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आने वाले 70 सालों में भी कश्मीर समस्या का हल मुश्किल

आजादी का जश्न मुझे अपने गृह−नगर में बिताए गए दिनों की याद दिला देता है। मैं कानून की डिग्री हासिल करने के बाद वकील बनने की तैयारी में था, लेकिन बंटवारे ने मेरी सारी योजना बिगाड़ दी। इसने मुझे वह जगह छोड़ने को मजबूर कर दिया, जहां मैं पैदा हुआ और मेरी परवरिश हुई। मैं जब भी इस बारे में सोचता हूं, यह एक उदासी भरी याद होती है।

लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि इससे हिंदुओं और मुसलमानों का संबंध ज्यादातर बेअसर रहा। मेरे पिताजी, जो चिकित्सक थे, ने जब भी सियालकोट छोड़ने की सोची, उन्हें रोक लिया गया। एक दिन उन्होंने लोगों को बिना बताए यात्रा का फैसला किया। वे लोगों की नजर में आए बगैर ट्रेन में चढ़ गए। कुछ देर बाद, पड़ोस के कुछ नौजवानों ने उन्हें पहचान लिया और उनसे आग्रह किया कि वे नहीं जाएं। मेरे पिताजी ने कहा कि वे सिर्फ अपने बच्चों से मिलने जा रहे हैं, जो पहले से दिल्ली में हैं और जल्द ही लौट आएंगे। लेकिन नौजवान हठ कर रहे थे कि वे यात्रा नहीं करें। कुछ समय में, वे मान गए और उन्होंने मेरे माता−पिता से एक दिन बाद उसी ट्रेन से जाने के लिए कहा। उन्होंने खुले तौर पर स्वीकार किया कि पास के नरोवाल ब्रिज पर इस ट्रेन के सभी यात्रियों की हत्या की योजना है।

और ऐसा हुआ। दूसरे दिन वे हमारे यहां आए और उन्होंने हमारे माता−पिता से कहा कि वे यात्रा कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि इसका इंतजाम किया गया है कि उनका सफर सुरक्षित रहे। उन्होंने न केवल मेरे बीमार माता−पिता को पैदल पुल पार करने में मदद की, बल्कि उन्हें सरहद पर अलविदा भी कहा।

मैं कुछ दिनों तक वहीं रूक गया था। मैंने वाघा जाने के लिए एक दूसरी सड़क वाला रास्ता लिया। एक ब्रिगेडियर, जिसका तबादला भारत में हो गया था, जाने से पहले, मेरे पिताजी से यह कहने आया था कि क्या वह कोर्इ मदद कर सकता है। मेरे पिताजी ने मेरी ओर देख कर ब्रिगेडियर से कहा था कि वह मुझे सरहद के पार ले जाए। मैंने सामानों से लदी एक जीप में पीछे बैठकर यात्रा की।

सियालकोट अमतृसर जाने वाली मुख्य सड़क से थोड़ा हट कर है। लेकिन, मैं यह देख कर भौंचक्का था कि यह सड़क सैंकड़ों लोगों से भरी हुई थी। एक छोटी सी धारा पाकिस्तान में प्रवेश कर रही थी और, हमारी, बड़ी धारा अमतृसर की ओर जा रही थी। एक चीज पक्की थी कि वापसी नहीं हो सकती थी। मैंने लाशों की बदबू महसूस की। लोग जीप को रास्ता दे देते थे।

एक जगह, लहराती दाढ़ी वाले एक बूढ़े सिख ने हमें रोका और हम से अपने पोते को उस पार ले जाने का आग्रह किया। मैंने उसे कहा कि मैंने अभी−अभी पढ़ाई पूरी की है और एक बच्चे को नहीं पाल सकता। उसने कहा कि इससे कोर्इ फर्क नहीं पडत़ा और आग्रह किया कि मैं उसे शरणार्थी शिविर में छोड़ दूं। सिख ने कहा कि वह जल्द ही शरणार्थी शिविर में अपने पोते के पास आ जाएगा। मैंने उसे मना कर दिया और आज भी उसका लाचार चेहरा मुझे परेशान करता है।

सियालकोट में, एक अमीर मुसलमान गुलाम कादर, ने अपने बंगले खोल दिए और मेरे पिता से कहा कि वे इसे तब तक अपने पास रखें, जब तक शहर में वह चीजें सुरक्षित महसूस न करें। बंगला खुद एक शरणार्थी शिविर बन गया और एक समय हम सौ लोग उसमें रहते थे। कादर हम सभी लोगों को राशन मुहैया करते थे और हमारा दूध वाला नियमित दूध पहुंचाता था।

जब मैंने सरहद पार की तो मेरे पास सिर्फ एक छोटा थैला था जिसमें एक जोड़ी कपड़ा और 120 रूपए थे जो मेरी मां ने दिए थे। लेकिन मेरे पास बीए (आनर्स) और एलएलबी की डिग्री थी और मुझे यकीन था कि मैं अपनी जिंदगी फिर से बना लूंगा। लेकिन मैं अपने पिता को लेकर चिंतित था कि उन्हें जालंधर में फिर से सब कुछ शुरू करना था। और, वह कम दिनों में बहुत लोकप्रिय हो गए और सुबह से शाम तक मरीज उन्हें घेरे रहते थे।

मैं दिल्ली चला आया, जहां दरियागंज में मेरी मौसी रहती थी। जामा मस्जिद काफी नजदीक था और मैं यहीं खाता था क्योंकि यहां बढ़िया मांसाहारी भोजन सस्ता मिलता था। वहीं मेरी किसी से मुलाकात हो गई जो मुझे उर्दू अखबार, अंजाम में ले गया। और इस तरह मैंने पत्रकारिता में अपना कैरियर शुरू किया। बाकी इतिहास है।

लेकिन मैं उस पर ज्यादा चर्चा करना नहीं चाहता। क्या बंटवारा जरूरी था क्योंकि इसने दोनों तरफ दस लाख लोगों की जान ली? वह कड़वापन जारी है और वे अभी भी दुश्मनी के साथ जीते थे। भारत और पाकिस्तान तीन युद्ध, 1965, 1971 और 1999 में, लड़ चुके हैं। आज भी सीमा दुश्मनी से भरी है और सशस्त्र सैनिक गोली चलाने के लिए हरदम तैयार रहते हैं।

हमने आजादी का 70वां दिवस मना लिया है। लेकिन सीमा पर नरमी, जिसकी मैंने कल्पना की थी, के बदले कंटीले तार हैं और हर समय गश्त जारी रहती है। लंबी सीमा पर सरगर्मी कभी कम नहीं होती। दोनों देशों के बीच कोर्इ बातचीत नहीं है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि इस्लामाबाद से बातचीत नहीं हो सकती क्योकि वह घुसपैठियों को प्रोत्साहित करता है।

पाकिस्तान कहता है कि वे इसके हिस्सेदार नहीं हैं और घुसपैठियों की गतिविधियों पर उसका कोर्इ नियंत्रण नहीं है। इसलिए दोनों पड़ोसी देश अभी भी एक दूसरे से दूर हैं, बिना संपर्क के। वीजा पाना बहुत कठिन हो गया है। दोनों तरफ, रिश्तेदार और दोस्त असली पीड़ित हैं।

पाकिस्तान किसी तरह के संबंध के पहले कश्मीर की समस्या का समाधान चाहता है। कश्मीर खुद एक लंबी कहानी है क्योंकि बंटवारे का फार्मूला सिर्फ भारत और पाकिस्तान को मान्यता देता है। कश्मीर घाटी की आजादी, जो वहां के लोग चाहते हैं, पर फिर से विचार और इसके बारे में सोचने के लिए इसमें कोर्इ प्रावधान नहीं है। वास्तविकता है कि अपना लक्ष्य पाने के लिए उन्होंने बंदूक उठा लिए हैं।

हाल ही में, मैं उनमें से कुछ से श्रीनगर में मिला और पाया कि वे घाटी को आजाद इस्लामिक राष्ट्र बनाने का हठ किए हैं। वे इस पर कितनी भी दलील को स्वीकार नहीं करते कि यह संभव नहीं है। मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कश्मीर को आजादी देने के किसी प्रस्ताव पर हमारी संसद विचार करेगी। पाकिस्तान मानता है कि यह उसके लिए जीवन−रेखा है।

इसलिए, मैं आगे आने वाले 70 सालों में भी समस्या का कोर्इ हल नहीं देख पाता हूं, उतना ही समय जो एक दूसरे पर गोली चलाने में हमने बर्बाद कर दिया है। पहली चीज होनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ में दी गई याचिका वापस ली जाए और पाकिस्तान को आश्वस्त किया जाए कि भारत इस्लमाबाद के साथ शांति और अच्छे संबंध चाहता है। शायद दोनों तरफ के मीडिया प्रमुख आमने−सामने बैठें और कोई ठोस प्रस्ताव तैयार करें, अगर यह संभव है।

-कुलदीप नायर

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अभिशाप है अनुच्छेद 35-ए, इसे हटाने का यही है सही वक्त

जम्मू-कश्मीर में अशांति का सबसे बड़ा कारण धारा 370 एवं अनुच्छेद 35-ए है। इन्हीं दोनों के कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा हासिल है, जिसकी आड़ में कश्मीरी अलगाववादी पाकिस्तान की शह पर कश्मीरी नौजवानों को बरगलाकर कश्मीर की आजादी के नाम पर उग्रवाद की ओर धकेल रहे हैं। देश का हित चाहने वाले जम्मू-कश्मीर सहित देशभर के लोगों को मोदी सरकार से उम्मीद है कि वह कड़ा कदम उठाकर धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर में धारा 370 एवं 35-ए हटाकर शांति बहाली और उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगी। दरअसल धारा 370 एवं अनुच्छेद 35-ए की आड़ में दो क्षेत्रीय पार्टियों के नेता लोगों की भावनाओं को भड़का कर अर्धदशक से भी ज्यादा समय से प्रदेश में जमे हुए हैं और प्रदेश विकास की दौड़ में सम्पूर्ण भारत से बहुत पीछे छूट गया है।
अनुच्छेद 35-ए की आड़ में तो जम्मू-कश्मीर की लड़कियों का ही नहीं बल्कि भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से आये शर्णार्थियों से भी भेदभाव किया जाता रहा है। संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी कानून या संविधान संशोधन संसद के दोनों सदनों में पारित किये बिना लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन कहा जाता है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रपति के विशेष आदेश से इसे जम्मू-कश्मीर में लागू करवा दिया था, जिसका दंश दशकों बाद भी जम्मू-कश्मीर की लड़कियों और वहां की जनता को झेलना पड़ रहा है। अब जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो न्याय की उम्मीद की जा सकती है।

