देना तर्कसंगत नहीं है। जबकि नेताओं और नौकरशाहों की फिजूलखर्ची और ठाठ-बाट में कोई कमी नहीं आई है। सरकार की नीतियों पर संदेह होने लगा है, इन स्थितियों में कैसे नया भारत निर्मित होगा? कैसे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा? देखने में आ रहा है कि सरकार अपनी नीतियों के माध्यम से उच्च वर्ग एवं मध्यम वर्ग पर कठोरता बरत रही है, लेकिन आखिरकार वंचित वर्ग इस कठोरता का शिकार हो रहा है। जनता को अमीर बना देंगे, हर हाथ को काम मिलेगा, सभी के लिए मकान होंगे, सड़कें, स्कूल-अस्पताल होंगे, बिजली और पानी होगा- सरकार की इन योजनाओं एवं नीतियों के जनता मीठे स्वप्न लेती रहती है। कोई भी सरकार हो, जनता को ऐसे ही सपने दिखाये जाते हैं, पर यह दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी सपना या लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ। नेतृत्व चाहे किसी क्षेत्र में हो- राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, वह सुविधानुसार अपनी ही परिभाषा गढ़ता रहा है। न नेता का चरित्र बन सका, न जनता का और न ही राष्ट्र का चरित्र बन सका। सभी भीड़ बनकर रह गए। लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनने दिया जा रहा है। अपने स्वार्थ हेतु, प्रतिष्ठा हेतु, आंकड़ों की ओट में नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहा और भीड़ आरती उतारती रही। लेकिन इस तरह की स्थितियों में कोई भी राष्ट्र कभी भी मजबूत नहीं बनता।
-ललित गर्ग
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लेख

राहुल गांधी ने सही कहा, ‘साहब भारत इसी तरह तो चलता है’

वैसे तो भारत में राहुल गाँधी जी के विचारों से बहुत कम लोग इत्तेफाक रखते हैं (यह बात 2014 के चुनावी नतीजों ने जाहिर कर दी थी) लेकिन अमेरिका में बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में जब उन्होंने वंशवाद पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में “भारत इसी तरह चलता है” कहा, तो सत्तारूढ़ भाजपा और कुछ खास लोगों ने भले ही उनके इस कथन का विरोध किया हो लेकिन देश के आम आदमी को शायद इसमें कुछ भी गलत नहीं लगा होगा। काबिले तारीफ बात यह है कि वंशवाद को स्वयं भारत के एक नामी राजनैतिक परिवार के व्यक्ति ने अन्तराष्ट्रीय मंच पर बड़ी साफगोई के साथ स्वीकार किया, क्या यह एक छोटी बात है?

