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राहुल गांधी को अब हल्के में लेने की भूल नहीं करे भाजपा

पिछले दिनों अमेरिका की बर्कले यूनिवर्सिटी में राहुल गांधी के भाषण का उनके विरोधी जो भी मतलब निकालें लेकिन जिस अंदाज में उन्होंने छात्रों के सामने अपनी बात रखी उससे ये साफ हो गया कि अब कोई उन्हें हल्के में लेने की भूल ना करे खासकर बीजेपी। ट्विटर पर भले ही कुछ लोगों ने राहुल के भाषण का मजाक उड़ाया हो लेकिन राहुल ने जिस तरह हर मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी उससे साफ हो गया कि अब उन्होंने कांग्रेस को नई दिशा देने के लिए कमर कस ली है।

बतौर पत्रकार मैंने राहुल के भाषण को करीब से देखा और सुना है…कई मौकों पर मुझे खुद लगा कि वो अपनी बात सही तरीके से नहीं रख पा रहे…लेकिन इस बार अमेरिका में वो जिस आत्मविश्वास के साथ बोल रहे थे उसे देखकर मैं भी हैरान रह गया। बीजेपी ने राहुल के भाषण को भले ही विदेशी धरती पर भारत का अपमान बता दिया हो लेकिन देश की जनता सब समझती है।
जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और लंदन में जाकर देश की दुर्दशा के लिए कांग्रेस के 60 साल के शासन को जिम्मेदार ठहरा रहे थे तो बीजेपी को कोई दोष नजर नहीं आया। सवाल उठता है कि आखिर राहुल ने भारत के बारे में ऐसा क्या कह दिया जिसे अमेरिका में बैठे लोग नहीं जानते? चलिए इस बहस को बीच में छोड़कर हम राहुल के भाषण की बात करते हैं।
राहुल ने अपने भाषण में मॉब लिंचिंग, बेरोजगारी और नोटबंदी को लेकर मोदी सरकार को जिस अंदाज में कठघरे में खड़ा किया उससे बीजेपी की बौखलाहट सामने आ गई। लेकिन मुझे राहुल के भाषण में सबसे अच्छी बात तब लगी जब उन्होंने अपनी पार्टी की हार को लेकर बात की। राहुल ने माना कि कांग्रेस अहंकारी हो गई थी, लोगों से संवाद बंद हो गया था जिसके कारण जनता ने हमसे दूरी बना ली।
राहुल जब स्टेज से अमेरिका में छात्रों के सवालों का जवाब दे रहे थे तो उनमें किसी तरह की झिझक नहीं देखी वो पूरी बेबाकी से सवालों का जवाब देते रहे। राहुल ने यहां तक कहा कि वो 2019 में लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने को तैयार हैं।
राहुल ने अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ भी की। राहुल ने प्रधानमंत्री को एक अच्छा वक्ता बताया साथ में ये भी कहा कि वो अच्छे कम्युनिकेटर हैं। और तो और वो यहां तक बोल गए कि मोदी उनसे भी अच्छे वक्ता हैं। कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रहे बीजेपी के लोगों को अब राहुल को गंभीरता से लेना होगा…राहुल लोकप्रियता में भले ही मोदी के आगे कहीं ना टिकें लेकिन जिन मुद्दों को वो उठा रहे हैं उससे उन्हें जनता की सहानुभूति तो मिल ही रही है।
पहले गुजरात राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल की जीत और फिर दिल्ली छात्रसंघ चुनाव में एनएसयूआई की धमाकेदार वापसी ने मुरझाई कांग्रेस में जान फूंक दी है। लोकतंत्र में विपक्ष का मजबूत होना अच्छा माना जाता है और अगर राहुल कांग्रेस को फिर से पटरी में लाने पर कामयाब हो जाते हैं तो ये उनकी बड़ी जीत होगी।
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कौन हैं रोहिंग्या मुसलमान? क्यों बन गये हैं भारत के लिए सिरदर्द?

रोहिंग्या मुसलमान बहुत गरीब हैं, वक्त के मारे हुए हैं, भूख, कुपोषण और रोगों के शिकार हैं, दाने-दाने को मोहताज हैं। इनकी व्यथा को जितना अनुभव किया जाए, उतना कम है। ये दुनिया के सबसे सताए हुए लोग हैं, इस बात को संयुक्त राष्ट्र संघ भी कह चुका है किंतु बर्मा, बांग्लादेश, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड तथा भारत कोई भी देश इन लोगों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। आखिर क्यों ? मानवाधिकार वादी बुद्धिजीवी चाहे कितना ही प्रलाप क्यों न कर लें किंतु वास्तविकता यह है कि रोहिंग्या मुसलमान अपनी बुरी स्थिति के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं। ये लोग मूलतः बांग्लादेश के रहने वाले हैं तथा जिस तरह करोड़ों बांग्लादेशी भारत में घुस कर रह रहे हैं, उसी प्रकार ये भी रोजी-रोटी की तलाश में बांग्लादेश छोड़कर बर्मा में घुस गए। 1962 से 2011 तक बर्मा में सैनिक शासन रहा। इस अवधि में रोहिंग्या मुसलमान चुपचाप बैठे रहे किंतु जैसे ही वहां लोकतंत्र आया, रोहिंग्या मुसलमान बदमाशी पर उतर आए।

जून 2012 में बर्मा के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों ने एक बौद्ध युवती से बलात्कार किया। जब स्थानीय बौद्धों ने इस बलात्कार का विरोध किया तो रोहिंग्या मुसलमानों ने संगठित होकर बौद्धों पर हमला बोल दिया। इसके विरोध में बौद्धों ने भी संगठित होकर रोहिंग्या मुसलमानों पर हमला कर दिया। इस संघर्ष में लगभग 200 लोग मारे गए जिनमें रोहिंग्या मुसलमानों की संख्या अधिक थी। तब से दोनों समुदायों के बीच हिंसा का जो क्रम आरम्भ हुआ, वह आज तक नहीं थमा। रोहिंग्या मुसलमानों ने नावों में बैठकर थाइलैण्ड की ओर पलायन किया किंतु थाइलैण्ड ने इन नावों को अपने देश के तटों पर नहीं रुकने दिया। इसके बाद रोहिंग्या मुसलमानों की नावें इण्डोनेशिया की ओर गईं और वहाँ की सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों को शरण दी।
रोहिंग्या मुसलमानों ने बर्मा में रोहिंग्या रक्षा सेना का निर्माण करके अक्टूबर 2016 में बर्मा के 9 पुलिस वालों की हत्या कर दी तथा कई पुलिस चौकियों पर हमले किए। इसके बाद से बर्मा की पुलिस रोहिंग्या मुसलमानों को बेरहमी से मारने लगी और उनके घर जलाने लगी इस कारण बर्मा से रोहिंग्या मुसलमानों के पलायन का नया सिलसिला आरम्भ हुआ। वर्तमान में लगभग 20 हजार रोहिंग्या मुसलमान बर्मा तथा बांग्लादेश की सीमा पर स्थित नाफ नदी के तट पर डेरा डाले हुए हैं। वे भूख से तड़प रहे हैं तथा उन्हें जलीय क्षेत्रों में रह रहे सांप भी बड़ी संख्या में काट रहे हैं। उनमें से अधिकतर बीमार हैं तथा तेजी से मौत के मुंह में जा रहे हैं।
बहुत से रोहिंग्या मुसलमानों ने भागकर बांग्लादेश में शरण ली किंतु भुखमरी तथा जनसंख्या विस्फोट से संत्रस्त बांग्लादेश रोहिंग्या मुसलमानों का भार उठाने की स्थिति में नहीं है, इसलिए इन्हें वहाँ भोजन, पानी रोजगार कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ और हजारों रोहिंग्या मुसलमानों ने भारत की राह पकड़ी। भारत का पूर्वी क्षेत्र पहले से ही बांग्लादेश से आए मुस्लिम शरणार्थियों से भरा हुआ है, अतः भारत नई मुस्लिम शरणार्थी प्रजा को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है।
तुर्की के राष्ट्रपति रचैब तैयब बांग्लादेश जाकर इस समस्या का समाधान करना चाहते हैं तथा वे अंतर्राष्ट्रीय मंचों के माध्यम से रोहिंग्या मुसलमानों को बर्मा में ही रहने देने के लिए बर्मा की स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची पर दबाव बनाना चाहते हैं। इस बीच अफगानिस्तान की नोबल पुरस्कार विजेता मलाला ने ट्वीट जारी कर सू ची की निंदा करते हुए कहा है कि मैं बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों के उत्पीड़न के समाचारों से दुखी हूँ। सू ची की कठिनाई यह है कि यदि वह रोहिंग्या मुसलमानों का कठोरता से दमन जारी नहीं रखती हैं तो बर्मा में 50 सालों के संघर्ष के बाद आया लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा तथा बर्मा की सेना, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को कमजोर घोषित करके पुनः सत्ता पर अधिकार जमा लेगी।
इसी बीच भारत में भी कम्युनिस्ट विचारधारा तथा मानवाधिकारों की पैरवी करने वाले संगठनों से जुड़े बुद्धिजीवियों के धड़ों ने भारत सरकार पर दबाव बनाना आरम्भ कर दिया है कि रोहिंग्या मुसलमानों को भारत स्वीकार करे। प्रश्न ये है कि इस बात की क्या गारण्टी है कि रोहिंग्या मुसलमान आगे चलकर भारत के लिए सिरदर्द सिद्ध नहीं होंगे! जबकि आगे चलकर देखने की जरूरत नहीं है, वे आज ही भारत के लिए सिरदर्द बन चुके हैं।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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मोदी पर जनता का भरोसा का कायम, पर इसके बने रहने की गारंटी नहीं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में परिवर्तन कर देश की जनता को यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे राजनीतिक संस्कृति में परिवर्तन के अपने वायदे पर कायम हैं। वे यथास्थिति को बदलना और निराशा के बादलों को छांटना चाहते हैं। उन्हें परिणाम पसंद है और इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व से काम न चले तो वे नौकरशाहों को भी अपनी टीम में शामिल कर सकते हैं। भारतीय राजनीति के इस विकट समय में उनके प्रयोग कितने लाभकारी होंगे यह तो वक्त बताएगा, किंतु आम जन उन्हें आज भी भरोसे के साथ देख रहा है। यही नरेंद्र मोदी की शक्ति है कि लोगों का भरोसा उन पर कायम है।