भाजपा के कई प्रवक्ता और नेताओं का इस पर स्पष्ट रूख है कि भेदभाव करने वाला कोई भी कानून या प्रथा समाप्त होनी चाहिए और यही स्टैंड उनका तीन तलाक के मामले पर भी है। धारा 370 एवं 35-ए के मामले में जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला असमंजस में हैं और उन्हें लगता है कि केन्द्र की भाजपानीत सरकार सुप्रीम कोर्ट में इसे समाप्त करने की वकालत कर सकती है और इसी वजह से महबूबा मुफ्ती एवं फारूक अब्दुल्ला दिल्ली में लॉबिंग कर रहे हैं और महबूबा मुफ्ती तो यहां तक कह गईं कि यदि ऐसा हुआ तो कोई भारत का तिरंगा झंडा जम्मू-कश्मीर में कोई नहीं उठायेगा लेकिन जब जम्मू-कश्मीर में सैन्य बलों पर वहां के स्थानीय नागरिक पत्थरबाजी करते हैं तो वह खामोश रहती हैं। दरअसल इस सबका सबसे ज्यादा फायदा दशकों से अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार उठाता आ रहा है और उन्हें, उनकी पार्टियों और अलगाववादियों को ही इससे तकलीफ है। यही फारूक अब्दुल्ला कश्मीरी जनता के प्रतिनिधि के तौर पर केवल 7 प्रतिशत वोट पड़ने के बावजूद सांसद बन गये हैं और भारत सरकार की सारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। दरअसल कश्मीर की जनता भी अपने इन नेताओं के ऊपर से भरोसा खो चुकी है। इसलिए दोनों ही पार्टियां समय-समय पर अलगाववादियों के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर में अपने निजी एजेंडे के तहत जनता को उकसा कर अपना हित साधती रही हैं। अत: इस आशंका मात्र से कि यह धारा हटने से उनकी राजनैतिक विरासत खतरे में पड़ जायेगी, दोनों ही पार्टियों के नेता विपक्ष के साथ लॉबिंग में जुट गये हैं ताकि भाजपा पर दबाव बनाया जा सके। दोनों ही पार्टियों के नेता कश्मीर की जनता को भड़काने वाले बयान दे रहे हैं।

कानून-व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है और सैन्य बलों की संभावित तैनाती भी राज्य सरकार की सहमति से ही होती है। आजकल कश्मीर से इस प्रकार की खबरें आनी शुरू हुई हैं कि सैन्य बलों के साथ मुठभेड़ों में मरने वाले आतंकवादियों के जनाजे में बड़े-बड़े ईनामी आतंकवादी हथियारों का प्रदर्शन करते हुए खुलेआम शामिल हो रहे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसकी स्थानीय प्रशासन और विशेषकर पुलिस को जानकारी होगी ही, लेकिन उनका मूक समर्थन उन्हें हासिल है और यही कारण है कि जब सैन्य बलों को आतंकवादियों के छुपने का पता चलता है और मुठभेड़ शुरू होती है तो पत्थरबाजों की भीड़ इसमें बाधा डालने का प्रयास करती है। उग्रवाद के चरम दौर में भी ऐसी स्थिति नहीं थी।

दरअसल 1947 में बंटवारे के दौरान पाकिस्तान से लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत आए थे। यह लोग देश के कई हिस्सों में बस गये थे और आज वहीं के नागरिक बन चुके हैं। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, चेन्नई, उत्तर प्रदेश या जहां कहीं भी यह लोग बसे, आज वहीं के स्थायी निवासी बन गये हैं। जम्मू-कश्मीर में कई दशक पहले बसे यह लोग आज भी शरणार्थी ही कहलाते हैं और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित हैं। 1947 में हजारों लोग पश्चिमी पकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे। इन हिंदू परिवारों में लगभग 80 प्रतिशत दलित थे। आज भी इन्हें न तो स्थानीय चुनावों में वोट डालने का अधिकार है, न सरकारी नौकरी पाने का और न ही सरकारी कॉलेजों में दाखिले का अधिकार दिया गया है।
यह स्थिति सिर्फ पश्चिमी पकिस्तान से आए इन हजारों परिवारों की ही नहीं बल्कि लाखों अन्य लोगों की भी है। इनमें गोरखा समुदाय के वह लोग भी शामिल हैं जो बीते कई सालों से जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं। इनसे भी बुरी स्थिति वाल्मीकि समुदाय के उन लोगों की है जो 1957 में यहां बसाये गये थे। उस समय इस समुदाय के करीब 250 परिवारों को पंजाब से जम्मू-कश्मीर बुलाया गया था। इन्हें विशेष तौर से सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त करने के लिए यहां लाया गया था। बीते 60 सालों से यह लोग यहां सफाई का काम कर रहे हैं। लेकिन इन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता है। इनके बच्चों को सरकारी व्यावसायिक संस्थानों में दाखिला नहीं दिया जाता है और किसी तरह अगर कोई बच्चा किसी निजी संस्थान या बाहर से पढ़ भी जाए तो यहां उन्हें सिर्फ सफाई कर्मचारी की ही नौकरी मिल सकती है।

जम्मू-कश्मीर में रहने वाले ऐसे लाखों लोग भारत के नागरिक तो हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता है। यह लोग लोकसभा के चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर में पंचायत से लेकर विधानसभा तक किसी भी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं दिया गया है। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि यह लोग भारत के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन जिस राज्य में कई सालों से रह रहे हैं वहां के ग्राम प्रधान भी नहीं बन सकते।

दरअसल तत्कालीन सरकार के प्रस्ताव पर 14 मई, 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति के एक आदेश के जरिये भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35-ए जोड़ दिया गया है। यही आज लाखों लोगों के लिए अभिशाप बन चुका है। अनुच्छेद 35-ए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा तय कर सके और उन्हें चिन्हित कर विभिन्न विशेषाधिकार भी दे सके। इसी अनुच्छेद से जम्मू और कश्मीर की विधानसभा ने कानून बनाकर लाखों लोगों को शरणार्थी मानकर हाशिये पर धकेल रखा है ताकि उनकी राजनीति पर कोई आंच न आये।
भारतीय संविधान की बहुचर्चित धारा 370 जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार देती है। 1954 के जिस आदेश से अनुच्छेद 35-ए को संविधान में जोड़ा गया था, वह आदेश भी अनुच्छेद 370 की उपधारा (1) के अंतर्गत ही राष्ट्रपति द्वारा पारित किया गया था। इसे मुख्य संविधान में नहीं बल्कि परिशिष्ट (अपेंडेक्स) में जोड़ा गया है ताकि इसकी संवैधानिक स्थिति का पता ही न चल सके। भारतीय संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ देना सीधे-सीधे संविधान को संशोधित करना है। अनुच्छेद 35-ए दरअसल अनुच्छेद 370 से ही जुड़ा है और इस बार मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सरकार भी अपना पक्ष रखने वाली है और उम्मीद है कि सरकार इसकी समाप्ति का समर्थन करेगी लेकिन फिलहाल अटार्नी जरनल वेणुगोपाल ने कोर्ट में कहा है कि केन्द्र सरकार इस पर कोई हलफनामा दायर नहीं करना चाहती, क्योंकि इस पर विस्तृत बहस की जरूरत है और इसे बड़ी बेंच के पास भेजा जाना चाहिए क्योंकि इसमें संवैधानिक मुद्दे जुड़े हैं, जिसके बाद मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय बेंच सुनवाई कर रही है।

भारतीय जन संघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 के खिलाफ लड़ाई लड़ने का बीड़ा उठाया था और उन्होंने इस लड़ाई को आगे ले जाने के लिए 1951 में भारतीय जन संघ की स्थापना की थी। बाद में 1980 में इसका नाम बदलकर भारतीय जनता पार्टी रख दिया गया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस संवैधानिक प्रावधान के खिलाफ़ थे और उन्होंने कहा था कि इससे भारत छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट रहा है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1953 में भारत प्रशासित कश्मीर के दौरे पर गए थे और वहां कानून लागू था कि भारतीय नागरिक जम्मू-कश्मीर में नहीं बस सकते और वहां प्रवास के दौरान उन्हें अपने साथ पहचान पत्र रखना जरूरी था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तब इस क़ानून के खिलाफ भूख हड़ताल की थी। वह जम्मू-कश्मीर जाकर अपनी लड़ाई जारी रखना चाहते थे लेकिन उन्हें जम्मू-कश्मीर के भीतर घुसने तक नहीं दिया गया था और अंतत: उन्हें नेहरू और शेख अब्दुल्ला के इशारे पर गिरफ्तार कर लिया गया था। 23 जून 1953 को हिरासत के दौरान ही उनकी संदिग्ध अवस्था में मौत हो गई थी।

प्रवास के दौरान पहचान पत्र रखने के प्रावधान को बाद में कानूनन रद्द कर दिया गया। लेकिन तब से लेकर अब तक भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता और स्वयंसेवक लगातार कहते आये हैं कि भाजपा की सरकार बनने पर धारा 370 समाप्त होगी। पहले मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की अगुवाई में सरकार बनी थी, तब इस पर कोई विचार ही नहीं हुआ और फिर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 14 दलों की सरकार बनने पर भी इस पर कुछ नहीं हो सका, लेकिन इस बार धारा 370 एवं 35-ए के प्रावधानों से त्रस्त लोगों को उम्मीद बंधी है कि भाजपा नेतृत्व जम्मू-कश्मीर पर कोई भी फैसला करने में सक्षम है और अब तो संसद के दोनों ही सदनों में भाजपा को पूर्ण बहुमत हासिल है और वह कोई भी निर्णय लागू करने में पूरी तरह सक्षम है, जिसे राज्य में कठोरता से लागू किया जा सकता है। आज जम्मू-कश्मीर जिस स्थिति में है और सुरक्षा बल विकट स्थिति से जूझ रहे हैं, उससे ज्यादा खराब हालात होने की उम्मीद नहीं की जा सकती और यदि हालात बिगड़ने के डर से कोई कानून लागू करने में सरकार खुद को अक्षम पाती है तो फिर जम्मू-कश्मीर ही नहीं देश के दूसरे हिस्सों में भी स्थिति बिगड़ने के अंदेशे से कोई कानून लागू ही नहीं किया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले पर गंभीर रूख अपना सकता है। सुप्रीम कोर्ट सर्वथा सर्वशक्तिमान है और जैसा कि उन्होंने ज्यूडिशियल एकांऊटेबलिटी बिल मामले में साबित किया है। सुप्रीम कोर्ट जब एक ऐसे कानून को रद्द कर सकता है जो दोनों सदनों से पास होकर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से कानून बन चुका है तो इस प्रकार के जनहित के मामले पर कड़ा रूख अपनाकर भी यह संदेश दे सकता है कि भारत एक है और इसका संविधान भी एक है तो फिर जम्मू-कश्मीर में ही नागरिकों से भेदभाव क्यों हो?