यूँ तो हमारे देश में वंश या ‘घरानों’ का अस्तित्व शुरू से था लेकिन उसमें परिवारवाद से अधिक योग्यता को तरजीह दी जाती थी जैसे संगीत में ग्वालियर घराना, किराना घराना, खेलों में पटियाला घराना, होलकर घराना, रंजी घराना, अलवर घराना आदि लेकिन आज हमारा समाज इसका सबसे विकृत रूप देख रहा है।
अभी कुछ समय पहले उप्र के चुनावों में माननीय प्रधानमंत्री को भी अपनी पार्टी के नेताओं से अपील करनी पड़ी थी कि नेता अपने परिवार वालों के लिए टिकट न मांगें। लेकिन पूरे देश ने देखा कि उनकी इस अपील का उनकी अपनी ही पार्टी के नेताओं पर क्या असर हुआ। आखिर पूरे देश में ऐसा कौन सा राजनैतिक दल है जो अपनी पार्टी के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले एक साधारण से कार्यकर्ता को टिकट देने का जोखिम उठाता है?
क्या यह सही नहीं है कि आज भी एक साधारण या निम्न परिवार के किसी भी नौजवान के लिए किसी भी क्षेत्र के सिंडीकेट को तोड़ कर सफलता प्राप्त करना इस देश में आम बात नहीं है? क्योंकि अगर ये आम बात होती तो ऐसे ही किसी युवक या युवती की सफलता अखबारों की हेडलाडन क्यों बन जाती हैं कि एक फल बेचने वाले के बेटे या बेटी ने फलाँ मुकाम हासिल किया? क्या वाकई में एक आम प्रतिभा के लिए और किसी ‘प्रतिभा’ की औलाद के लिए, हमारे समाज में समान अवसर मौजूद हैं?
क्या कपूर खानदान के रणबीर कपूर और बिना गॉफादर के रणवीर सिंह या नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे किसी नोन फिल्मी बैकग्राउंड वाले लड़के या लड़की को फिल्मी दुनिया में समान अवसर प्राप्त हैं?
क्या अभिषेक बच्चन को भी अमिताभ बच्चन जितना संघर्ष अपनी पहली फिल्म के लिए करना पड़ा था? भले ही कल भारत वो देश था जहाँ राजा भरत ने अपने नौ पुत्रों के होते हुए भी अपना उत्तराधिकारी अपनी प्रजा के एक सामान्य युवक भूमन्यू को बनाया क्योंकि उन्हें अपने बाद अपने देश और प्रजा की चिंता अपने वंश से अधिक थी। लेकिन आज का कटु सत्य तो यही है कि हमारे समाज में आज हर क्षेत्र में आपकी तरक्की आपकी प्रतिभा से नहीं आपकी पहचान से होती है। आपकी योग्यता और बड़ी बड़ी डिग्रीयाँ बड़े बड़े नामों से हार जाती हैं।
आगे बढ़ने के लिए ‘बस नाम ही काफी है’। शेकस्पीयर ने बरसों पहले कहा था कि “नाम में क्या रखा है” लेकिन सच्चाई यह है कि नाम अगर भारत देश में गाँधी हो, मध्य प्रदेश या राजस्थान में सिंधिया हो, पंजाब में बादल हो, यूपी और बिहार में यादव हो, महाराष्ट्र में ठाकरे हो, कश्मीर में अब्दुल्ला या मुफ्ती मुहम्मद हो, हरियाणा में चौटाला हो (लिस्ट बहुत लम्बी है) तो इंसान के नसीब ही बदल जाते हैं।
नाम की बात जीवित इंसानों तक ही सीमित हो ऐसा भी नहीं है। अभी हाल ही में अन्नाद्रमुक ने अपनी ताजा बैठक में दिवंगत जयललिता को पार्टी का स्थायी महासचिव बनाने की घोषणा की। यानी कि वे मृत्यु के उपरांत भी पार्टी का नेतृत्व करेंगी! संभवतः दुनिया में मरणोपरांत भी किसी पार्टी का नेतृत्व करने की इस प्रकार की पहली घटना का साक्षी बनने वाला भारत पहला देश है और जयललिता पहली नेत्री। कदाचित यह वंशवाद केवल राजनीति में ही हो ऐसा भी नहीं है। कला, संगीत, सिनेमा, खेल, न्यायपालिका, व्यापार, डॉक्टरों हर जगह इसका अस्तित्व है। सिनेमा में व्याप्त वंशवाद के विषय में कंगना बोल ही चुकी हैं।
देश में चलने वाले सभी प्राइवेट अस्पतालों को चलाने वाले डॉक्टरों के बच्चे आगे चलकर डॉक्टर ही बनते हैं। क्या आज डॉक्टरी सेवा कार्य से अधिक एक पारिवारिक पेशा नहीं बन गया है? क्या इन अस्पतालों को चलाने वाले डॉक्टर अस्पताल की विरासत अपने यहाँ काम करने वाले किसी काबिल डॉक्टर को देते हैं ? जी नहीं वो काबिल डॉक्टरों को अपने अस्पताल में नौकरी पर रखते हैं और अपनी नाकाबिल संतानों को डॉक्टर की डिग्री व्यापमं से दिलवा देते हैं।
आज जितने भी प्राइवेट स्कूल हैं वो शिक्षा देने के माध्यम से अधिक क्या एक खानदानी पेशा नहीं बन गए हैं? इनकी विरासत मालिक द्वारा क्या अपने स्कूल के सबसे योग्य टीचर को दी जाती है या फिर अपनी औलाद को? क्या न्यायपालिका में कोलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति परिवारवाद और भाई भतीजावाद के आधार पर नहीं होती? और जब वंशवाद और परिवारवाद के इस तिलिस्म को तोड़ कर एक साधारण से परिवार का व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट का जज बनता है या फिर कोई अब्दुल कलाम राष्ट्रपति बनता है या कोई चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बनता है या फिर स्मृति ईरानी मानव संसाधन मंत्री बनी थीं या फिर निर्मला सीतारमन रक्षा मंत्री बनती हैं तो वो हमारे न्यूज़ चैनलों की “ब्रेकिंग न्यूज़” बन जाती है, यही सच्चाई है।
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लेख