यह भी एक कड़वा सच है कि तीन साल बीत गए हैं और सरकार के पास दो साल का समय ही शेष है। साथ ही यह सुविधा भी है कि विपक्ष आज भी मुद्दों के आधार पर कोई नया विकल्प देने के बजाए मोदी की आलोचना को ही सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहा है। भाजपा ने जिस तरह से अपना सामाजिक और भौगोलिक विस्तार किया है, कांग्रेस उसी तेजी से अपनी जमीन छोड़ रही है। तमाम क्षेत्रीय दल भाजपा के छाते के नीचे ही अपना भविष्य सुरक्षित पा रहे हैं। भाजपा के भीतर-बाहर भी नरेंद्र मोदी को कोई चुनौती नहीं है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति के तहत भाजपा के पास एक-एक कर राज्यों की सरकारें आती जा रही हैं। यह दृश्य बताता है कि हाल-फिलहाल भाजपा के विजय रथ को रोकने वाला कोई नहीं है।
संकट यह है कि कांग्रेस अपनी आंतरिक कलह से निकलने को तैयार नहीं हैं। केंद्र सरकार की विफलताओं पर बात करते हुए कांग्रेस का आत्मविश्वास गायब सा दिखता है। विपक्ष के रूप में कांग्रेस के नेताओं की भूमिका को सही नहीं ठहराया जा सकता। हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस नेतृत्वहीनता की स्थिति में है। अनिर्णय की शिकार कांग्रेस एक गहरी नेतृत्वहीनता का शिकार दिखती है। इसलिए विपक्ष को जिस तरह सत्ता पक्ष के साथ संवाद करना और घेरना चाहिए उसका अभाव दिखता है।
अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार सिर्फ धारणाओं का लाभ उठाकर कांग्रेस से अधिक नंबर प्राप्त कर रही है। हम देखें तो देश के तमाम मोर्चों पर सरकार की विफलता दिखती है, किंतु कांग्रेस ने जो भरोसा तोड़ा उसके कारण हमें भाजपा ही विकल्प दिखती है। भाजपा ने इस दौर की राजनीति में संघ परिवार की संयुक्त शक्ति के साथ जैसा प्रदर्शन किया है वह भारतीय राजनीति के इतिहास में अभूतपूर्व है। अमित शाह के नेतृत्व और सतत सक्रियता ने भाजपा की सुस्त सेना को भी चाक-चौबंद कर दिया है। कांग्रेस में इसका घोर अभाव दिखता है। गांधी परिवार से जुड़े नेता सत्ता जाने के बाद आज भी जमीन पर नहीं उतरे हैं। उनकी राज करने की आकांक्षा तो है किंतु समाज से जुड़ने की तैयारी नहीं दिखती। ऐसे में कांग्रेस गहरे संकटों से दो-चार है। भाजपा जहां विचारधारा को लेकर धारदार तरीके से आगे बढ़ रही है और उसने अपने हिंदूवादी विचारों को लेकर रहा-सहा संकोच भी त्याग दिया है, वहीं कांग्रेस अपनी विचारधारा की दिशा क्या हो? यह तय नहीं कर पा रही है। पं. नेहरू ने अपने समय में साम्यवादियों के चरित्र को समझ कर उनसे दूरी बना ली, किंतु राहुल जी आज भी ‘अल्ट्रा लेफ्ट’ ताकतों के साथ खड़े होने में संकोच नहीं करते। एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट कांग्रेस के वास्तविक संकटों की ओर इशारा करती है। ऐसे में नरेंद्र मोदी के अश्वमेघ के अश्व को पकड़ने वाला कोई वीर बालक विपक्ष में नहीं दिखता। बिहार की नितीश कुमार परिघटना ने विपक्षी एकता को जो मनोवैज्ञानिक चोट पहुंचाई है, उससे विपक्ष अभी उबर नहीं पाएगा। विपक्ष के नेता अपने आग्रहों से निकलने को तैयार नहीं हैं, ना ही उनमें सामूहिक नेतृत्व को लेकर कोई सोच दिखती है।
इस दौर में नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों को यह सोचना होगा कि जबकि देश में रचनात्मक विपक्ष नहीं है, तब उनकी जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता से जो वादे किए, उस दिशा में सरकार कितना आगे बढ़ी है? खासकर रोजगार सृजन और भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष के सवाल पर। महंगाई के सवाल पर। लोगों की जिंदगी में कितनी राहतें और कितनी कठिनाईयां आई हैं। इसका हिसाब भी उन्हें देना होगा। राजनीति के मैदान में मिलती सफलताओं के मायने कई बार विकल्पहीनता और नेतृत्वहीनता भी होती है। कई बार मजबूत सांगठनिक आधार भी आपके काम आता है। इसका मतलब यह नहीं कि सब सुखी और चैन से हैं और विकास की गंगा बह रही है। राजनीति के मैदान से निकले अर्थों से जनता के वास्तविक जीवन का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री अनथक परिश्रम कर रहे हैं। अमित शाह दल के विस्तार के लिए अप्रतिम भूमिका निभा रहे हैं। किंतु हमें यह भी विचार करना होगा कि आप सबकी इस हाड़ तोड़ मेहनत से क्या देश के आम आदमी का भाग्य बदल रहा है? क्या मजदूर, किसान, युवा-छात्र और गृहणियां, व्यापारी सुख का अनुभव कर रहे हैं?
देश के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव के बाद जनता के भाग्य में भी परिर्वतन होता दिखना चाहिए। आपने अनेक कोशिशें की हैं, किंतु क्या उनके परिणाम जमीन पर दिख रहे हैं, इसका विचार करना होगा। देश के कुछ शहरों की चमकीली प्रगति इस महादेश के सवालों का उत्तर नहीं है। हमें उजड़ते गांवों, हर साल बाढ़ से उजड़ते परिवारों, आत्महत्या कर रहे किसानों के बारे में सोचना होगा। उस नौजवान का विचार भी करना होगा जो एक रोजगार के इंतजार में किशोर से युवा और युवा से सीधे बूढ़ा हो जाएगा। इलाज के अभाव में मरते हुए बच्चे एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। अपने बचपन को अगर हमने इतना असुरक्षित भविष्य दिया है तो आगे का क्या। ऐसे तमाम सवाल हमारे समाज और सरकारों के सामने हैं। राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र का बदलाव भर नहीं, उस संस्कृति में बदलाव के लिए 2014 में लोगों ने मोदी पर भरोसा जताया था। वह भरोसा कायम है…पर दरकेगा नहीं ऐसा नहीं कह सकते। सरकार के नए सिपहसालारों को ज्यादा तेजी से परिणाम देने वाली योजनाओं पर काम करने की जरूरत है। अन्यथा एक अवसर यूं ही केंद्र सरकार के हाथ से फिसलता जा रहा है। इसमें नुकसान सिर्फ यह है कि आप चुनाव तो जीत जाएंगे पर भरोसा खो बैठेंगे।
संजय द्विवेदी
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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भिंडरवाले बनने की राह पर चल रहा था गुरमीत राम रहीम

बाबा गुरमीत राम रहीम भिंडरवाले बनने की राह में था। वह भी यह सुनिश्चित करता था कि कोई उसे चुनौती नहीं दे। लेकिन वह एक कागजी शेर साबित हुआ। जब सीबीआई अदालत के न्यायाधीश जगदीप सिंह ने फैसला सुनाया तो बाबा खुली अदालत में रो पड़ा और न्यायाधीश से कड़ी सजा नहीं देने की भीख मांगने लगा। रिपोर्ट के मुताबिक बाबा के इस तरह औंधे हो जाने से उनके अनुयायी भी हैरान रह गए।

लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि बाबा को मानने वाले बहुत बड़ी सख्ंया में हैं। यह परेशान करने वाली बात नहीं थी कि उसे दो साध्वियों, जो डेरा में उसकी अनुयायी थीं, के बलात्कार के लिए सजा दी जा रही थी। इससे यही पता चलता है कि अनुयायी कितने अनजान और भोले−भाले हो सकते हैं कि वे बाबा की ओर नेतृत्व तथा निर्देश के लिए अंधा हो कर देखते थे? भिंडरवाले भी अनुयायियों की विशाल संख्या के कारण इतना शक्तिशाली हो गया था कि सरकार ने उससे अपनी नजर हटा ली थी जो कुछ वह करता था।
अब जब फैसला आ गया है और बलात्कार के मामले में उसकी सजा की मियाद की घोषणा हो चुकी है, इसकी संभावना है कि डेरा के कई गुप्त रहस्य बाहर आएंगे। सीबीआई कोर्ट पहले से ही बाबा के खिलाफ हत्या के अभियोगों की सुनवाई कर रहा है और जल्द ही उस पर फैसला देगा। डेरा के पुरूष अनुयायियों के बधियाकरण के दूसरे मामले में भी चल रहे हैं। यह सब बाबा की मानसिकता और अधिकारियों की मिलीभगत के संकेत देता है।
भिंडरवाले और राम रहीम में कुछ समानताएं हैं। अगर पहला कांग्रेस पार्टी का पैदा किया हुआ था, दूसरे को हरियाणा में सारी पार्टियों, जिसमें भारतीय जनता पार्टी भी शामिल है, का समर्थन प्राप्त था। भिंडरवाले की तरह बाबा उग्रवादी नहीं होगा, लेकिन उसके उद्देश्य एकदम स्पष्ट थे क्योंकि उसने अपने हितों के लिए राजनीतिक कृपा का इस्तेमाल किया। अन्यथा, वह इतनी संपत्ति जमा नहीं कर पाता और इंग्लैंड तथा अमेरिका समेत दुनिया भर में 132 डेरों का निर्माण नहीं कर पाता।
सन् 1977 में अकाली जनता पार्टी की सरकार आने के बाद पंजाब में अकाली अपनी स्थिति मजबूत कर रहे थे और कांग्रेस का आधार उखाड़ रहे थे। उसी समय संजय गांधी और जैल सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने अकालियों से मुकाबला करने के लिए भिंडरवाले को चुना और उसका समर्थन किया। जब तक इंदिरा गांधी ने यह महसूस किया कि वह भस्मासुर बन चुका है और उसके जाने का वक्त आ गया है, वह इतना शक्तिशाली हो चुका था कि उसे अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर के भीतर अकाल तख्त से निकालने का काम सरासर भारतीय सेना को करना पड़ा।
टैंक का इस्तेमाल करने के पहले सेना ने श्रीमती गांधी की अनुमति चाही और मध्य−रात्रि में उन्हें नींद से जगाया। श्रीमती गांधी जून 1984 में गर्भगहृ में सेना भेजकर एक भारी भूल कर गईं। भिंडरवाले को मार दिया गया, लेकिन ब्लूस्टार आपरेशन के खिलाफ गुस्से ने चार महीने बाद उनकी जान ले ली।
इसी के समान, बाबा गुरमीत राम रहीम को भाजपा के नेताओं द्वारा प्रोत्साहित किया गया क्योंकि यह पार्टी की वोट बैंक की राजनीति के लिए सुविधाजनक था। बाबा ने 2014 के लोकसभा चुनावों और उसी साल हरियाणा विधान सभा चुनावों, दोनों में भाजपा का समर्थन किया। उसने पंजाब में कैप्टन अमरिदंर सिंह के खिलाफ भगवा पार्टी को समर्थन दिया, लेकिन यह जीत के लिए काफी नहीं था। यह अफवाह भी थी कि शपथ−ग्रहण के बाद मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को छोड़कर उनकी पूरी कैबिनेट सिर झुकाने के लिए बाबा के सिरसा स्थित डेरा सच्चा सौदा में उपस्थित हुई।
लेकिन ऐसा नहीं है कि बाकी पार्टियों की अपराध में भागीदारी नहीं थी। सन् 2009 में डेरा−प्रमुख ने कांग्रेस को समर्थन दिया था जो 2007 में यूपीए सरकार की ओर से बाबा को दी गई जेड प्लस की सुरक्षा का वापसी−उपहार था। यह साफ था कि बाबा इतना शक्तिशाली हो गया था कि उसकी निजी सेना की ओर से चुनौती मिलने पर राज्य उसके सामने एकदम कमजोर हो गया। हरियाणा सरकार ने फैसला आने के पहले धारा 144 लगाने में जानबूझकर घपला किया, हत्यारों को निमंत्रण दे दिया, उन्हें कब्जा करने के लिए कहा।
जाहिर है कि फैसले के पहले ही खुफिया रिपोर्ट थी। और दोनों राज्यों पंजाब और हरियाणा तथा चंडीगढ़ प्रशासन को संकट की चेतावनी दी गई थी क्योंकि डेरा समर्थक पंचकुला में जमा हो रहे थे और बाबा के खिलाफ फैसला आने की स्थिति में ताकत की आजमाइश करने की तैयारी कर रहे थे। हालांकि पंजाब ने अपने हितों की सुरक्षा के सारे जरूरी उपाय किए। लेकिन इस आश्वासन के बावजूद कि वह किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए अच्छी तरह तैयार है, समर्थकों को सार्वजनिक संपत्ति नष्ट करने और लोगों की हत्या करने से रोकने में हरियाणा सरकार विफल रही। पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के आदेश के बाद ही हरियाणा सरकार की नींद टूटी और उसने आगे नुकसान से बचने के लिए तैयारी की।
जब इतिहास अपने को दोहराता है तो असलियत में यह कोई सबक नहीं लेने की व्यवस्था का मजाक उड़ाता है। तीस लोगों की जान गंवाने और सार्वजनिक संपत्ति की जिम्मेदारी कौन लेगा? लेकिन भाजपा नेतृत्व ने मुख्यमंत्री खट्टर को छूने के लिए कुछ नहीं किया है क्योंकि उन्हें आरएसएस का समर्थन मिला हुआ है। लेकिन भारत में समस्या यह है कि बाबाओं पर अंकुश कैसे लगाया जाए? हो सकता है वे वोट−बैंक मुहैया कराते हों लेकिन वे शासन को भरपाई नहीं होने वाला नुकसान पहुंचाते हैं।
लोकतंत्र का तकाजा है कि मतदाता और पार्टी में सीधा सपंर्क हो। बीच में बाबा आ जाते हैं और समानांतर सत्ता बन जाते हैं। जब मतदान पेटी को किसी और ताकत से रोक लिया जाता है, लोकतंत्र कमजोर हो जाता है। इसलिए लोगों के मत से चलने वाली व्यवस्था में बाबा के लिए कोई स्थान नहीं है। वे मंदिरों में महंत की तरह हैं। उन्हें दखल देने की जितनी इजाजत दी जाएगी, स्वतंत्र अभिव्यक्ति उतनी ही कम होगी।
धर्म एक निजी मामला है। आसाराम, नित्यानंदों, राम रहीमों से तब तक कोई समस्या नहीं है जब तक वे आध्यात्मिक विचारों पर चलते हैं और उसका उपदेश देते हैं। समस्या तब खड़ी होती है जब वे धोखाधड़ी और अवैध गतिविधियों में शामिल हेाते हैं और बलात्कार और हत्या तक चले जाते हैं। इन सारी चीजों को बुरी शक्ल मिल जाती है जब उन्हें अपने फायदे के लिए राजनीतिक पार्टियों का समर्थन मिल जाता है।
– कुलदीप नैय्यर
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नेतृत्व विहीन विपक्ष को 2019 के लिए नेता की तलाश

हिन्दुस्तान में आज विपक्ष हताश है, देश में सन् 1984 में चली स्व. इंदिरा गांधी की सहानुभूति लहर में जब विपक्ष का सफाया हो गया था और भारतीय जनता पार्टी को मात्र 2 सीटें प्राप्त हुई थीं, तब भी विपक्ष इतना हताश नहीं हुआ था जितना आज है, जब विपक्ष परास्त हुआ था आज जैसा हताश नहीं। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को परास्त करने के लिए आज हताश विपक्ष भले ही एकजुट हो, मगर उसके पास नेतृत्व नहीं है जिसे मोदी या भाजपा के सामने उतारा जा सके। यानी विपक्ष अपने दूल्हे की तलाश में है, सेहरा तैयार है, घोड़ी बैंडबाजा बाराती तैयार हैं पर दूल्हा ही नहीं मिल रहा।

आज देश की परिस्थितियां बदली हैं, जो परिस्थितियां कभी कांग्रेस के पक्ष में थीं, आज भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। देश के 18 राज्यों में राजग की सरकार है। देश के उन राज्यों में जहां भारतीय जनता पार्टी का कोई नाम लेवा नहीं था वहां भी आज इसी पार्टी का राज है। ख़ास कर दक्षिण भारत और नार्थ ईस्ट में। कुल जमा हालत ये है कि आज भारतीय जनता पार्टी ने अपने आप को देश का उत्तराधिकारी बना दिया है और जिस हालत में विपक्ष है उससे तो आगामी सालों में भी उसे (भाजपा) दरकिनार किया जा सकेगा ऐसा लगता नहीं।
देश में सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने के बाद जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्ष को एकजुट होना पड़ा था उस समय सभी दल इंदिरा गांधी के खिलाफ थे। जयप्रकाश नारायण एक विचारधारा थे, राजनेता नहीं थे, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्र शेखर जैसे दिग्गजों के साथ मार्क्सवादी, सोशलिस्ट, जनसंघ सहित अनेक दल उनके साथ चले और 1977 में कांग्रेस का साम्राज्य ढहा था।
आज देश में विपक्ष के पास खासकर कांग्रेस या किसी भी दल के पास कोई नेतृत्व नहीं है, जिसकी अगुवाई में बाकी राजनेता या दल एकत्र हो सकें। भाजपा और संघ परिवार पर वार करने लिए कोई  धारधार हथियार इनके पास है ही नहीं! लेकिन सब ये जानते भी हैं कि भाजपा को अब हरा पाना इनके बूते, तब तक नहीं है जब तक की ये एक न हो जायें क्योंकि, अब इन दलों के सामने अपने अस्तित्व का खतरा भी है। गौर करने की बात ये है आखिर विपक्ष में ऐसा कौन है जो इतना सक्षम या समर्थ है जो बाकी नेताओं को एकजुट कर सके। यानी विपक्ष की बारात तो तैयार है और दूल्हा अभी ढूंढा जा रहा है। हिन्दी राज्यों से शुरुआत करें तो बात उत्तर प्रदेश की। उत्तर प्रदेश में हालिया विधानसभा चुनाव से पहले युवा नेतृत्व के नाम पर अखिलेश यादव में वो दूल्हा तलाशने की कोशिश  विपक्ष द्वारा की गयी थी। कांग्रेस से गठजोड़ कर ये जताया भी गया कि अब युवाओं का दौर आयेगा। मगर बिहार की तरह यहाँ भाजपा को हराया नहीं जा सका और अखिलेश दरकिनार हो गए!  मायावती सबको स्वीकार नही होंगी और वे उत्तर प्रदेश से बाहर स्वीकार्य नहीं हैं।
बिहार में नितीश कुमार के भाजपा से हाथ मिला लेने के बाद नीतीश के नेतृत्व की सम्भावना जो बन रही थी वह धाराशाई हो गयी, यानी जिसे दूल्हा बनाने की बात की जा रही थी वही जा कर दुल्हन से राखी बंधवा आया। लालू प्रसाद खुद आरोप से घिरे हैं और वे देश के पहले ऐसे राजनेता होंगे जिन्हें अदालत ने चुनाव लड़ने से रोका है, दागी नेता के नाम पर और अपने राज्य से बाहर न निकल पाना उन्हें भी इस दौड़ से बाहर कर देता है। उनके युवा बेटे तेजस्वी का आभा मंडल ऐसा नहीं है कि सेहरा उनके माथे बंधा जा सके। उडीसा में नवीन पटनायक तटस्थ रहे हैं, कम्युनिस्टों में सीताराम येचुरी को खुद उनकी पार्टी ने तीसरी बार राज्य सभा नहीं भेजा। सोमनाथ चटर्जी अब राजनीति से ही बहर हैं, ममता बनर्जी अपने बंगाल से बाहर नहीं आ पा रहीं, सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी कांग्रेस खुद नेतृत्व विहीन है, जो नेता बचे हैं वो सोनिया गाँधी की छाया से बाहर नहीं आ रहे हैं, राहुल गांधी अपने आप को पार्टी का ही उत्तराधिकारी नहीं बना पाए और विपक्षी नेताओं के सामने वे आज भे नौसिखिए ही माने जाते हैं, फिर आखिर भाजपा के विरोध में एका कैसे हो, यही कारण है कि अब सांझी विरासत के नाम से बिहार में जदयू के महागठबंधन छोड़ भाजपा से हाथ मिलाने का मुखर विरोध कर रहे शरद यादव के  आगे आते ही समूचा विपक्ष उनके सर पर सेहरा बंधने को तैयार दिखा।
मगर शरद यादव जो कभी जनता के बीच नहीं गये जानते हैं कि राजनीति के नाम पर भाजपा को हटाना उनके बस की बात नहीं है, इसलिए उन्होंने सांझी विरासत का हवाला दिया। इंदौर में दूसरे संस्करण में आठ ग़ैर भाजपाई दलों ने एकजुटता दिखाते हुए नरेंद्र मोदी सरकार पर हमला बोला। इन दलों ने आरोप लगाया कि देश में संविधान के तहत मिले बुनियादी अधिकारों और विविधता में एकता की राष्ट्रीय भावना पर खतरा मंडरा रहा है। देश में भय और डर का माहौल पैदा करने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि यह दौर इमरजेंसी का भी बाप है। लेकिन विपक्ष की एकजुट होने की मजबूरी अभी भी बरकरार है, मंच पर एकजुट विपक्ष अपने दूल्हे की तलाश में है, सेहरा तैयार है, घोड़ी, बैंडबाजा, बाराती, तैयार हैं पर दूल्हा ही नहीं मिल रहा।
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आजाद भारत में मुस्लिम महिलाओं को मिली सबसे बड़ी आजादी