-सोनिया चोपड़ा

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लेख

अंसारी साहब आपने कुछ प्रेरणा डॉ. कलाम से ही ले ली होती

देश के शीर्षस्थ पदों में से एक उपराष्ट्रपति पद पर विराजमान रहे हामिद अंसारी ने अपनी विदाई के समय जो बात कही है, वह किस हद तक सही है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन ऐसा बोल कर उन्होंने संकुचित मानसिकता का परिचय दिया है। उनकी बातों से ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह देश के उपराष्ट्रपति होते हुए भी केवल अल्पसंख्यक वर्ग के ही प्रतिनिधि बन कर रह गए। हो सकता है कि देश के अल्पसंख्यक वर्ग ने उनको यह परेशानी की बातें बताई हों, लेकिन यह भी सत्य है कि उपराष्ट्रपति पद पर रहने के बाद उनको केवल एक पक्ष की बात सुनकर ही मत व्यक्त नहीं करना था। वे उपराष्ट्रपति पद पर रहे, उन्हें पूरे देश की वास्तविकता की पूरी जानकारी रही भी होगी। उन्होंने ऐसा बोलकर उपराष्ट्रपति जैसे पद का भी सम्मान नहीं किया। हामिद अंसारी ने लगभग वैसा ही बयान दिया है, जैसा राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के दिया जाता है। हामिद अंसारी ने पूरे देश की चिन्ता की बात न करते हुए केवल अल्पसंख्यक समुदाय की बात कहकर एक प्रकार से दो साल से दबे विचार को प्रकट कर दिया।

भारत ने उनको दूसरे नंबर का सबसे महत्वपूर्ण पद प्रदान करके उनको सम्मान दिया। वे केवल एक बार नहीं, बल्कि दो बार देश उपराष्ट्रपति पद पर विराजमान रहे। हम जानते हैं कि हमारे देश में कलाम साहब भी एक मुसलमान थे और वे राष्ट्रपति पद पर विराजमान रहे, लेकिन उन्होंने ऐसा काम किया कि वे पूरे देश के हो गए। उन्हें पूरा देश दिखाई देता था। उनकी वाणी भारत की वाणी थी, वे जब भी युवाओं से कोई बात कहते थे तो उनकी दृष्टि में समानता का भाव रहता था। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का कोई भेद नहीं था। उन्होंने पूरे देश को सम्मान दिया, इसलिए देश ने भी उनको भारत रत्न जैसा ही सम्मान दिया। सवाल यह आता है कि हामिद अंसारी पूरे देश के होते हुए भी पूरे देश के नहीं हो पाए। देश का बहुत बड़ा वर्ग आज उनकी बात पर प्रतिक्रिया दे रहा है। वास्तव में उन्हें पूरे देश की जनता की चिन्ता समान रुप से करनी चाहिए, लेकिन उनकी नजर में पहले भी और बाद में भी संकुचन का भाव दिखाई दिया। हम जानते हैं कि उपराष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी उन्होंने देश भाव को प्रधानता नहीं दी। वंदेमातरम नहीं गाया, विजयादशमी के कार्यक्रम में आरती की थाली लेने से इंकार कर दिया, इतना ही नहीं वे राष्ट्र के मूल सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता को भी नहीं अपना सके। वर्तमान में भले ही धर्मनिरपेक्षता को एक ही वर्ग के तुष्टिकरण करने के भाव के साथ देखा जाता हो, लेकिन यह सही है कि धर्मनिरपेक्षता में सभी धर्मों को समान भाव से देखे जाने का प्रावधान है।

हो सकता है कि हामिद अंसारी ने जो कहा है वह सही हो, लेकिन सवाल यह आता है कि यह असुरक्षा कहीं न कहीं मुसलमान समाज ने ही खड़ी की है। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को वास्तव में यही कहना चाहिए था कि देश का मुसलमान, हिन्दुओं की पूज्य गौमाता का वध नहीं करे। आज वे अल्पसंख्यकों के असुरक्षित होने की बात कर रहे हैं, जबकि सत्य यह है कि व्यक्ति अपने कार्यों के चलते ही सुरक्षा और असुरक्षा का वातावरण निर्मित करता है।

खैर अब हामिद अंसारी उपराष्ट्रपति के पद से मुक्त भी हो गए हैं, अब उनके पास पूरा समय भी है। उन्हें देश की स्थिति का ज्ञान भी है। जाते जाते जो चिंता उन्होंने व्यक्त की है, उसे दूर करने के उपाय भी करना चाहिए। लेकिन उन्हें यह भी ध्यान में रखना होगा कि उनकी नजर में भारत की दृष्टि होनी चाहिए। एक समुदाय की नहीं। जब वे एक समुदाय की भावना को जानकर भाव व्यक्त करेंगे तो स्वाभाविक रुप से सवाल भी उठेंगे। फिर उन सवालों का जवाब किस प्रकार से दे पाएंगे, यह सोचने की बात है।

वास्तव में हामिद अंसारी ही नहीं बल्कि देश के अंदर ऐसा वातावरण बनता हुआ दिखाई दे रहा, जिसमें समाधान की बात नहीं है, समस्याएं खड़ी करना हमारे देश की नियति सी बन गई है। देश का पूरा समाज राजनीतिक और संवैधानिक नेतृत्व से ऐसी आशा लगाए बैठा है, जो समस्या का समाधान प्रस्तुत करे। हामिद अंसारी से यही आशा थी कि वे समस्या का समाधान प्रस्तुत करते, लेकिन वे तो समस्या खड़ी करके चले गए। एक ऐसी समस्या जो तुष्टिकरण के भाव को पैदा कर सकती है। वास्तव में तुष्टिकरण का भाव किसी भी समाज का सांत्वना दे सकता है, स्थायी समाधान नहीं बन सकता। जब उपराष्ट्रपति पद पर बैठने वाला व्यक्ति समाधान नहीं बता सकता तो किससे उम्मीद की जाए। अब समस्या नहीं, समाधान का काल है। जनता के सामने समस्याओं का अंबार है। जिसका अंत करने में पूरा देश लगा है, हामिद अंसारी को भी समाधान के मार्ग पर कदम बढ़ाना चाहिए था। सही समय की मांग है और राष्ट्र की आवश्यकता भी है।

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लेख

अनुच्छेद 35 ए के हटने के भय से बेचैन हो रहे हैं कश्मीरी नेता

स्वस्थ लोकतंत्र में वैचारिक संघर्ष, बहस तथा नीतिगत विरोध एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि ऐसा न हो तो संसदीय शासन प्रणाली गूंगी-बहरी गुड़िया से अधिक कुछ भी नहीं किंतु जब से केन्द्र में नरेन्द्र भाई मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी है, तब से विपक्षी दलों के नेता जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह किसी भी तरह राष्ट्र अपमान की भाषा से कम नहीं। सरकार की नीतियों के विरोध का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि देश से लोकतंत्र की जड़ें ही खोद डाली जाएं या शत्रुओं की तरफ खड़े होकर देश पर पत्थर फैंके जाएं या फिर ऐसा करने वालों के समर्थन में आवाज उठाई जाए और उसे आजादी का नाम दिया जाए!

जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि यदि कश्मीर से धारा 35 ए हटी तो जिस तिरंगे को हमारे आदमी उठाते हैं, उस तिरंगे को कश्मीर में कोई कांधा देने वाला नहीं मिलेगा। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला कह रहे हैं कि भारत की पूरी सेना मिलकर भी आतंकवादियों से हमारी रक्षा नहीं कर सकती। यह तो तब है जब हुर्रियत के बड़े नेता देश के खिलाफ प्रच्छन्न युद्ध लड़ने वालों को धन पहुंचाने के आरोप में सलाखों के पीछे जा चुके हैं तथा एनआईए इस घिनौने अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र के काफी बड़े हिस्से का पर्दा फाश कर चुकी है। जिस 35 ए के हटने के भय से कश्मीरी नेता इतने बेचैन हुए जा रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि कश्मीर की सारी समस्या की जड़ यही धारा है जिसे जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से अध्यादेश के माध्यम से संविधान संशोधन के रूप में लागू करवाया और जिसे संसद ने आज तक स्वीकृति नहीं दी। इसी धारा ने कश्मीर को भारत रूपी समुद्र में एक स्वायत्तशासी टापू में बदल दिया जो भारत के संविधान से मुक्त रहकर, भारत के चीनी, चावल, पैट्रोल और सीमेंट को मजे से जीम रहा है। इसी धारा की आड़ में कश्मीरी नेता दिल्ली आकर आलीशान बंगलों में रहते हैं और आम भारतीय, काश्मीर में झौंपड़ा तक नहीं खरीद सकता। अब मुफ्ती तथा अब्दुल्ला को इस धारा के हटने का भय सता रहा है।

पीडीपी, नेशनल कान्फ्रेन्स तथा हुर्रियत के नेताओं द्वारा लगाई गई इस आग में घी डालने का काम राहुल गांधी, मणिशंकर अय्यर, संदीप दीक्षित और उनके बहुत से साथी बहुत सफलता से कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि प्रधानमंत्री अपने फायदे के लिए कश्मीरी लोगों का खून बहा रहे हैं तो कोई पाकिस्तान में जाकर कह रहा है कि पाकिस्तान, नरेन्द्र मोदी की सरकार गिराकर कांग्रेस की सरकार बनवा दे। विनोद शर्मा जैसे पत्रकार भी हुर्रियत के नेताओं से गलबहियां मिलते हुए देखे गए हैं। ममता बनर्जी तो कंधे पर तृणमूल का झण्डा लेकर, भारत को जनता द्वारा भारी बहुमत से चुनी गई सरकार से मुक्त करने के मिशन पर निकली ही हुई हैं, हालांकि वे इस मिशन का उद्देश्य भारत को बीजेपी से मुक्त कराना बता रही हैं।

जनता दल यू के शरद यादव भी इन दिनों काफी बेचैन हैं। राजद के लालू यादव सारी मर्यादाएं भूलकर देश के प्रधानमंत्री के विरुद्ध ऐसा अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं जो राष्ट्रीय अपमान की सीमाओं को स्पर्श करता है। कम्यूनिस्टों का हाल ये है कि वे भारतीय सेना को चीनी हमले से भयभीत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे। संभवतः उनके मन में ये है कि भारत भयभीत होकर साम्यवादी चीन के कॉमर्शियल कॉरीडोर के नाम पर बन रहे मिलिट्री कॉरीडोर को बन जाने दे। विभिन्न विपक्षी दलों के इन नेताओं को क्यों यह समझ में नहीं आता कि देश की जनता को अधिक समय तक गुमराह नहीं किया जा सकता। देर-सबेर ही सही, जनता तक सच पहुंच ही जाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह आयकर विभाग मीसा भारती, तेज प्रताप तथा तेजस्वी यादव की छिपी हुई सम्पत्तियों तक पहुंच गया है और एनआईए हुर्रियत नेताओं को पकड़कर सलाखों के पीछे खींच ले गई है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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करन थापर और बरखा दत्त को हटाने का बहुत दबाव रहा होगा

मैं अपने पसंदीदा टेलीविजन एंकर करन थापर और अभी हाल में, बरखा दत्त को बेकार ही ढूंढ रहा था। मुझे बताया गया कि उन्हें हटा दिया गया है। यह अनुमान का विषय है कि किसने ऐसा किया। कुछ लोग कहते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार का दबाव है, जबकि कुछ लोगों का रोना है कि यह चैनल के मालिकों का काम है। ऐसा जिसने भी किया हो, उसने सेंसरशिपकर्ता की तरह व्यवहार किया है।