राहुल गांधी को राजनीति से अपना पिंड छुड़ा लेना चाहिए

अमेरिका की कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी में छात्रों के सामने बोलते हुए राहुल गांधी ने अपने आप को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताया। उन्हें राजवंशी या खानदानी नेता बताने की मजाक उड़ाई और नरेंद्र मोदी की नीतियों पर उन्होंने खुलकर प्रहार किया। उनके इस भाषण को देश के अखबारों ने मुखपृष्ठ पर छापा, वरना अब उन्हें एक-दो कालम से कम ही जगह अंदर के पृष्ठों पर ही मिलती है। इस भाषण की खूबी यह थी कि उन्होंने पहली बार स्वीकार किया कि नरेंद्र मोदी उनसे अच्छे वक्ता हैं या यों कहें कि वे अपनी गलत बात भी लोगों के गले उतारने में सक्षम हैं।

राहुल ने पते की एक बात और कही। खानदानी नेताओं का जिक्र करते हुए उन्होंने अखिलेश यादव, स्तालिन, अभिषेक बच्चन आदि के नाम भी लिये। नाम तो कई हैं लेकिन उन्हें जानना और फिर याद रखना राहुल के बस की बात नहीं है। इन नामों का जिक्र करके राहुल यह तर्क देना चाह रहे थे कि उनको अकेले क्यों कठघरे में खड़ा किया जाता है ? वे सही हैं। पिछले दिनों मैं इंदौर में था। वहां कुछ मित्रों ने मुझे यह दोहा सुनाया:
राहुल हमारे नेता हैं, अपने पुरखों की वजह से।
मोदी हमारे नेता हैं, अपने मूरखों की वजह से।।
राहुलजी ने अपने भाषण में इस कथन पर मुहर लगा दी है लेकिन साथ ही साथ उन्होंने यह भी कह दिया है कि किसी व्यक्ति की असली पहचान उसके खानदान से नहीं, उसके गुणों से होती है। यही सच्ची कसौटी है। इस कसौटी पर मोदी कितने खरे और राहुल कितने खोटे उतरे हैं, यह चुनाव-परिणामों ने बता दिया है। राहुल गांधी ने कश्मीर की स्थिति पर भी हास्यास्पद बयान झाड़ दिया है। उन्हें शायद पता नहीं कि आजकल गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने वहां कितनी सराहनीय पहल की हैं। राहुल गांधी प्रधानमंत्री का सपना देखने की बजाय विवाह करें, सदगृहस्थ बनें, कोई धंधा या नौकरी करें तो वे कांग्रेस का और अपने खानदान का ज्यादा भला करेंगे। यह जरूरी है कि वे राजनीति से अपना पिण्ड छुड़ाएं।
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