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम समाज की महिलाओं के सशक्तिकरण में मील का पत्थर साबित होगा। डिजीटल इंडिया के युग में एसएमएस, व्हाट्सअप, ईमेल और फोन पर जब से तीन तलाक की खबरें आनी शुरू हुई थीं, तभी से मुस्लिम महिलाओं में बेचैनी देखी जा रही थी। असल में तीन तलाक का दंश मुस्लिम महिलाएं दशकों से झेलती आ रही थीं और इस प्रथा से महिलाएं एकाएक बेघर हो जाती थीं। जिस तेजी से इस प्रथा का दुरूपयोग बढ़ा था, उससे साफ था कि अब इसे समाप्त करने का समय आ चुका है और आज अंततः विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों से आने वाले पांच जजों की पीठ ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया। मुस्लिम महिलाएं और लड़कियां खुशी में मिठाईयां बांट रही हैं क्योंकि आज दशकों बाद एक कुप्रथा के अंत की शुरूआत हुई है, जिससे मुस्लिम महिलाएं अधिक सशक्त बनेंगी।

ऐतिहासिक दृष्टि से तीन तलाक पर आज का फैसला महत्वपूर्ण है और सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों- जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यू.यू. ललित ने बहुमत से तलाक को गैर संवैधानिक और मनमाना करार दिया है और इसे खारिज कर दिया है। तीनों जजों ने तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करार दिया है। जजों ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है और यह उसका सीधा उल्लंघन है। इससे पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय इसे पहले ही गैर संवैधानिक करार दे चुका है।

वैसे चीफ जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस नजीर ने अल्पमत में दिए अपने फैसले में तीन तलाक को धार्मिक परम्परा माना है, इसलिए कहा है कि कोर्ट को इसमें दखल देने की जरूरत नहीं है। हालांकि जजों ने माना कि यह पाप है, इसलिए सरकार को इसमें दखल देना चाहिए और तलाक के लिए कानून बनाना चाहिए। दोनों ने कहा कि तीन तलाक पर छह महीने तक रोक लगनी चाहिए, इस बीच में सरकार कानून बना ले और अगर छह महीने में कानून नहीं बनता है तो यह रोक आगे भी जारी रहेगी। लेकिन यह अल्पमत का फैसला है और संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप तीन जजों- जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यू.यू. ललित का फैसला मान्य होगा।

तीन तलाक के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय की आज केवल शुरूआत हुई है लेकिन स्वयं महिलाओं और मुस्लिम समाज को भी अपने अधिकारों और कर्तव्यों को लेकर जागरूक होना होगा। तीन तलाक के खिलाफ से आवाजें हमेशा उठती रहीं हैं, लेकिन मुस्लिम समाज द्वारा इसे धर्म से जोड़ने की वजह से कोई राजनीतिक दल या सरकार इस पर दखल नहीं देती थी। हालांकि भाजपा इस मुद्दे पर शुरू से ही मुखर थी और स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में कई बार तीन तलाक से मिलकर लड़ने की बात कहते रहे हैं।

भाजपानीत सरकार बनने के बाद 7 अक्टूबर, 2016 को राष्ट्रीय विधि आयोग ने जब इस मसले पर लोगों की राय मांगी तो मामले में बहस शुरू हो गई और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसकी पुरजोर खिलाफत की। हालांकि महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक को समाप्त करने की वकालत की थी और कहा था कि मूल कुरान में कहीं भी तीन तलाक का जिक्र नहीं है, अत: इसे धर्म ले जोड़ना गलत है।

दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर खुद संज्ञान लेकर सुनवाई शुरू की थी और बाद में इससे संबंधित 6 अन्य याचिकाएं भी दाखिल हुईं जिनमें से पांच में तीन तलाक को खत्म करने की मांग की गई थी। लगातार सुनवाई में तीन तलाक के विरोध और पक्ष में दलीलें रखी गईं थीं और केंद्र सरकार ने तीन तलाक को महिलाओं के साथ भेदभाव बताते हुए इसे रद्द करने की मांग की थी। 30 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था कि इससे जुड़ी सभी याचिकाओं पर सुनवाई पांच जजों की संविधान पीठ करेगी, जिसमें सभी धर्मों के जज शामिल होंगे। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जे.एस. खेहर सिख समुदाय से हैं, जस्टिस कुरियन जोसेफ ईसाई हैं। आर.एफ. नरीमन पारसी हैं तो यू.यू. ललित हिंदू और अब्दुल नजीर मुस्लिम समुदाय से हैं। अदालत ने शुरू में ही कहा था कि यह मसला बहुत गंभीर है और इसे दशकों तक टाला नहीं जा सकता।

11 मई 2017 को इस मसले पर संविधान बेंच ने सुनवाई शुरू की थी। 6 दिनों तक इस मामले की लगातार सुनवाई के बाद 18 मई को कोर्ट ने इस पर फैसला सुरक्षित रख लिया। इस दौरान सभी पक्षों ने अपनी-अपनी दलीलें रखीं और मुस्लिम समुदाय के वकील कपिल सब्बल ने इसे पाप और अवांछित माना, लेकिन आस्था का विषय बताते हुए इसकी तुलना अयोध्या की राम जन्मभूमि से कर डाली और पर्सनल लॉ को संविधान का संरक्षण होने की दलील दी और कहा कि इसमें कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि केवल आस्था के आधार पर किसी गैर संवैधानिक कार्य या प्रथा को जारी नहीं रखा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के सामने ये सवाल थे- एक बार में तीन तलाक और निकाह-हलाला धर्म के अभिन्न अंग हैं या नहीं? दोनों मुद्दों को महिलाओं के मौलिक अधिकारों से जोड़ा जा सकता है या नहीं और कोर्ट इसे मौलिक अधिकार करार देकर आदेश लागू करवा सकता है या नहीं? मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला कानूनन वैध हैं या नहीं ?