मुझे आश्चर्य इस बात का है कि कोई विरोध नहीं है। हमारे समय में, यह बताने के लिए शोर मचता था या बैठक होती थी कि प्रेस का मुंह बंद किया गया है या आलोचना को चुप कराया गया है। बेशक, उस समय की बात दूसरी है जब आपातकाल लगाया गया था। लेकिन इसके पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी प्रेस के खिलाफ कदम उठाने की हिम्मत नहीं करती थीं। वह समर्थक ढूंढती थीं− जो पर्याप्त संख्या में थे− लेकिन आलोचकों की संख्या भी बड़ी थी।

मुझे याद है कि 1975−77 में आपातकाल लगाने के बाद उन्होंने विजयी भाव से कहा था कि एक कुत्ता भी नहीं भौंका। इससे मैं और दूसरे कई लोग आहत थे। हम लोग प्रेस क्लब में जमा हुए−सख्ंया 103 की थी और हमने सेंसरशिप की आलोचना का प्रस्ताव पारित किया। सूचना मंत्री वीसी शुक्ला, जो मुझे जानते थे, ने चेतावनी देने के लिए मुझे फोन किया ”तुममें से हर एक को जेल में बंद कर दिया जाएगा”। सच में ऐसा हुआ और मुझे भी तीन महीने के लिए हिरासत में रखा गया।

मेरी आंखों के सामने वही समय आ गया जब तसलीमा नसरीन ने कहा कि ”दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विरोध की बहुत कम आवाज सुनाई देती है”। कोलकता छोड़ने के बाद उन्हें औरंगाबाद की सीमा में रोक कर रखा गया। वह बांग्लादेश की हैं और कट्टरपंथियों ने उन्हें बाहर खदेड़ दिया क्योंकि उन्होंने अपने देश में कट्टरपंथियों के हाथों हिंदू औरतों की दुर्दशा की कहानी बताने वाली ‘लज्जा’ नाम की किताब लिखी।

यह भारतीय लोकतंत्र के लिए कलंक है कि वह अपने पसंद के शहर में नहीं रह सकतीं। मुझे बताया गया कि कुछ दिन पहले उन्हें औरंगाबाद वापस भेज दिया गया। मैं इस घटना की चर्चा को आगे खींचना नहीं चाहता, लेकिन मेरे दिमाग में जो बात है वह है हमारे लोकतंत्र पर खतरा।

आपातकाल बिना लगाए, आपातकाल जैसी स्थिति रह सकती है। आरएसएस विभिन्न शिक्षण सस्ंथानों के उदारवादी प्रमुखों को उनके पद से हटाने में सफल रही है। मैंने नेहरू मेमोरियल सेंटर के मामले को देखा तो यह पाकर भयभीत हो गया कि जाने−पहचाने उदारवादी चेहरे गायब हो गए हैं। सच है, भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के शब्द अंतिम हैं। लेकिन वे लोगों के पास इस पर वोट मांगने नहीं गए थे। यह उनके एजेडें पर भी नहीं था।

फिर भी, तसलीमा नसरीन का मामला है जो अस्पष्ट है। औरंगाबाद के हवाई अड्डे को छो़ड़ कर किसी भी हवाई अड्डे, नजदीक के पुणे हवाई अड्डे में भी, उन्हें दाखिल नहीं होने दिया गया। जाहिर है, सरकार ने यह निर्देश दिया होगा कि उन्हें बाकी जगहों में अदंर नहीं लिया जाए। यह सब ‘सैटनिक वर्सेस’ किताब, जिसने इस्लाम के खिलाफ सवाल उठाए हैं, लिखने के लिए सलमान रूश्दी के खिलाफ इरान के फतवे जैसा मालूम होता है। भारतीय राष्ट्र को हरदम चौकन्ना रहना है क्योंकि वह 19 महीने की सेंसरशिप से गुजर चुका है। प्रेस ने अति कर दी थी क्योंकि, जैसा भाजपा के एलके आडवाणी ने कहा, आपको झुकने के लिए कहा गया था लेकिन आप तो ”रेगं गए”। बहुत हद तक, आडवाणी सही थे। पत्रकार इंदिरा गांधी सरकार की ओर से अदालती मुकदमों में घसीटे जाने से डरे हुए थे। यहां तक कि प्रेस का रखवाला, प्रेस कौंसिल आफ इंडिया भी इंदिरा गांधी के समर्थन में झंडा उठाने में उनके समर्थकों से स्पर्धा कर रहा था।

आज यह मामला उलटा है। प्रेस का भगवाकरण कर दिया गया है और अखबार या टीवी चैनलों में कुछ अलग आवाजों को छोड़कर, प्रेस सत्ता में बैठे लोगों के इशारे पर नाचता है। पहले और आज में बहुत कम अंतर है क्योंकि अखबार या टेलीविजन चैनलों के मालिक और पत्रकारों के दिमाग में अपना अस्तित्व बचाने की बात सबसे ऊपर रहती है।

एनडीटीवी दबाव में है क्योंकि इसके मालिक प्रणव राय ने एक कर्ज लिया था। लेकिन सीबीआई ने आरआरपीआर होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड, प्रणय राय और उनकी पत्नी राधिका राय और आईसीआईआसीआर्इ बैंक के एक अज्ञात कर्मचारी के खिलाफ साजिश, धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार का मामला दर्ज कर दिया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह सरकार के इशारे पर हुआ है।

टेलीविजन चैनल से लंबे समय तक जुड़े रहने के कारण, सरकार करन थापर और बरखा दत्त को परेशान करने के लिए कुछ तरीका अपना सकती है। वे सबसे ज्यादा खुलकर पीड़ित लोगों की बात उठाने वाले एंकर थे। जाहिर है कि यह सत्ता प्रतिष्ठान के पसंद का नहीं था। उन दोनों को हटाने के लिए चैनल बहुत दबाव में रहा होगा।

हम किस तरह स्वतंत्रता का माहौल वापस लाएं? आज राष्ट्र के सामने यही सवाल है। पत्रकारों के सिर पर कांट्रैक्ट की तलवार लटके होने के कारण वे अपनी बात रखने में डरते हैं कि मालिक नाराज न हो जाएं। आखिरकार, राष्ट्र को वही खबर मिल रही है जो विभिन्न दबावों तथा बाधाओं के कारण विभिन्न जगहों से छन कर आती हैं।

अमेरिका में ऐसी स्थिति आई थी तो पत्रकार इकट्ठा हो गए और अपना चैनल शुरू कर दिया। यह एक प्रकार का साहस था क्योंकि आखिरकार इतने लोग आलोचना के दायरे से बाहर हो गए और छोड़ देने की प्रवृत्ति काफी बढ़ गई। संसाधन की बुरी तरह कमी महसूस की गई और आजादी से समझौता करना पड़ा।

करन थापर और बरखा दत्त दोनों को दिमाग में रखना होगा कि उनकी यात्रा लंबी और कठिनाइयों से भरी होगी। उन्हें अपनी तरफ फुसलाने के लिए सत्ता लालच देगा। लेकिन यह उन पर है कि वे बियावान में कठिनाइयां सह पाते हैं। यह आसान नहीं है, लेकिन वे अपने चरित्र के बल पर ऐसा कर सकते हैं। उन्हें मेरा समर्थन है, यह उनके जितने भी काम का हो। वे साहस के उदाहरण हैं। अब सब कुछ उनकी ताकत और प्रेस से मिले समर्थन पर निर्भर है। सिर्फ मीडिया नहीं, बल्कि सारा देश उनकी ओर देख रहा है।

आपातकाल के समय जो हुआ, शायद अब वैसा न हो। उस समय प्रेस बुरी तरह फेल हुई। लेकिन मिलकर हम कामयाब हो सकते हैं।

– कुलदीप नायर

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बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से पहले बेटों को संस्कारों का पाठ पढ़ाओ

“मुझे मत पढ़ाओ, मुझे मत बचाओ, मेरी इज्जत अगर नहीं कर सकते, तो मुझे इस दुनिया में ही मत लाओ। मत पूजो मुझे देवी बनाकर तुम, मत कन्या रूप में मुझे ‘माँ’ का वरदान कहो, अपने अंदर के राक्षस का पहले तुम खुद ही संहार करो।” एक बेटी का दर्द। चंडीगढ़ की सड़कों पर जो 5 अगस्त की रात को हुआ वो देश में पहली बार तो नहीं हुआ। और ऐसा भी नहीं है कि हम इस घटना से सीख लें और यह इस प्रकार की आखिरी घटना ही हो। बात यह नहीं है कि यह सवाल कहीं नहीं उठ रहे कि रात बारह बजे दो लड़के एक लड़की का पीछा क्यों करते हैं, बल्कि सवाल तो यह उठ रहे हैं कि रात बारह बजे एक लड़की घर के बाहर क्या कर रही थी।

बात यह भी नहीं है कि वे लड़के नशे में धुत्त होकर एक लड़की को परेशान कर रहे थे, बात यह है कि ऐसी घटनाएं इस देश की सड़कों पर आए दिन और आए रात होती रहती हैं। बात यह नहीं है कि इनमें से अधिकतर घटनाओं का अंत पुलिस स्टेशन पर पीड़ित परिवार द्वारा न्याय के लिए अपनी आवाज़ उठाने के साथ नहीं होता। बात यह है कि ऐसे अधिकतर मामलों का अन्त पीड़ित परिवार द्वारा घर की चार दीवारी में अपनी जख्मी आत्मा की चीखों को दबाने के साथ होता है। बात यह नहीं है कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में न्याय के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है, बात यह है कि इस देश में अधिकार भी भीख स्वरूप दिये जाते हैं।

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा पहलू यह है कि वर्णिका कुंडु जिन्होंने रिपोर्ट लिखवाई है, एक आईएएस अफ्सर की बेटी हैं, यानी उनके पिता इस सिस्टम का हिस्सा हैं। जब वे और उनके पिता उन लड़कों के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाने के लिए पुलिस स्टेशन गए थे तब तक उन्हें नहीं पता था कि वे एक राजनैतिक परिवार का सामना करने जा रहे हैं लेकिन जैसे ही यह भेद खुला कि लड़के किस परिवार से ताल्लुक रखते हैं तो पिता को यह आभास हो गया था कि न्याय की यह लड़ाई कुछ लम्बी और मुश्किल होने वाली है। उनका अंदेशा सही साबित भी हुआ।

न सिर्फ लड़कों को थाने से ही जमानत मिल गई बल्कि एफआईआर में लड़कों के खिलाफ लगी धाराएँ भी बदल कर केस को कमजोर करने की कोशिशें की गईं। जब उनके साथ यह व्यवहार हो सकता है तो फिर एक आम आदमी इस सिस्टम से क्या अपेक्षा करे? जब एक आईएएस अफ्सर को अपने पिता का फर्ज निभाने में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है तो एक साधारण पिता क्या उम्मीद करे? वर्णिका के पिता ने तो आईएएस लाबी से समर्थन जुटा कर इस केस को सिस्टम वर्सिस पालिटिक्स करके इसके रुख़ को बदलने की कोशिश की है लेकिन एक आम पिता क्या करता? जब एक लोकतांत्रिक प्रणाली में सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष का बेटा ऐसा काम करता है तो वह पार्टी अपने नेता के बचाव में आगे आ जाती है क्योंकि वह सत्ता तंत्र में विश्वास करती है लोकतंत्र में नहीं, वह तो सत्ता हासिल करने का एक जरिया मात्र है।

उसके नेता यह कहते हैं कि पुत्र की करनी की सजा पिता को नहीं दी जा सकती तो बिना योग्यता के पिता की राजनैतिक विरासत उसे क्यों दे दी जाती है। आप अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के लाल किले से दिए गए भाषण को भी नकार देते हैं जो कहते हैं कि हम अपनी बेटियों से तो तरह तरह के सवाल पूछते हैं, उन पर पाबंदियां भी लगाते हैं लेकिन कभी बेटे से कोई सवाल कर लेते, कुछ संस्कारों के बीज उनमें डाल देते, कुछ लगाम बेटों पर लगा देते तो बेटियों पर बंदिशें नहीं लगानी पड़तीं। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा से ऊपर अपने नेताओं और स्वार्थों को रखती है? यह कैसी व्यवस्था है जहाँ अपने अधिकारों की बात करना एक “हिम्मत का काम” कहा जाता है।

हम एक ऐसा देश क्यों नहीं बना सकते जहाँ हमारी बेटियाँ भी बेटों की तरह आजादी से जी पाँए ? हम अपने भूतपूर्व सांसदों विधायकों नेताओं को आजीवन सुविधाएं दे सकते हैं लेकिन अपने नागरिकों को सुरक्षा नहीं दे सकते। हम नेताओं को अपने ही देश में अपने ही क्षेत्र में जेड प्लस सेक्यूरिटी दे सकते हैं लेकिन अपनी बेटियों को सुरक्षा तो छोड़िये न्याय भी नहीं ? देश निर्भया कांड को भूला नहीं हैं और न ही इस सच्चाई से अंजान है कि हर रोज़ कहीं न कहीं कोई न कोई बेटी किसी न किसी अन्याय का शिकार हो रही है। उस दस साल की मासूम और उसके माता पिता का दर्द कौन समझ सकता है जो किसी और की हैवानियत का बोझ इस अबोध उम्र में उठाने के लिए मजबूर है। जिसकी खिलौनों से खेलने की उम्र थी वो खुद किसी अपने के ही हाथ का खिलौना बन गई। जिसकी हँसने खिलखिलाने की उम्र थी वो आज दर्द से कराह रही है। जो खुद एक बच्ची है लेकिन माँ बनने के लिए मजबूर है।

क्यों हम बेटियों को बचाएँ ? इन हैवानों के लिए ? हम अपने बेटों को क्यों नहीं सभ्यता और संस्कारों का पाठ पढ़ाएँ ? बेहतर यह होगा कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के बजाय बेटी बचानी है तो पहले बेटों को सभ्यता और संस्कारों का पाठ पढ़ाओ। उन्हें बेटियों की इज्जत करना तो सिखाओ।

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इसलिए कांग्रेस के चाणक्य को पटखनी देने पर आमादा है भाजपा

राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद के घर व ठिकानों पर पड़े छापों ने सुर्खियां बटोरने के साथ देश का सियासी तापमान बढ़ाने का काम किया। छापों के बाद लालू प्रसाद ने गर्म पानी पी−पीकर सरकार को कोसा और मीडिया के सामने अपनी व परिवार की बेगुनाही की घिसी−पिटी पटकथा दोहराई। लालू और उनके परिवारजनों ने मोदी सरकार पर जांच एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल के आरोप लगाए। लालू प्रसाद यादव के बाद पिछले दिनों कर्नाटक के रईस मंत्री के फार्म हाउस पर छापों से एक बार फिर छापों की सियासत गरमाई हुई है। कांग्रेसी नेता के फार्म हाउस पर हुई छापेमारी की गूंज संसद में भी सुनाई दी। क्या असल में यह छापे सियासी हैं। क्या सरकार अपने विरोधियों का दबाने और कुचलने के लिए जांच एजेंसियों का दुरूपयोग कर रही है। क्या इन छापों का राज्यसभा के चुनाव से कोई संबंध है। क्या सरकार विरोधियों को मुंह बंद रखने का मैसेज देने की कोशिश कर रही है। सवाल कई सारे। सरकार और विपक्ष के अपने−अपने तर्क भी हैं। लेकिन एक बात तो साफ है कि छापे की राजनीति और जांच एजेंसियों का अपने हित में बेजा इस्तेमाल का पुराना और काला इतिहास है। पिछले दिनों कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री डी. शिवकुमार के रिजॉर्ट पर मारा गया छापा वैसा ही माहौल बनाने की मंशा से प्रेरित नहीं है?

कर्नाटक के जिस धनाढ्य मंत्री के फार्म हाऊस पर गुजरात के कांग्रेसी विधायकों को ठहराया गया है उसके 39 ठिकानों पर पिछले दिनों आयकर छापों ने कर्नाटक से लेकर संसद तक को हिलाकर रख दिया। संसद में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया है कि यह छापेमारी शिवकुमार के दिल्ली आवास से बरामद पांच करोड़ रुपए की नकदी के सिलसिले में 35 अन्य ठिकानों पर की गयी आयकर छापेमारी का ही हिस्सा है। एक अन्य केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार ने भी कहा है कि आयकर विभाग अपना काम कर रहा है। इसके बावजूद इसे राजनीतिक प्रतिशोध के रूप में ही देखा जा रहा है तो इसलिए कानून अपना काम कर रहा है या करेगा−जैसे राजनीतिक सत्ता के रस्मी जवाब अपनी विश्वसनीयता खुद उसके आचरण के चलते खो बैठे हैं।

कांग्रेस का ये आरोप सतही तौर पर पूरी तरह सही है कि केन्द्र सरकार ने उक्त मंत्री को डराने के लिये ये कदम उठाया। वहीं आयकर महकमे ने सफाई दी कि पूरी कार्रवाई सामान्य प्रक्रिया के तहत की गई जिसका फैसला पहले ही लिया जा चुका था। यही नहीं तो फार्म हाऊस में मौजूद कांग्रेस के विधायकों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कोई संपर्क भी नहीं किया गया। इस सबसे हटकर देखा जाए तो छापे में मंत्री जी के विभिन्न ठिकानों से 10 करोड़ रुपये नगद पाया जाना आयकर छापे को सार्थक सिद्ध करने हेतु पर्याप्त है।

ऐसे में सीधा और गंभीर सवाल यह है कि क्या आयकर छापा और राज्यसभा चुनाव का कोई सीधा संबंध है। ऐसे छापों से चुनाव जीते या हारे नहीं जा सकते। आयकर, सीबीआई और ईडी सरीखी सरकारी एजेंसियों के अपने विशेषाधिकार हैं, लेकिन अब वे मोदी सरकार में सरकारी तोता नहीं रही हैं, ऐसा भी माना नहीं जा सकता। अपने वर्चस्व के दौर में कांग्रेस ने इन एजेंसियों का खूब इस्तेमाल किया था। अब वही काम भाजपा कर रही है। ज्यादा−कम, प्रत्यक्ष−परोक्ष का अंतर हो सकता है। यह संयोग भी हो सकता है कि कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री डीके शिव कुमार के ठिकानों और प्रतिष्ठानों पर आयकर विभाग की छापामारी की गई। छापे केंद्रीय सुरक्षा सीआरपीएफ की मौजूदगी में मारे गए। लेकिन राजनीतिक संयोग यह है कि गुजरात के 44 कांग्रेस विधायकों को मंत्री जी के रिजॉर्ट ‘ईगलटन गोल्फ’ में ही रखा गया है।

कांग्रेस ने गुजरात के विधायकों को खरीद−फरोख्त से बचाने के लिए इस रिजॉर्ट में लगभग बंधक बनाकर रखा था। बहरहाल छापे में मंत्री के घर से 9.5 करोड़ रुपए और दिल्ली आवास से पांच करोड़ रुपए नकदी बरामद हुए। वैसे डीके शिवकुमार की गिनती देश के सबसे अमीर मंत्रियों में होती है। एडीआर की रपट के मुताबिक उनकी घोषित संपत्ति 251 करोड़ रुपए की है। लिहाजा उनके घरों से चंद करोड़ रुपए की नकद बरामदगी कोई हैरानी पैदा नहीं करती, लेकिन यह आयकर का संवैधानिक जनादेश है कि वह जांच करे कि यह नकदी बेहिसाबी, कालाधन है या कुछ और। सरकार ने नोटबंदी के दौरान काला धन वालों की सूचियां तैयार की थीं, उनमें मंत्री शिव कुमार का भी नाम बताया जाता है कि उन्होंने जवाहरात और जमीनें खरीदीं। बहरहाल कांग्रेस कुछ भी कहे, लेकिन इन छापों में भी सियासत निहित है। विधायकों को बंधक बनाने और छापों की राजनीति पुरानी है। जिस प्रकार की जानकारी मिली है उसके अनुसार कर्नाटक सरकार के ऊर्जा मंत्री डीके शिव कुमार का कारोबार काफी लंबा चौड़ा है जिसके तार सिंगापुर सहित अन्य देशों से भी जुड़े हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इतने व्यापक पैमाने पर किसी बड़े व्यक्ति पर आयकर छापा दो−चार दिन की तैयारी पर नहीं मारा जा सकता। हो सकता है विभाग मंत्री जी को घेरने की बाट जोह रहा हो और इसी दौरान वे भाजपा के लिये बड़े खलनायक बन गए। इन छापों के पीछे राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी तरह इंकार तो नहीं किया जा सकता लेकिन यदि शिव कुमार के यहां मिली 10 करोड़ नगदी का वे हिसाब नहीं दे सके तो उनके अन्य निवेशों की तो छोड़ दें, यह मोटी रकम ही उनके गले में फंदा डालने के लिये पर्याप्त है क्योंकि आमतौर पर इतनी राशि किसी भी कारोबारी व्यक्ति या प्रतिष्ठान में नगद नहीं रखी जाती।

जिन 44 विधायकों को सेंधमारी से बचाये रखने के लिए कांग्रेस ने अपने शासन वाले कर्नाटक भेजा है, उनमें से भी कब कितनों का हृदय परिवर्तन हो जाये, कहा नहीं जा सकता। क्या निश्चय ही सत्ता के दुरुपयोग और राजनीतिक प्रतिशोध के लिए सिर्फ भाजपा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सबसे ज्यादा समय तक देश पर शासन करने वाली कांग्रेस ही राजनीति और शासन व्यवस्था की इन बुराइयों की जनक भी है और पोषक भी। कांग्रेस की उन कारगुजारियों पर कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। तब शायद कांग्रेस को अभिमान हो गया था कि वह तो बनी ही देश पर शासन करने के लिए है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का काला अध्याय माने जाने वाले आपातकाल के दौरान तो इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा का नारा भी दे ही दिया गया था, लेकिन सवाल गलतियों को सुधारने और उनसे जरूरी सबक सीखने का है। क्या कांग्रेस द्वारा सत्ता अहमन्यता में की गयी गलतियों से उसके विरोधियों ने कोई सबक सीखा है? पूर्ववर्तियों द्वारा अतीत में की गयी गलतियों के उदाहरण देकर वर्तमान की गलतियों को जायज तो नहीं ठहराया जा सकता।