सभी पक्षों में सहमति बनी थी कि व्यापक सामाजिक हित के मुद्दे पर जल्द सुनवाई होनी चाहिए। कोर्ट ने पहले ही साफ कर दिया था कि वह केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर ही सुनवाई करेगा। अदालत यूनिफॉर्म सिविल कोड के मसले पर विचार नहीं करेगी। 2015 में मामले पर संज्ञान लेते वक्त कोर्ट ने कहा था, “हमें यह देखना होगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में मौजूद तीन तलाक, बहुविवाह और हलाला जैसे प्रावधान संविधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं या नहीं? संविधान हर नागरिक को बराबरी का अधिकार देता है। कहीं इस तरह की व्यवस्था मुस्लिम महिलाओं को इस हक से वंचित तो नहीं करती?” मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत उलेमा ए हिंद जैसे संगठनों ने भी अर्ज़ी दायर कर अदालत में चल रही कार्रवाई बंद करने की मांग की थी। इन संगठनों की दलील थी कि पर्सनल लॉ एक धार्मिक मसला है। कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। केंद्र सरकार ने स्पष्ट स्टैंड लेते हुए कहा था कि पर्सनल लॉ संविधान से ऊपर नहीं है। उसके कुछ प्रावधान महिलाओं के बराबरी और सम्मान के साथ जीने के अधिकार का हनन करते हैं। इन्हें असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया जाना चाहिए।

विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ में सुधारों के सम्बन्ध में मांग उठती रहती है और समय-समय पर सुधार किये भी जाते रहे हैं और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विधायी परिवर्तनों के माध्यम से हिन्दू पर्सनल लॉ में कई प्रमुख सुधार किये थे। डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने अविभाजित हिन्दू परिवार में लैंगिक समानता के संबंध में विधायी परिवर्तन किये थे। इसी प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने हितधारकों के साथ सक्रिय विचार-विमर्श के बाद लैंगिक समानता लाने के सम्बन्ध में ईसाई समुदाय से संबंधित विवाह एवं तलाक के प्रावधानों में संशोधन किया था। पर्सनल लॉ में सुधार एक सतत प्रक्रिया है भले ही इसमें एकरूपता न हो। समय के साथ, कई प्रावधान पुराने और अप्रासंगिक हो गए हैं और उन्हें बदला जाता है लेकिन मुस्लिम समाज को लेकर राजनीतिक दलों की राय अलग रहती है और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की आड़ में समाज को बांटने का ही प्रयास करते हैं।

जैसे-जैसे समुदायों ने प्रगति की है, लैंगिक समानता का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। मुस्लिम महिलाओं को भी गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार है और सुप्रीम कोर्ट के आज के आदेश ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि भारतीय संविधान सर्वोपरि है और बाकी अन्य रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएँ, परम्पराएं सब इसके बाद हैं।

धार्मिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों और नागरिक अधिकारों के बीच एक बुनियादी अंतर है। जन्म, गोद लेने, उत्तराधिकार, विवाह, मृत्यु के साथ जुड़े धार्मिक कार्य मौजूदा धार्मिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न किये जा सकते हैं। लेकिन परम्पराएं, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएं और आस्था जब किसी अपराध या गलत कार्यों के महिमा मंडन का कारण बनने लगें तो उन्हें समाप्त करना या उन पर अंकुश बहुत जरूरी है।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कई दशकों से चली आ रही तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया है लेकिन इसके लिए सरकार को कानून एवं नियम बनाने होंगे क्योंकि केवल असंवैधानिक घोषित करने मात्र से इस पर रोक नहीं लगेगी। इस पर कानून बनने के बाद उसे तोड़ने वाले पर आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का प्रावधान करना होगा, तभी यह प्रथा रूकेगी। धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अत्याचार की इजाजत न भारतीय संविधान देता है और न ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड। लेकिन अशिक्षा के कारण समाज में जागरूकता का अभाव है। शिक्षा और जागरूकता से ही अंतत: बुराईयों से छुटकारा मिलेगा। अत: मुस्लिम समाज को शिक्षा पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

-सोनिया चोपड़ा

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बनेगा ‘न्यू इंडिया’, ‘ओल्ड’ के लिए नहीं होगी कोई जगह!

धर्म मनुष्य में मानवता जगाता है, लेकिन जब धर्म ही मानव के पशु बनने का कारण बन जाए तो दोष किसे दिया जाए धर्म को या मानव को ? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ताजा बयान का मकसद जो भी रहा हो लेकिन नतीजा अप्रत्याशित नहीं था। कहने को भले ही हमारे देश की पहचान उसकी यही सांस्कृतिक विविधता है लेकिन जब इस विविधता को स्वीकार्यता देने की पहल की जाती है तो विरोध के स्वर कहीं और से नहीं इसी देश के भीतर से उठने लगते हैं।

जैसा कि होता आया है, मुद्दा भले ही सांस्कृतिक था लेकिन राजनैतिक बना दिया गया। देश की विभिन्न पार्टियों को देश के प्रति अपने ‘कर्तव्यबोध’ का ज्ञान हो गया और अपने अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर बयान देने की होड़ लग गई। विभिन्न टीवी चैनल भी अपनी कर्तव्यनिष्ठा में पीछे क्यों रहते ? तो अपने अपने चैनलों पर बहस का आयोजन किया और हमारी राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के प्रवक्ता भी एक से एक तर्कों के साथ उपस्थित थे। और यह सब उस समय जब एक तरफ देश अपने 66 मासूमों की मौत के सदमे में डूबा है, तो दूसरी तरफ बिहार और आसाम के लोग बाढ़ के कहर का सामना कर रहे हैं।

कहीं मातम है, कहीं भूख है, कहीं अपनों से बिछड़ने का दुख है तो कहीं अपना सब कुछ खो जाने का दर्द। लेकिन हमारे नेता नमाज और जन्माष्टमी में उलझे हैं। सालों से इस देश में मानसून में कुछ इलाकों में हर साल बाढ़ आती है जिससे न सिर्फ जान और माल का नुकसान होता है बल्कि फसल की भी बरबादी होती है। वहीं दूसरी ओर कुछ इलाके मानसून का पूरा सीज़न पानी की बूंदों के इंतजार में निकाल देते हैं और बाद में उन्हें सूखाग्रस्त घोषित कर दिया जाता है। इन हालातों की पुनरावृत्ति न हो और नई तकनीक की सहायता से इन स्थितियों पर काबू पाने के लिए न तो कोई नेता बहस करता है न आंदोलन।

फसलों की हालत तो यह है कि अभी कुछ दिनों पहले किसानों द्वारा जो टमाटर और प्याज सड़कों पर फेंके जा रहे थे आज वही टमाटर 100 रुपए और प्याज तीस रुपए तक पहुँच गए हैं। क्योंकि हमारे देश में न तो भंडारण की उचित व्यवस्था है और न ही किसानों के लिए ठोस नीतियाँ। लेकिन यह विषय हमारे नेताओं को नहीं भाते। किसान साल भर मेहनत कर के भी कर्ज में डूबा है और आम आदमी अपनी मेहनत की कमाई महंगाई की भेंट चढ़ाने के लिए मजबूर। लेकिन यह सब तो मामूली बातें हैं! इतने बड़े देश में थोड़ी बहुत अव्यवस्था हो सकती है। सबसे महत्वपूर्ण विषय तो यह है कि थानों में जन्माष्टमी मनाई जानी चाहिए कि नहीं ? काँवर यात्राओं में डीजे बजना चाहिए कि नहीं ? सड़कों पर या फिर एयरपोर्ट पर नमाज पढ़ी जाए तो उससे किसी को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि किसी समुदाय विशेष की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं। मस्जिदों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद लाउड स्पीकर बजेंगे क्योंकि यह उनकी धार्मिक भावनाओं के सम्मान का प्रतीक है। मोहर्रम के जलूस को सड़कों से निकलने के लिए जगह देना इस देश के हर नागरिक का कर्तव्य है क्योंकि यह देश गंगा जमुना तहज़ीब को मानता आया है। लेकिन कांवरियों के द्वारा रास्ते बाधित हो जाते हैं जिसके कारण जाम लग जाता है और कितने जरूरतमंद लोग समय पर अपने गन्तव्यों तक नहीं पहुंच पाते। और इस यात्रा में बजने वाले डीजे ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं।

इस तरह की बातें कौन करता है ? क्या इस देश का किसान जो साल भर अपने खेतों को आस से निहारता रहता है, या फिर वो आम आदमी जो सुबह नौकरी पर जाता है और शाम को पब्लिक ट्रांसपोर्ट के धक्के खाता थका हारा घर आता है, या फिर वो व्यापारी जो अपनी पूंजी लगाकर अपनी छोटी सी दुकान से अपने परिवार का और माता पिता का पेट पालने की सोचने के अलावा कुछ और सोच ही नहीं पाता। या वो उद्यमी जो जानता है कि एक दिन की हड़ताल या दंगा महीने भर के लिए उसका धंधा चौपट कर देगा, या फिर वो गृहणी जिसकी पूरी दुनिया ही उसकी चारदीवारी है जिसे सहेजने में वो अपना पूरा जीवन लगा देती है, या फिर वो मासूम बच्चे जो गली में ढोल की आवाज सुनते ही दौड़े चले आते हैं, उन्हें तो नाचने से मतलब है धुन चाहे कोई भी हो।

जब इस देश का आम आदमी केवल शांति और प्रेम से अपनी जिंदगी जीना चाहता है तो कौन हैं वो लोग जो बेमतलब की बातों पर राजनीति कर के अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं ? अब जब न्यू इंडिया बन रहा है तो उसमें ‘ओल्ड’ की कोई जगह नहीं बची है। ये बातें और इस तरह की बहस पुरानी हो चुकी हैं इस बात को हमारे नेता जितनी जल्दी समझ जाएं उतना अच्छा नहीं तो आज सोशल मीडिया का जमाना है और यह पब्लिक है जो सब जानती है। बाकी समझदार को इशारा काफी है।

– डॉ. नीलम महेंद्र

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भारतीय रेलवे को इन ‘गंभीर लापरवाहियों’ से बचा लो प्रभु!

भारतीय परिवहन का प्रमुख तंत्र रेलवे पुन: एक बड़ी दुर्घटना के चपेट में आ गया। मुजफ्फरनगर के खतौली में कलिंग उत्कल एक्सप्रेस के 13 डिब्बे पटरी से उतरे, जिसमें कम से कम 30 लोग मर गए तथा 100 से ज्यादा घायल हुए। दुर्घटना की तसवीरों से ही स्थिति की भयावहता को समझा जा सकता है। खतौली रेलवे स्टेशन से आगे जहाँ हादसा हुआ, वहाँ पटरी की मरम्मत का कार्य चल रहा था। पटरी मरम्मत के औजार भी घटनास्थल पर पड़े हुए हैं, फिर भी चालक को इसकी कोई जानकारी नहीं दी गई तथा कलिंग उत्कल एक्सप्रेस चश्मदीदों के अनुसार 100 किमी/घंटा की ज्यादा गति से मरम्मत वाली पटरियों से गुजरी। जिससे यह हादसा तो तय ही था। इस दुर्घटना में रेल मंत्रालय की लापरवाही स्पष्टत: देखी जा सकती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह दुर्घटना तब घटी है, जब अगले ही माह सितंबर में भारत में बुलेट ट्रेन की नींव रखी जानी है। इस हादसे की भयावहता को इससे ही समझा जा सकता है कि रेल का एक डिब्बा बगल के घर में घुसते हुए चौधरी तिलक राम इंटर कॉलेज की बिल्डिंग में भी घुस गया। घर के अंदर के लोग भी इससे घायल हुए हैं।

आखिर मरम्मत वाली टूटी पटरियों पर रेलगाड़ी क्यों दौड़ी?