छापे मारी को लेकर आज कांग्रेस जो छाती पीट रही है, असल में इसी कांग्रेस ने अपने राजनीतिक विरोधियों को कुचलने के लिये अनैतिक आचरण को बरसों बरस पाला−पोसा है। 80 के दशक में कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव की सरकार और 90 के दशक में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रच कर जो संवैधानिक और लोकतांत्रिक अपराध किया था, क्या वही भाजपा ने अरुणाचल और उत्तराखंड में नहीं किया? हरियाणा में भजन लाल ने सरकार समेत पाला बदल कर जनता पार्टी के बजाय कांग्रेस का साईनबोर्ड लगा लिया था तो अब बिहार में नीतीश कुमार के पाला बदल को कैसे अलग ठहराया जा सकता है? दरअसल दलबदल और पाला बदल की इस राजनीति से उठा एक बेहद स्वाभाविक सवाल अनुत्तरित है कि राजनीति का आधार दल और व्यक्ति विशेष है या फिर विचारधारा? चुनावी हवा का रुख भांप कर दलबदल की प्रवृत्ति लगातार मजबूत हो रही है। विधायक−सांसद ही नहीं, मुख्यमंत्री तक रह चुके राजनेता इतनी सहजता से दल बदल लेते हैं।

जहां तक सवाल गुजरात में राज्यसभा चुनाव का है। वहां बीजेपी अहमद पटेल को एक नेता के तौर पर हराना नहीं चाहती, बल्कि वह इस बार कांग्रेस के चाणक्य को पटखनी देने पर आमादा है। दरअसल अहमद पटेल महज राज्यसभा सदस्य या उम्मीदवार नहीं हैं, दशकों से वह कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव के रूप में पार्टी आलाकमान के मुख्य प्रबंधक−रणनीतिकार भी बने हुए हैं। राजीव गांधी के कार्यकाल में शुरू हुआ अहमद पटेल का दबदबा सोनिया गांधी के कार्यकाल में भी बरकरार है। सप्रमाण तो ऐसे दावे नहीं किये जा सकते, लेकिन माना यही जा रहा है कि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी को जिस तरह केंद्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकारों ने लगातार निशाना बनाया (और पीड़ित अमित शाह भी कम नहीं रहे), उसी का हिसाब अहमद पटेल से चुकता किया जा रहा है।

इन छापों को लेकर कांग्रेस ने आक्रामक रूख अपनाया है। कांग्रेस का आरोप है कि उसके विधायकों को डरा−धमका कर तोड़ने की कोशिश की जा रही है। इस संदर्भ में संसद या चुनाव आयोग क्या कर सकते हैं? लिहाजा राज्यसभा का यह चुनाव उपराष्ट्रपति के चुनाव से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है। राज्यसभा चुनाव में नोटा की व्यवस्था से भी कांग्रेस भयभीत है। लिहाजा उसने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई थी कि राज्यसभा चुनाव में नोटा की व्यवस्था लागू न की जाए, लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट से भी झटका लगा है। अब राज्यसभा चुनाव के लिए वोटिंग नोटा के विकल्प के साथ ही होगी। ऐसे में कांग्रेस और अहमद पटेल का दबाव में होना स्वाभाविक है। बिहार में तेजस्वी यादव सहित लालू के अन्य परिजनों पर आयकर विभाग की घेराबंदी के बाद लगातार ये दूसरा प्रकरण है जिसमें आयकर विभाग के राजनीतिक उपयोग का आरोप लग रहा है। सच्चाई का खुलासा होने में तो समय लगेगा परन्तु कुछ हद तक दोनों ही पक्ष अपनी−अपनी जगह सही लगते हैं। अगर सरकार राजनीति और किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर सुनियोजित तरीके से अपने विरोधियों का मुंह बंद कराने, धमकाने और डराने में लगी है तो इस प्रवृत्ति पर तत्काल रोक लगनी चाहिए।

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मीडिया के मोदी विरोधी धड़े को राष्ट्र हित की परवाह नहीं

मौजूदा दौर में समाचार माध्यमों की वैचारिक धाराएं स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। देश के इतिहास में यह पहली बार है, जब आम समाज यह बात कर रहा है कि फलां चैनल/अखबार कांग्रेस का है, वामपंथियों का है और फलां चैनल/अखबार भाजपा-आरएसएस की विचारधारा का है। समाचार माध्यमों को लेकर आम समाज का इस प्रकार चर्चा करना पत्रकारिता की विश्वसनीयता के लिए ठीक नहीं है। कोई समाचार माध्यम जब किसी विचारधारा के साथ नत्थी कर दिया जाता है, जब उसकी खबरों के प्रति दर्शकों/पाठकों में एक पूर्वाग्रह रहता है। वह समाचार माध्यम कितनी ही सत्य खबर प्रकाशित/प्रसारित करे, समाज उसे संदेह की दृष्टि से देखेगा। समाचार माध्यमों को न तो किसी विचारधारा के प्रति अंधभक्त होना चाहिए और न ही अंध विरोधी। हालांकि यह भी सर्वमान्य तर्क है कि तटस्थता सिर्फ सिद्धांत ही है। निष्पक्ष रहना संभव नहीं है।

हालांकि भारत में पत्रकारिता का एक सुदीर्घ सुनहरा इतिहास रहा है, जिसके अनेक पन्नों पर दर्ज है कि पत्रकारिता पक्षधरिता नहीं है। निष्पक्ष पत्रकारिता संभव है। कलम का जनता के पक्ष में चलना ही उसकी सार्थकता है। बहरहाल, यदि किसी के लिए निष्पक्षता संभव नहीं भी हो तो न सही। भारत में पत्रकारिता का एक इतिहास पक्षधरता का भी है। इसलिए भारतीय समाज को यह पक्षधरता भी स्वीकार्य है लेकिन, उसमें राष्ट्रीय अस्मिता को चुनौती नहीं होनी चाहिए। किसी का पक्ष लेते समय और विपरीत विचार पर कलम तानते समय इतना जरूर ध्यान रखें कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच न आए। हमारी कलम से निकल बहने वाली पत्रकारिता की धारा भारतीय स्वाभिमान, सम्मान और सुरक्षा के विरुद्ध न हो। कहने का अभिप्राय इतना-सा है कि हमारी पत्रकारिता में भी ‘राष्ट्र सबसे पहले’ का भाव जागृत होना चाहिए। वर्तमान पत्रकारिता में इस भाव की अनुपस्थिति दिखाई दे रही है। हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का ध्येय वाक्य था- ‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’। अर्थात् देशवासियों का हित-साधन। वास्तव में यही पत्रकारिता का राष्ट्रीय स्वरूप है। राष्ट्रवादी पत्रकारिता कुछ और नहीं, यही ध्येय है। राष्ट्र सबसे पहले का असल अर्थ भी यही है कि देशवासियों के हित का ध्यान रखा जाए।

अभी हाल में समाचार चैनल एनडीटीवी पर भारत सरकार के प्रसारण मंत्रालय ने एक दिन का प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया था। सरकार ने पठानकोट हमलों की कवरेज के दौरान सुरक्षा से जुड़ीं संवेदनशील जानकारियां देने के आरोप में यह प्रतिबंध लगाया था। लेकिन, जैसे ही एनडीटीवी पर प्रतिबंध की खबर सामने आई, पत्रकारिता और तथाकथित बुद्धिजीवियों के एक धड़े ने ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का रोना शुरू कर दिया। इन्होंने ऐसा वातावरण बनाया कि मानो देश में फिर से आपातकाल लगा दिया गया है। सरकार अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट रही है। एनडीटीवी पर प्रतिबंध के बहाने खड़ी हुई बहस में एक भी पक्षधर विद्वान इस बात पर चर्चा के लिए राजी नहीं हो रहा था कि आखिर दण्डस्वरूप एनडीटीवी पर एक दिन का प्रतिबंध क्यों लगाया जा रहा है? कोई भी तर्कशील इस बात पर भी चर्चा के लिए राजी नहीं था कि आखिर पठानकोट हमले के संबंध में एनडीटीवी के कवरेज को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? मीडिया और बुद्धिजीवियों के इस खेमे का यह स्वभाव इस बात का प्रकटीकरण भी है कि अभिव्यक्ति की आड़ में इन्हें स्वतंत्रता नहीं, बल्कि स्वच्छंदता चाहिए। यह तबका न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करना चाहता है, कार्यपालिका पर नियंत्रण चाहता है और सरकार में भी रत्तीभर तानाशाही नहीं चाहता। यह चाहना, सही भी है। सबके लिए लक्ष्मणरेखा होनी ही चाहिए। लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए किसी भी व्यवस्था का तानाशाही होना, उसके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। लेकिन, यही तबका मीडिया पर तर्कसंगत नियंत्रण भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। देश में वर्षों से यह वर्ग अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में एक खास किस्म की स्वतंत्रता की माँग करता रहा है। विशेष प्रकार की अभिव्यक्ति की आजादी की माँग करने वाले इस खेमे को संभवत: भारतीय परंपरा का ज्ञान नहीं है।

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गहरी परंपरा रही है। भारतीय समाज प्रारंभ से ही तर्कशील समाज रहा है। यहाँ समाज के नियम भी तर्कों की कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही व्यवहार में लागू होते थे। लेकिन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिप्राय कभी भी यहाँ स्वच्छंदता से नहीं रहा है। भारत में अभिव्यक्ति वही श्रेष्ठ मानी गई है, जिसमें व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कल्याण निहित हो। महर्षि नारद को संचार के अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार नहीं करने वाले वाम बुद्धिवादियों को एक बार ईमानदारी से नारद चरित्र का अध्ययन करना चाहिए। संभवत: नारद के अध्ययन से उन्हें ध्यान आए कि वास्तव में किस प्रकार के संवाद को आगे प्रसारित और प्रचारित करना चाहिए। भारत में एक सामान्य नागरिक को भी इस बात का बोध है कि किसी व्यक्ति के प्राण रक्षा के लिए बोला गया झूठ किसी भी सत्य वचन से बढ़कर है। अर्थात् उस प्रत्येक संवाद का भारत में सम्मान है, जिसमें लोक कल्याण का संदेश हो। जबकि वह सत्य भी निरर्थक है, जिससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की हानि होती हो। वर्तमान पत्रकारिता पर एक नजर डालने पर यह ध्यान आता है कि ‘सबसे तेज’ की चाह में ‘राष्ट्र सबसे पहले’ न केवल कहीं छूट गया है, बल्कि उसे भुला ही दिया गया है। मुंबई में ताज होटल में हुए आतंकी हमले में हमने मीडिया की इस मानसिकता के कारण जन-धन की हानि उठाई थी। समाचार चैनल इधर सबसे तेज के चक्कर में आतंकी हमले का सीधा प्रसारण कर रहे थे, उधर इस सीधे प्रसारण का दुरुपयोग आतंकियों के आका कर रहे थे। ऐसी पत्रकारिता किस काम की, जिसका फायदा देश के दुश्मनों को मिले।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पिछले ढाई साल के कार्यकाल में इस बात की अनुभूति भी हुई है कि मीडिया का एक धड़ा मोदी विरोध में बहुत आगे निकल गया। उसने न केवल पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा को पार किया, बल्कि राष्ट्र हित की परवाह भी नहीं की। देश में जब कुछ लोगों ने सुनियोजित ढंग से असहिष्णुता की बनावटी मुहिम शुरू की तब समाचार माध्यमों के वाम धड़े ने उनके चिंदी विरोध को भी चद्दर बनाकर प्रस्तुत किया। जबकि उसके विरोध में सामान्य व्यक्तियों की बुलंद आवाज को भी दबा दिया गया। जिस वक्त में दुनियाभर में भारत की धमक बढ़ रही थी, उसी समय में मीडिया की मतिभ्रम स्थिति ने देश की छवि को एक धक्का पहुँचाया। मीडिया के वाम खेमे ने इस सरकार के प्रत्येक निर्णय और नीति की अंधाधुंध आलोचना की। विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के साहसिक और अभूतपूर्व निर्णय के बाद भी मीडिया में राष्ट्रीय भाव की कमी स्पष्ट दिखाई दी। आठ नवंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी का निर्णय सुनाया था। कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ हजार और पाँच सौ के नोट बंद करने के निर्णय पर तत्काल तो प्रत्येक समाचार माध्यम ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। लेकिन, जैसे ही उनके वैचारिक आकाओं ने उन्हें आगाह किया कि आपकी सराहना से केंद्र सरकार और मोदी को ताकत मिली है, उसके बाद वाम विचारधारा के खूंटे से बंधे पत्रकारों और समाचार माध्यमों ने एडी-चोटी का जोर लगाकर इस निर्णय की बुराई की। सरकार के नीति और निर्णय की आलोचना करने के लिए पत्रकार स्वतंत्र है और होना भी चाहिए। लेकिन, सरकार की आलोचना करते-करते राष्ट्र की आलोचना पर उतर आना ठीक प्रवृत्ति नहीं।

सरकार की आलोचना करते वक्त देश का हित और अहित ध्यान में रखना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि यह देश है, तो हम हैं। जब देश ही नहीं रहेगा, तब हम कहाँ ठौर पाएंगे। देश की प्रतिष्ठा है, तो दुनिया में हमारा सम्मान है। यदि हमारी पत्रकारिता से देश की प्रतिष्ठा धूमिल होगी, तब स्वाभाविक ही हम अपनी प्रतिष्ठा भी गिराएंगे। भारत के नागरिकों का आज दुनिया में सम्मान होता है, जबकि कई देशों के नागरिकों को कई देश अपनी सीमा में घुसने नहीं देना चाह रहे हैं। इसलिए यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि देश की प्रतिष्ठा से हमारी स्वयं की प्रतिष्ठा जुड़ी है। इसलिए अपनी पत्रकारिता में ‘राष्ट्र सबसे पहले’ होना ही चाहिए।

लोकेन्द्र सिंह

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लेख

भय दिखाकर दूसरों पर हावी होता रहा चीन भारत के सामने विफल

डोकलाम में जारी तनाव के बीच चीनी सेना ने रविवार को जमकर शक्ति प्रदर्शन किया, जिसमें चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने हमलावर दुश्मन को परास्त करने का आह्वान किया है। उन्होंने भरोसा जताया कि चीन की सेना में किसी भी हमलावर दुश्मन को हराने की क्षमता है। चीनी सेना की 90वीं वर्षगांठ से दो दिन पूर्व आयोजित इस परेड के माध्यम से चीन ने बड़ी संख्या में टैंक और परमाणु हथियारों को छोड़ने में सक्षम मिसाइलों का प्रदर्शन किया। दरअसल यह विरोधियों पर मनोवैज्ञानिक बढ़त लेने की चीनी कोशिश ही है। चीन 1 अगस्त को चीनी सेना की 90वीं वर्षगांठ के मौके पर शक्ति प्रदर्शन के माध्यम से दबाव बनाने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहता है।

आक्रामक चीन अपने साम्राज्यवादी विस्तार के रवैये में इस बार भारत के सामने फंस गया है। मनोवैज्ञानिक युद्ध के महारथी चीन को थोड़ा भी अंदाजा नहीं होगा कि भारत पर दबाव डालने की उसकी रणनीति पूर्णत: बेअसर रहेगी। चीन ने निश्चित रूप से यह उम्मीद नहीं की थी कि डोकलाम में भारत भूटान के पक्ष में खड़ा होगा। पिछले 6 सप्ताह से डोकलाम मामले पर भारत-चीन आमने-सामने हैं। चीनी सरकारी समाचार पत्र ‘ग्लोबल टाइम्स’ लगातार युद्ध उन्माद फैलाकर भारत को डराने में लगे रहे। चीनी मीडिया में एक तरह से प्रतिस्पर्धा थी कि आखिर कौन डोकलाम मामले पर भारत को सबसे अधिक मनोवैज्ञानिक दबाव में डाल सकता है। जैसे-जैसे समय चक्र आगे बढ़ता चला गया, चीनी प्रोपेगैंडा भी उफान पर आ गया। मामला जब इससे भी नहीं संभला तो चीन ने बीजिंग में अन्य देशों के राजदूतों से वार्ता कर भारत पर दबाव डालने का प्रयास किया, परंतु वह भी बेअसर ही रहा। डोकलाम विवाद का मौजूदा संकट चीनी विदेश नीति के दुष्प्रचार को ही प्रदर्शित करता है।

जब मीडिया के दबाव के बावजूद भारत पर कोई असर नहीं पड़ा तो चीन ने अपने सैन्य प्रवक्ताओं को आगे किया। चीनी सेना ने कहा कि वो संप्रभुता की रक्षा के लिए कुछ भी करेंगे। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने भारत से कहा कि किसी भी कीमत पर संप्रभुता की रक्षा की जाएगी। चीनी सेना ने भारत को सबसे बड़ी धमकी देते हुए कहा कि पर्वत को हिलाया जा सकता है, परंतु चीनी सेना को नहीं।

चीन पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की 90वीं वर्षगांठ का दबाव

इस संपूर्ण मामले को सूक्ष्मता से देखा जाए तो चीन का पूरा प्रयास था कि चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी अर्थात् पीएलए की 90वीं वर्षगाँठ से पूर्व हर हालत में भारत को डोकलाम से पीछे हटाने के लिए प्रयत्नशील है। ज्ञात हो 1 अगस्त 2017 को चीनी सेना यानि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी काफी धूम-धाम से अपनी 90वीं वर्षगाँठ मना रही है। यह वर्षगांठ चीन में केवल सेना का शक्ति प्रदर्शन नहीं है, अपितु चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भी शक्ति प्रदर्शन है। चीनी राष्ट्रपति भारत को मनोवैज्ञानिक युद्ध में पराजित कर चीन में अपने प्रतिद्वन्द्वियों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करने का प्रयत्न कर रहे थे, जो पूर्णतः विफल रहा। उन्हें पहले इस बात का यकीन नहीं था कि भारतीय फौज भूटान के सामने आएगी या फिर कम से कम चीन की फौज के सामने इतनी देर तक खड़ी होने की हिम्मत करेगी। चीनी प्रवक्ता वू कियान ने कहा था कि “मैं भारत को याद दिलाना चाहता हूँ कि वो किसी तरह से भ्रम न रहे, चीन की सेना का 90 साल का इतिहास हमारी क्षमता को साबित करता है। देश की रक्षा करने को लेकर हमारे विश्वास को कोई डिगा नहीं सकता। पहाड़ को हिलाना मुमकिन है, लेकिन चीनी सेना को हिला पाना मुश्किल है।”

चीनी सैन्य प्रवक्ता वू कियान का बयान देखकर ही स्पष्ट हो जाता है कि भारत पर दबाव बनाने का कितना दबाव चीन के ऊपर स्वयं है। जब चीनी सेना की उपरोक्त धमकी का भी भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो चीन ने अंततः अपने विदेश मंत्रालय को प्रोपेगैंडा वार का हिस्सा बनाया। देखा जाए तो चीन जिस प्रकार प्राचीन सैन्य रणनीतिकार सुन-जू की शैली के आधार पर बिना सैन्य हमले के ही भारत को दबाव में लाने के लिए प्रयासरत था, वह विफल ही नहीं हुआ अपितु चीन के लिए ही संकट बन गया है।

अजीत डोभाल की चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग एवं चीनी समकक्ष से मुलाकात

चीन के बीजिंग में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान शी-जिनपिंग और अजीत डोभाल के बीच औपचारिक ढांचे के तहत बातचीत हुई। 7वें ब्रिक्स सम्मेलन में सदस्य देशों के सुरक्षा अधिकारियों की बैठक के दौरान शुक्रवार को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से क्षेत्र के राजनीतिक और आर्थिक हालत पर डोभाल ने बातचीत की। डोभाल और शी जिनपिंग की यह मुलाकात भारत और चीन के काफी तनावपूर्ण माहौल में हुई। इससे एक दिन पूर्व डोभाल अपने चीनी समकक्ष यांग जायजी से भी अलग से मिले थे। चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार यांग जायजी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और राजनीति में ऊंचा स्थान रखते हैं इसलिए अजीत डोभाल और यांग जायजी की मुलाकात हर तरह से महत्वपूर्ण रही। इस वार्ता से ऐसा लगता है कि कि दोनों देश एक दूसरे की परिस्थिति समझने में कामयाब हुए हैं। पिछले 6 सप्ताह में यह पहली बार है कि दोनों देशों के बीच सुरक्षा के मुद्दे पर बात हो रही है। दूसरी बात यह है कि चीन ने बार-बार कहा था कि जब तक डोकलाम से भारतीय सैनिक पीछे नहीं हटेंगे, हम किसी भी तरह की बात नहीं करेंगे। इसके बावजूद चीनी मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के लोग डोभाल से अलग से मिले और इस मुद्दे पर ‘वन टू वन’ मीटिंग की और भारत के स्टैंड ऑफ को लेकर चर्चा हुई।

डोभाल के वार्ता पर सिन्हुआ का सकारात्मक रूख

अजीत डोभाल और यांग जाय जी की बैठक के बाद चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने अचानक एक कमेंट्री प्रसारित की जिसमें दोस्ती, भाईचारे की बातें कही गईं। इसमें ये संकेत दिया गया कि पश्चिमी देश भारत और चीन को लड़वा रहे हैं, वैसे हम भाई-भाई हैं। इसमें कहीं नहीं ये नहीं कहा गया कि भारत को डोकलाम से अपने सैनिक वापस बुलाने होंगे, तभी बात आगे बढ़ेगी। स्पष्ट है कि इस संपूर्ण प्रकरण में चीन को पश्चिम से भी समुचित समर्थन नहीं मिला।

इस संपूर्ण मामले में भारत एक तरफ जहां डोकलाम में चीनी सैनिकों के सामने चट्टानों की तरह खड़ा रहा, वहीं दूसरी ओर अनावश्यक बयानबाजी से दूरी रखते हुए शांतिपूर्ण ढंग से कूटनीतिक रूप से गतिरोध सुलझाने का प्रयास किया। साथ ही भारत ने घरेलू मोर्चों से भी संयमित मगर दृढ़ कूटनीतिक संकेत दिए हैं। भारत ने चीन को कूटनीतिक भाषा में यह समझाने की कोशिश की है कि मौजूदा सीमा विवाद के साथ ही हर तनाव भरे मुद्दे का वह आपसी सहमति व बातचीत से समाधान निकालने को तैयार है। भारत यह कतई नहीं चाहेगा कि अभी जो छोटे-छोटे विवाद हैं, वे आगे चलकर किसी बड़े संकट का कारण बनें।

क्या डोभाल और शी जिनपिंग की मुलाकात को डोकलाम संकट के अंत के रूप में देखा जा सकता है?