यह ट्रैक काफी दिनों से खराब था, जिसमें लगातार मरम्मत कार्य जारी था। चश्मदीदों के अनुसार एक माह पहले भी यहाँ एक बड़ी रेल दुर्घटना को स्थानीय लोगों की पहल से रोका गया था। उस समय भी रेल पटरी मरम्मत के कारण टूटे ट्रैक पर ट्रेन आ रही थी, जिसे लाल कपड़ा दिखाकर किसी तरह रोका गया। इस घटना से भी रेलवे ने कोई सीख नहीं ली। यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि मरम्मत के दौरान आखिर ट्रेन को चलने की अनुमति कैसे मिली। उस दिन भारी वर्षा हो रही थी, जिस कारण मजदूर नियत समय पर मरम्मत का कार्य नहीं कर पाए तथा वर्षा के कारण बीच में ही उन्होंने पटरी रिपेयरिंग का कार्य रोक दिया था, लेकिन लग रहा है इसके प्रक्रियात्मक पहलुओं का पालन नहीं किया गया। ऐसे में तो स्पष्ट है कि रेलवे की जानलेवा लापरवाही दुर्घटना का प्रमुख कारण बनी।

देश में रेल दुर्घटनाएँ क्यों होती हैं? कैसे होती हैं? इसके कारण और निदान नीति निर्माता से लेकर आम आदमी तक सभी को पता हैं। फिर भी हर वर्ष ये दुर्घटनाएँ होती हैं, उसकी जाँच होती हैं, बैठकें होती हैं, मुआवजे की घोषणाएँ होती हैं लेकिन स्थायी समाधान नहीं होता। इस बार भी मृतकों के परिजनों को 3.5 लाख रुपए, गंभीर रूप से घायलों को 50 हजार रुपए तथा सामान्य घायलों को 25 हजार रुपए के मुआवजे का रेल मंत्रालय ने ऐलान किया है।

दरअसल रेल दुर्घटनाओं का असर किसी भी अन्य दुर्घटनाओं से काफी ज्यादा होता है। भारतीय रेलवे अंतर्देशीय परिवहन का सबसे बड़ा माध्यम है। दुनिया के इस सबसे बड़े रेल नेटवर्क में से एक भारत में हर रोज सवा दो करोड़ से भी ज्यादा लोग रेल की सवारी करते हैं। ऐसे में भारतीय रेल को दुर्घटनाओं को रोकने के लिए तीव्रतम प्रयास करने होंगे तथा तब तक प्रयत्नशील होना होगा, जब तक रेलवे दुर्घटनाओं को शून्य तक नहीं पहुँचा दे।

सत्य को स्वीकार करने से बचता है रेलवे मंत्रालय

उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव (गृह) अरविंद जी ने स्वीकार किया कि घटनास्थल पर पटरी रिपेयरिंग का कार्य चल रहा था, परंतु रेलवे ने प्रारंभिक तौर पर रिपेयरिंग से इंकार किया है। रेलवे का कहना है कि जाँच रिपोर्ट के बाद ही सच्चाई का पता चलेगा। एक तरह से कमिटी बनाकर जांच के नाम पर मामले को टालने का प्रयत्न है। सबसे दुखद बात यह है कि रेलवे पूर्व में हुई दुर्घटनाओं से कोई सीख नहीं ले रहा है। जाँच समितियों की रिपोर्ट पर बाद में रेलवे द्वारा प्रभावी क्रियान्वयन की कमी से स्थिति में बदलाव नहीं आता है। ये रिपोर्टें बस धूल खाती रहती हैं। कार्रवाई के नाम पर रेलवे के कुछ छोटे कर्मियों की छुट्टी कर मामले को ठंडा करने से रेलवे का भला नहीं होगा। आवश्यकता है कि बड़े स्तर पर रेलवे की इस लापरवाही पर कार्रवाई कर जिम्मेवारी निर्धारित की जाए।

आज वैश्विक स्तर पर तकनीक के द्वारा दुर्घटनाओं को न्यूनतम करने के प्रयास हो रहे हैं, परंतु भारतीय रेलवे में ऐसे समुचित प्रयास कम ही हुए हैं। अगर सूक्ष्मता पूर्वक भारतीय रेल की दुर्घटनाओं का विश्लेषण किया जाए तो करीब 80 प्रतिशत भारतीय रेल दुर्घटनाओं का कारण मानवीय भूल या चूक होती है। इस दुर्घटना के बाद पुन: यह प्रश्न उठता है कि आखिर रेलवे लोगों को सुरक्षित रेल यात्रा कब उपलब्ध कराएगी ? कब तक हम लोग अपने प्रियजनों को यूँ ही खोते रहेंगे ? इन हादसों का जिम्मेदार कौन हैं ?

रेल में इस तरह की मानवीय त्रुटि को कैसे रोकें?

मानवीय चूक को रोकने के वैश्विक स्तर पर दो उपाय स्वीकार किए गए हैं- प्रथम आधुनिकतम तकनीक का प्रयोग कर मानवीय चूक को कम करना, द्वितीय- रेल कार्मिकों का उच्चस्तरीय प्रशिक्षण। अगर आधुनिकतम तकनीक की बात करें तो इसमें ‘यूबीआरडी’ प्रमुख है। रेलवे ने रेल पटरियों की सुरक्षा निगरानी हेतु दक्षिण अफ्रीका से एक खास तकनीक यूबीआरडी आयात की है, जिसमें ट्रांसमीटर एक तरंग छोड़ता है और अगर रिसीवर को वह तरंग नहीं मिलती है तो पता चल जाता है कि कहीं बीच में कोई समस्या है। इस प्रणाली से पटरी की बारीक चटक का भी पता लग जाता है। इसके अतिरिक्त आधुनिक “लिंक हाफमैन बुश” डिब्बे की अनुपस्थिति से भी हताहतों की संख्या में वृद्धि होती है। लिंक हॉफमैन बुश से युक्त डिब्बे पटरी से उतरने के बाद भी ज्यादा असरदार तरीके से झटकों और इसके प्रभाव को झेल सकते हैं और ये पलटते नहीं। इससे जानमाल के नुकसान में अप्रत्याशित कमी आती है।

मानवीय चूक रोकने का दूसरा प्रमुख उपाय रेलकर्मियों का उच्चस्तरीय प्रशिक्षण है। इस मामले में जिस तरह जानलेवा लापरवाही दिखी, उससे रेल कर्मियों में प्रशिक्षण की भारी कमी स्पष्टत: देखी जा सकती है। जब तेज रफ्तार वाली ट्रेन चल रही हो तो ट्रेन के दोनों ओर तैनात कुशल तकनीशयन द्वारा दूर से आ रही रेलगाड़ी की चाल, उसकी लहर व उसके नीचे से निकलने वाली अवांछित आवाजों तथा इंजन व गार्ड के मध्य सभी डिब्बों के बीच झटकों व उनके परस्पर खिंचाव आदि पर पैनी नजर रखनी चाहिए। साथ ही जिस ट्रैक से वह तीव्र गति ट्रेन गुजर रही हो उस पर भी पूरी चौकस नजर रखी जानी चाहिए। खतौली रेल दुर्घटना में तो पटरी मरम्मत तक की जानकारी ड्राइवर को नहीं मिली।

राहत कार्मियों को पहुँचने में विलंब लेकिन स्थानीय लोग दुर्घटनाग्रस्त यात्रियों के लिए बने देवदूत

आपदा प्रबंधन की तमाम तैयारियों की बातों के बीच भी दिल्ली से केवल 100 किमी दूर खतौली में दुर्घटना के कम से कम एक घंटे बाद ही राहत कार्य अधिकृत तौर पर शुरू हो पाया। मुजफ्फरनगर के खतौली निवासियों ने अपने स्तर पर घटना घटते ही बड़े पैमाने पर राहत और बचाव कार्य प्रारंभ कर दिया था। स्थानीय लोगों ने तीव्र गति से लोगों को बाहर निकाला और घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाया। पिछले कुछ समय से भीड़ अपने निर्दयी कारणों से चर्चा में थी, लेकिन खतौली में भीड़ का न केवल मानवीय पक्ष सामने आया अपितु दुर्घटना ग्रस्त यात्रियों के अनुसार वे देवदूत की ही भूमिका में थे।

एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर साल औसतन 300 छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाएँ होती हैं। जब भी कोई रेल दुर्घटना होती है, मुआवजे की घोषणा कर उसे भुला दिया जाता है। हमें इस प्रवृत्ति से बाहर आना होगा। रेलवे सुरक्षा के कई पहलू होते हैं, लेकिन प्रबंधन के स्तर पर सभी पहलू जुड़े रहते हैं। होता यह है कि रेलवे विभाग रेल सेवाओं में तो वृद्धि कर देता है, परंतु सुरक्षा का मामला उपेक्षित रह जाता है। राजनीतिज्ञों और प्रबंधकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि रेलवे सिस्टम को एक तय सीमा से ज्यादा न खींचा जाए। रेलवे सुरक्षा और सेवाओं के मध्य समुचित संतुलन बनाए जाने की जरूरत है। उम्मीद है कि इस वर्ष से अलग रेलवे बजट न होने के कारण रेल मंत्रालय के ऊपर लोकप्रिय निर्णय लेने का दबाव नहीं रहेगा और वह सुरक्षा पर समुचित खर्च कर सकेगी। अब समय आ गया है, जब भारतीय रेलवे सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करे, नहीं तो फिर हम लोग शायद किसी नयी दुर्घटना के बाद भी इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करते दिखें।

राहुल लाल

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लेख

छह दशकों से गीतों के जरिये जीवन में रंग भर रहे हैं गुलज़ार

“मेहनत तो हीरा बेचने वाले को भी करनी पड़ती है, हम तो फिर भी ख्याल बेच रहे हैं” एक 82 साल के बुज़ुर्ग शायर जिन्होंने बॉलीवुड के 6 दशकों में अपने गीतों से रंग भरा है, ने पिछले दिनों बैंगलुरु में हुए पोएट्री फेस्टिवल में युवा कवियों को संबोधित करते हुए यह कहा।

हैरानी होती है कि 82 साल की उम्र में भी उसी जवान जोश और ज़ज्बे से गुलज़ार अपनी महक बिखेर रहे हैं। 18 अगस्त 1934 में झेलम के पास जन्मे (अब पाकिस्तान) सम्पूरण सिंह कालरा ने पिता की नाराज़गी के बाद “गुलज़ार” तखल्लुस (पेन नेम) अपना लिया।

यूँ तो गुलज़ार ने 1957 से ही हिंदी फिल्मों के लिए गाने लिखने शुरू कर दिए थे पर 1963 में पहली बार गुलज़ार ने मशहूर संगीतकार एस.डी. बर्मन के साथ काम किया और ‘बंदनी’ फिल्म के मशहूर गाने “मोरा गोरा अंग लई ले” की रचना की। पांच दिनों में लिखे गए इस गीत में रविन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं की साफ़ छवि देखी जा सकती है।

‘बंदनी’ के बाद तो गुलज़ार ने बॉलीवुड में अपने गीतों की झड़ी लगा दी। आनंद, मेरे अपने, गुड्डी, बावर्ची, परिचय, नमक हराम, चुपके चुपके, मौसम, आंधी, गोलमाल, अंगूर, सदमा, मासूम, रुदाली, माचिस, दिल से, साथिया, ओमकारा और ना जाने कितने फिल्मों के गानों को गुलज़ार ने अपने लफ़्ज़ों से सजाया और उनके इस जौहर के लिए गुलज़ार को 20 दफा फिल्म फेयर से नवाज़ा गया। गुलज़ार आज भी फिल्मों के लिए गाने लिख रहे हैं।

इतनी शिद्दत के साथ काम करने की ताकत और नई सोच गुलज़ार लाते कहाँ से हैं, एक इंटरव्यू में इसका जवाब देते हुए गुलज़ार साब कहते हैं कि “अगर आप आज के तरोताजा ट्रेंड से वाकिफ नहीं रहेंगे तो बच नहीं पायेंगे और ये बात एक इंजिनियर, एक फोटोग्राफर के लिए जितनी सही है उतनी ही सही एक लेखक और कवि के लिए भी है।”

नई चीजों और नई भाषा को अपनाने में गुलज़ार कभी पीछे नहीं रहे हैं। साल 2014 में उन्होंने आज के ज़माने के पोपुलर पंजाबी गायक हनी सिंह के साथ “हॉर्न होके प्लीज” गाने की रचना की जिसमें उर्दू शायरी को नए रैप की शैली में पेश किया गया है।

एक ही वक़्त में अलग अलग मूड के हिसाब से अलग अलग लफ़्ज़ों और भाषाओं में लिखना गुलज़ार की खासियत है वरना कौन 2014 में एक फिल्म के गाने में लिख सकता है-

“गहरी गर्मी में शर्बत-ऐ-जमजम, रूह अफज़ा तू स्वीटा”

और फिर कुछ दिनों बाद दार्शनिक अंदाज़ में ज़िन्दगी से बात करते हुए लिखे-

“क्या रे ज़िन्दगी क्या है तू, तेरी कार्बन कॉपी हूँ मैं या मेरा आइना तू”

गीतों में अपनी खुशबु बिखरने के साथ साथ गुलज़ार ने फिल्म निर्माण और साहित्य में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। मशहूर लेखक/अनुवादक और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक प्रभात रंजन गुलज़ार के फिल्म निर्माण के बारे में कहते हैं कि “मुझे उनकी फिल्म “अचानक” सबसे अच्छी लगती है। 1973 में विनोद खन्ना को लेकर उन्होंने यह फिल्म बनाई थी। बहुत कम कास्ट के साथ एक कमाल की फिल्म है जिसमें डायलाग, गाने सब बहुत कम हैं। लेकिन बहुत अच्छी फिल्म है। यह उनकी सिग्नेचर स्टाइल से थोड़ी अलग हटकर भी है।” इस फिल्म की कहानी 1958 में हुए चर्चित हत्याकांड के.एम. नानावटी बनाम महाराष्ट्र पर आधारित थी।

गुलज़ार के आज की वक़्त में भी जनता के बीच पॉपुलर होने के सवाल पर प्रभात रंजन कहते हैं कि “गुलजार की सबसे बड़ी बात है कि वे लगातार contemporary बने रहे। हर दौर की भाषा में उन्होंने कुछ मीनिंग भरने की कोशिश की। आप देखिये अभी हाल में रंगून फिल्म में उन्होंने एक गीत लिखा था- ब्लडी हेल। meaninglessness को इतना मीनिंगफुल कोई समकालीन गीतकार नहीं बना सकता। वे हर समय के समकालीन बने रहे यही उनकी ताकत है।”

हर वर्ग और उम्र के लिए गुलज़ार ने अलग अलग वक़्त में अपने गीतों के तरकश से एक एक गीत चुन के निकाले हैं। गुलज़ार कभी उधम मचाते कूदते बच्चों के लिए हर इतवार मोंगली के संग चड्डी पहने फूलों को खिलाते हैं तो कभी दिल को बच्चा बना कर पहले प्यार की दुश्वारियों से गुजरते हैं।

गुलज़ार एक रॉक स्टार शायर हैं और इसलिए आज भी किसी कार्यक्रम में अगर वो शामिल होते हैं तो उनके वहाँ उनके चाहने वालों की भीड़ लग जाती है जिसमें अधिकतर युवा होते हैं, दरअसल आज गुलज़ार होना बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है एक 80 साल की इंसान का एक जवां दिल के ज़ज्बातों को लफ्ज़ देना और लिखना-

“हल्की हल्की आहें भरना,
तकिये में सर दे के धीमे धीमे,
सरगोशी में बातें करना,
पागलपन है ऐसे तुम पे मरना,”

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लेख

गोरखपुर में हुई मौतों पर राजनीति करने से बचें सभी पार्टियां

हिन्दुस्तान की सियासत का यह दुर्भाग्य है कि हमारे नेतागण हर मुद्दे को सियासी रंग देते हैं। समस्या कैसी भी हो, मुद्दा कोई भी हो, यहां हर बात में सियासत शुरू हो जाती है। चाहे जनहानि हो या फिर धनहानि, चाहे देश की सुरक्षा से जुड़ा मसला हो या फिर देश के स्वभिमान की बात, चाहे अतीत की गलतियां हो या फिर वर्तमान की खामियां, सब को हमारे सियासतदार राजनैतिक चोले से ढक देते हैं। बिना यह सोचे समझे कि इससे किसका कितना नुकसान होता है और किसको फायदा मिलता है। दुख की बात यह है कि सह सिलसिला आजादी के बाद से चला आ रहा है और आज तक बदस्तूर जारी है। बस फर्क इतना है कि कभी कोई सत्ता पर काबिज होता है तो कभी कोई, लेकिन जो आज विपक्ष में होता है वह पूरी बेर्शमी से अपना कल (अतीत) भूल जाता है। ऐसा ही कुछ गोरखपुर मेडिकल कालेज में काल के गाल में समा गये दर्जनों बच्चों के कथित ‘रहनुमा’ बनने वाले भी कर रहे हैं।

यह देख और सुनकर दुख होता है कि गोरखपुर में मारे गये बच्चों की मृत्यु के कारणों की जांच करने गये समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल में से किसी ने भी हकीकत नहीं उजागर की। सभी दलों के प्रतिनिधिमंडल में शामिल तमाम बड़े−बड़े नेताओं ने चंद मिनटों के दौरे में समझ लिया कि पूरे कांड के लिये योगी सरकार जिम्मेदार है। सीएम योगी सहित उनके मंत्रियों से इस्तीफा मांगने वालों की कतार ही लग गई। मानो ऐसा पहली बार हुआ हो। मौत के समय बात आंकड़ों की नहीं खामियों की होनी चाहिए, लेकिन आंकड़ों को समझे बिना हकीकत समझी भी नहीं जा सकती है। असल में पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह (एनसेफेलाइटिस बुखार) समस्या पुरानी है। हर साल इसी तरह से मौत का तांडव होता है। योगी जो आज तक गोरखपुर के सांसद हैं, लम्बे समय से एनसेफेलाइटिस के खिलाफ मुहिम चलाये हुए हैं, लेकिन इस बीमारी से निपटने के लिये जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, उस ओर न तो पूर्व की राज्य सरकारों ने तवज्जो दी, न ही केन्द्र की सरकारों ने कभी इसे गंभीरता से लिया। सीएम योगी की यह बात अगर सच है कि जब यूपीए की सरकार थी, तबके स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने इसे राज्य सरकार की जिम्मेदारी बता कर अपना पल्ला झाड़ लिया था तो यह बेर्शमी की हद थी।

बात इससे इतर की जाये तो सच्चाई यह भी है कि विरोध के नाम पर विरोध करने वाले सियासतदारों की वजह से ही दर्जनों बच्चों की मौतों के जिम्मेदारों के खिलाफ अभी तक पुख्ता कार्रवाई नहीं हो पाई है। अगर सपा, बसपा और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य मौत को लेकर इतने ही ईमानदार थे तो उन्हें तथ्यों के साथ उन डॉक्टर/अधिकारियों के नाम अपनी रिपोर्ट में देना चाहिए था, जो उनकी जांच में कुसूरवार पाये गये हों। लेकिन इस सबका पता लगाने का तो समय ही किसी के पास नहीं था। सिर्फ सियासत चमकानी थी तो चमकाई गई। शायद, ऐसे ही व्यवहार की वजह से यह दल और उनके आका जनता की नजरों से दूर होते जा रहे हैं। विपक्ष द्वारा जैसा रवैया बच्चों की मौत पर अख्तियार किया जा रहा है, कमोवेश ऐसा ही रवैया यह नेतागण आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, धार्मिक उन्माद, प्राकृतिक आपदाओं के समय भी अपनाते हैं। कुछ नेताओं की तो पहचान ही बन गई है, जो ऐसे दुखद मौकों पर सियासत करने के लिये मैदान में कूद पड़ते हैं और फिर न जाने कहां चले जाते हैं। ऐसे बयान बहादुरों से न तो देश का भला होता है, न जनता को कोई फायदा पहुंचता है। मगर, यह नेता समझने को तैयार ही नहीं हैं कि समय बदल गया है।

बात बीते दिनों दर्जनों बच्चों की मौत को लेकर चर्चा में आए गोरखपुर मेडिकल कॉलेज की कि जाये तो यहां भी कुछ ऐसे ही हालात पैदा कर दिये गये हैं। यहां तमाम दलों के नेताओं का जमावड़ा लगा। योगी आदित्यनाथ भी पहुंचे और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा भी। इससे पहले योगी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह भी पूरा मामला समझने आये थे, लेकिन वह मीडिया से रूबरू होते समय ऐसे आंकड़ों में उलझे कि योगी सरकार की किरकिरी ही करा बैठे। गोरखपुर से योगी का जुड़ाव सब जानते हैं। वह यहां के प्रतिनिधि ही नहीं हैं। गोरखधाम के प्रमुख भी है। योगी की यहां बारीक पकड़ है। वह उस मेडिकल कालेज में तमाम बार जा चुके हैं जो आजकल चर्चा में है। दर्जनों बच्चों की मौत के बाद गोरखपुर पहुंचे योगी ने यह बात सबको समझाने की पूरी कोशिश की कि वह तो इस बीमारी के खिलाफ कब से मुहिम चलाये हुए हैं। मेडिकल कॉलेज का दौरा करने के बाद सीएम योगी ने दोषी लोगों के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई की बात कही, जिस पर अविश्वास की कोई वजह नहीं हो सकती है। वह अपेक्षा के अनुरूप भी है, लेकिन आवश्यकता इसकी बात की भी है कि पूरे प्रकरण की जांच तो हो ही आगे से ऐसी घटना कहीं और न दोहराई जाये, इसके लिये अभी से सख्त कदम उठाये जायें। अफसोस तो इस बात का भी है कि चार दिन पहले ही मुख्यमंत्री मेडिकल कॉलेज का निरीक्षण करके आये थे। स्पष्ट है कि वह उस अव्यवस्था से अवगत नहीं हो सके जो वहां व्याप्त थी। सार यही है कि सीएम योगी यहां के स्टाफ का शातिराना व्यवहार समझ नहीं पाये।

दरअसल, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ऐसे निरीक्षण ज्यादा सफल नहीं रहते हैं। इसीलिए जरूरत औचक अथवा औपचारिक निरीक्षण की नहीं, बल्कि व्यवस्था में मूलभूत सुधार की है, जिसके लिये सबको मिल जुलकर कर प्रयास करना होगा। यह दुखद है कि एक ओर तो अपने देश में सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की दशा बहुत दयनीय है और दूसरी ओर पिछले कई वर्षों में इस ढांचे को भ्रष्टाचार का घुन खोखला किये जा रहा है। एनएचआरएम घोटाला इसकी सबसे बड़ी बानगी है, जिसमें कई मंत्री और नेता फंसे हुए हैं।

इससे भी संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि जगह−जगह नये एम्स बन जायें। हर कोई जानता और समझता है कि मौजूदा एम्स वह चाहे दिल्ली का हो या अन्य शहरों का, तमाम समस्याओं से घिरे हुए हैं। यहां भी मरीजों को लम्बी वेटिंग से जूंझना पड़ता है। तमाम मरीज तो इलाज के इंतजार में ही दम तोड़ देते हैं। देश की राजधानी दिल्ली स्थित एम्स में गंभीर बीमारी से ग्रस्त तमाम मरीजों को ऑपरेशन के लिए दो−दो साल बाद की तिथि मिल़ रही है। जब दिल्ली के एम्स में यह स्थिति हो तब फिर देश के अन्य हिस्सों में एम्स का क्या हाल होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। नामी अस्पतालों से हटकर नीचे देखा जाये तो तमाम सरकारी अस्पतालों अथवा मेडिकल कॉलेजों कि स्थिति तो और भी बदतर है। प्राइमरी हेल्थ सेंटरों को तो उससे भी बुरा हाल है। यहां तो डॉक्टर ही नहीं मिलते हैं। सरकारी अस्पताल आम तौर पर अव्यवस्था के पर्याय बनते जा रहे हैं, जिसका फायदा उठाकर निजी अस्पताल मालामाल हो रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में कदम−कदम पर मरीजों की उपेक्षा−अनदेखी आम बात है। इससे भी अफसोस की बात यह है इन सरकारी अस्पतालों के आसपास ऐसे दलाल टहलते रहते हैं जो दूर−दराज से आये मरीजों को बहला−फुसला कर अपने यहां ले जाते हैं और अक्सर मोटी कमाई करके उन्हें असहाय छोड़ देते हैं। इन दलालों का पूरा नेटवर्क काम करता है जिसे स्वास्थ्य विभाग के बड़े अधिकारी हमेशा अनदेखा करते हैं तो तमाम डॉक्टर इनको शह देते हैं।

कई बार तो ऐसा लगता है कि धरती का यह भगवान शैतान बन गया है। पूरा का पूरा चिकित्सीय तंत्र सेवा भाव से ही विमुख हो गया है। यह पहली बार नहीं है जब मेडिकल कॉलेज में अव्यवस्था−अनदेखी से मरीजों की अस्वाभाविक मौत के बाद हंगामा हो रहा है, लेकिन इससे कभी सबक नहीं लिया गया। चाहे केंद्र सरकार हो अथवा राज्य सरकारें, वे स्वास्थ्य तंत्र में सुधार का कोई ऐसा उदाहरण पेश नहीं कर पा रही हैं जो सरकारी स्वास्थ्य ढांचे के लिए अनुकरणीय साबित हो सके।

किसी भी अस्पताल में गंभीर बीमारी से ग्रस्त मरीजों की मौतें होना स्वाभाविक है, लेकिन दुख तब होता है जब मौत की वजह लापरवाही होती है। ऐसी मौतों के पीछे की लापरवाही पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज की घटना उत्तर प्रदेश सरकार के साथ−साथ केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों के लिये कुछ और सख्त कानून बनाये जायें। इसके साथ−साथ जो कानून ताक पर रख दिये गये हैं उन्हें भी प्रयोग में लाया जाये, ताकि भविष्य में इस तरह की मौतें नहीं हों। पूरी दुनिया में मां−बाप के सामने बच्चे की अर्थी उठने से बड़ा कोई गम हो ही नहीं सकता है। बच्चों की मौत क्यों हुई इसकी जांच करके जल्द से जल्द दोषियों को जेल की सलाखों के पीछे भेजना योगी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। बच्चों की ऐसी दर्दनाक मौतों पर सियासत करने वालों को भी कम से कम भगवान से तो डरना ही चाहिए।

यह है जापानी एनसेफेलाइटिस

गोरखपुर में दर्जनों मौत की वजह बना जापानी एनसेफेलाइटिस बुखार संक्रमित मच्छरों के काटने से होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस से संक्रांत पालतू सूअर और जंगली पक्षियों के काटने पर मच्छर संक्रांत हो जाते हैं। इसके बाद संक्रांत मच्छर पोषण के दौरान जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस काटने पर मानव और जानवरों में जाते हैं। जापानी एनसेफेलाइटिस के वायरस का संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं होता है। उदारहण के लिए आपको यह वायरस किसी उस व्यक्ति को छूने या चूमने से नहीं आ सकता जिसे यह रोग है या किसी स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी से जिसने किसी इस प्रकार के रोगी का उपचार किया हो। केवल पालतू सूअर और जंगली पक्षी ही जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस फैला सकते हैं।

बात इसके लक्षणों की कि जाये तो यह सिर दर्द के साथ बुखार को छोड़कर हल्के संक्रमण में और कोई प्रत्यक्ष लक्षण नहीं होता है। गंभीर प्रकार के संक्रमण में सिरदर्द, तेज बुखार, गर्दन में अकड़न, घबराहट, कोमा में चले जाना, कंपकंपीं, कभी−कभी ऐंठन (विशेष रूप से छोटे बच्चों में) और मस्तिष्क निष्क्रिय (बहुत ही कम मामले में), पक्षाघात होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस की संचयी कालवधि सामान्यतः 5 से 15 दिन होती है। इसकी मृत्युदर 0.3 से 60 प्रतिशत तक है।

इस बुखार की कोई विशेष चिकित्सा नहीं है। यह रोग अलग अलग देशों में अलग अलग समय पर होता है। क्षेत्र विशेष के हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले, वहां प्रतिनियुक्त सक्रिय ड्यूटी वाले सैनिक और ग्रामीण क्षेत्रों में घूमने वालों को यह बीमारी अधिक होती है। शहरी क्षेत्रों में जापानी एनसेफेलाइटिस सामान्यतः नहीं होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस के लिए भारत में निष्क्रिय मूसक मेधा व्युत्पन्न (इनएक्टीवेटेड माउस ब्रेन−डिराइव्ड जेई) जापानी एनसेफेलाइटिस टीका उपलब्ध है।

– अजय कुमार

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