पिछले 6 सप्ताह में भारत-चीन के बीच पहली बार डोकलाम मुद्दे पर चर्चा से आशा की कुछ धुंधली किरण प्रस्फुटित हुई हैं, लेकिन क्या डोभाल और शी जिनपिंग मुलाकात को डोकलाम संकट के अंत के रूप में देखा जा सकता है? क्या यह विवाद अब समाप्ति की ओर है?

उपरोक्त प्रश्नों के आलोक में मैं पुन: चीन के उसी धर्म संकट की ओर ध्यानाकर्षण कराना चाहूँगा। चीन अभी 1 अगस्त को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 90वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी में है। चीन कहाँ तो इस वर्षगांठ को भारत को मनोवैज्ञानिक युद्ध में हराकर विजय उत्सव के रूप में मनाने के लिए प्रयत्नशील था, लेकिन भारत की डोकलाम पर अड़े रहने की चट्टानी रणनीति ने चीन को परेशान कर दिया। आक्रामक होते हुए भी विश्व समुदाय के समक्ष अपनी स्वच्छ छवि हेतु चीन स्वयं को पीड़ित के तौर पर पेश करता है तथा छोटे देश भूटान में घुसपैठ पर छद्म आवरण डालने का प्रयास करता है। ऐसी स्थिति में चीन चाहते हुए भी इस मामले का शीघ्र निपटारा नहीं कर सकता।

डोकलाम मुद्दा चीनी सरकार के गले की फांस बन गया है। चीन की हॉकिश कम्युनिस्ट पार्टी डोकलाम विवाद का जल्द से जल्द समाधान चाहती है। ज्ञात हो चीन में अगले वर्ष शीर्ष नेताओं में फेरबदल होना है और ‘हॉकिश’ शीर्ष नेता के इस चुनाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। वहीं चीन दक्षिण चीन सागर और पूर्व चीन सागर में भी चुनौती का सामना कर रहा है।

युद्धोन्माद का भय दिखाकर चीन ने बिना एक गोली चलाए ही पिछले 3 वर्षों में दक्षिण चीन सागर के दो तिहाई हिस्से पर कब्जा कर लिया है, परंतु चीन की यह रणनीति भारत के समक्ष पूर्णतः विफल रही। दक्षिण चीन सागर में अपने विस्तारवादी रुख के कारण चीन की फौज का मनोबल बढ़ा हुआ था, परंतु डोकलाम मामले ने चीनी मनोविज्ञान को भी प्रभावित किया। इस संपूर्ण प्रकरण से चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि विश्व समुदाय में जहां धूमिल हुई, वहीं भारत के चट्टानी दृढ़ता ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत, चीन के दुष्प्रचार और प्रपंच के झांसे में न तो आता है और न ही आएगा। साथ ही दक्षिण एशिया में चीन को प्रतिसंतुलित करने वाले घटक के रूप में भी भारत की छवि में निखार आया है। इस मामले में अगर भारत पीछे जाता तो न केवल देश के सुरक्षा हितों की दृष्टि से पूर्वोत्तर राज्यों के साथ हमारे थल संपर्क पर खतरा उत्पन्न होता, बल्कि दक्षिण एशिया विशेषकर भारत के पड़ोसी देशों में भारत की छवि धूमिल होती। गेंद अब चीनी पाले में है कि किस प्रकार वह डोकलाम से पीछे हटने का सम्मानित मार्ग खोज पाएगा? डोभाल की चीन यात्रा से वैसे तो डोकलाम विवाद पर कोई समाधान नहीं निकला है, लेकिन दोनों देशों को इस मुलाकात से विवाद को कूटनीतिक रूप से हल करने का थोड़ा और समय अवश्य मिल गया है।

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लेख

अखिलेश-मायावती की संभावित एकता का हश्र भी बिहार जैसा होगा

बिहार में नीतीश और भाजपा के गठबंधन को घोर अवसरवादी और अनैतिक भी कहा जा रहा है। लेकिन नीतीश के पास इसके अलावा विकल्प क्या था? यदि नीतीश और लालू की सरकार बिहार में चलती रहती तो सबसे ज्यादा नुकसान किसका होता? बिहार का होता। पिछले 20 महिनों में क्या बिहार की सरकार वैसी ही चली, जैसी कि वह जनता दल (ए) और भाजपा के गठबंधन के दौरान चली थी ? नीतीश और लालू के गठबंधन के दौरान 20 महिनों में प्रशासक के तौर नीतीश की छवि कुछ न कुछ ढीली ही हुई थी, क्योंकि लालू के दो बेटों को मंत्री बनाकर नीतीश ने अपने पांवों में बेड़ियां डाल रखी थीं। यह तो नीतीशजी की सज्जनता है कि उन्होंने लालू के बेटे और अपने उप-मुख्यमंत्री से इस्तीफा नहीं मांगा। उससे सिर्फ यही कहा कि अपने पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की सफाई पेश करे। न उसने सफाई पेश की और न ही इस्तीफा दिया। लगभग एक माह बीत गया। लालू परिवार के भ्रष्टाचार के गड़े मुर्दे एक के बाद एक उखड़ते गए। ऐसे में खुद नीतीश ने इस्तीफा दे दिया। नीतीश के इस्तीफे ने तहलका मचा दिया। एक आरोपी उपमुख्यमंत्री इस्तीफा न दे और एक स्वच्छ मुख्यमंत्री इस्तीफा दे दे, यह अपने आप में बड़ी घटना है। नीतीश के इस इस्तीफे को गलत कैसे कहा जा सकता है? कौन इसे गलत कह सकता है?

लेकिन भाजपा से तुरंत हुए नीतीश के गठबंधन को शुद्ध अवसरवाद और चालाकी कहा जा रहा है। नीतीश कुछ ही घंटों में दुबारा मुख्यमंत्री बनने की कवायद करने की बजाय यदि विधानसभा भंग करवा देते और चुनाव लड़ते तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे प्रचंड बहुमत से जीतते और बिना किसी गठबंधन के वे वैसे ही अपनी सरकार बनाते जैसी कि उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बनाई है। यदि ऐसा होता तो नीतीश न केवल बिहार के शक्तिशाली मुख्यमंत्री बनते बल्कि उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर भी देखा जाने लगता। वे समस्त विरोधी दलों की आंख के तारे बन जाते।

किंतु अब पता नहीं नीतीश कैसे मुख्यमंत्री साबित होंगे? अब भाजपा का अंकुश उन पर कितना तगड़ा होगा? यह ठीक है कि लालू की राजद के मुकाबले भाजपा काफी छोटी पार्टी है और अनुशासित पार्टी भी है लेकिन हम यह न भूलें कि दिल्ली में उसी का राज है। नीतीश के इस नए गठबंधन ने केंद्र की सरकार और भाजपा के हाथ मजबूत कर दिए हैं। इस समय देश के दो सबसे बड़े प्रांतों– उप्र और बिहार में भाजपा की सरकारें बन गई हैं। नीतीश के गठबंधन ने 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत के नगाड़े अभी से बजाने शुरू कर दिए हैं। अब देश के 18 राज्यों में भाजपा का वर्चस्व हो गया है।

कांग्रेस अब सिर्फ पांच छोटे-मोटे राज्यों में सिमट गई है। उनमें भी कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका लगभग गौण हो गई है। लालू और नीतीश की जोड़ी के टूट ने यह संकेत भी दे दिया है कि मुलायम सिंह या अखिलेश और मायावती की संभावित एकता का अंजाम क्या हो सकता है। ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के अलावा कौन-सा प्रांतीय नेता इस समय मोदी सरकार के सामने तनकर खड़ा है? कोई आश्चर्य नहीं कि विरोधियों की एकता की कांग्रेसी कोशिश की बिहार भ्रूण-हत्या कर दे। कांग्रेस का नीतीश पर यह आरोप कमजोर है कि उन्होंने लालू से गठबंधन तोड़कर बिहार की जनता के जनादेश का उल्लंघन किया है। यदि वे यह गठबंधन बनाए रहते और अपने मुंह पर पट्टी बांधे रहते तो क्या यह नहीं माना जाता कि बिहार का जनादेश भ्रष्टाचार करने के लिए था ? भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करते रहना क्या जनादेश का पालन करना माना जाता?

नीतीश ने भाजपा से गठबंधन करके अपने आप को बंधन में बांध लिया है। उनके प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पर बंधन लग गया है लेकिन उस अग्नि-परीक्षा में दो साल शेष हैं। तब तक पता नहीं क्या हो ? राजनीति को पल्टा खाते देर नहीं लगती। कई अनहोनियां भी हो जाती हैं। ऐसे में नीतीश का भाजपा के साथ होना उनके लिए अप्रत्याशित फायदे का सौदा भी हो सकता है। मोदी और नीतीश, इस समय ये दो ही अखिल भारतीय चेहरे हैं। उम्मीद है कि नीतीश 2019 के लोकसभा के चुनाव तक भाजपा के साथ टिके रहेंगे। बिहार के सफल मुख्यमंत्री के तौर पर यदि उनकी छवि बहुत ज्यादा चमक गई तो हो सकता है कि सारे विरोधी दल मिलकर उन्हें अपना नेता बनाने का लालच दे डालें लेकिन नीतीश-जैसा चतुर राजनीतिज्ञ यह जानता है कि विरोधियों के खेमे में शामिल होकर उन्हें दुर्दशा के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगना है।

243 सदस्यों की विधानसभा में 131 वोटों का विश्वास-मत प्राप्त करके नीतीश ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनके विधायकों को तोड़ने की कोशिश विफल हो गई है। यदि नीतीश के यादव और मुसलमान विधायकों को तोड़ लिया जाता तो उन्हें शक्ति-परीक्षण में बहुमत नहीं मिलता। नीतीश की अपनी पार्टी के विघ्नसंतोषी नेताओं को तो करारा जवाब मिल ही गया, लालू को भी पता चल गया कि अब कोई नया साथी उन्हें मिलने वाला नहीं है। भाजपा में हुकुमदेव नारायण यादव जैसे कई कद्दावर यादव नेता हैं, जो नीतीश का साथ सहर्ष देंगे।

नीतीश की अपनी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव-जैसे नेता पसोपेश में हैं। भाजपा के साथ कैसे जाएं ? उनसे पूछा जा सकता है कि जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा सरकार को हटाने के लिए 1977 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ का साथ लिया था या नहीं? 1967 में डॉ. राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाया था या नहीं? यदि जयप्रकाश का एक चेला (लालू) कांग्रेस की शरण में जा सकता है तो दूसरा चेला (नीतीश) भाजपा से हाथ क्यों नहीं मिला सकता ? नीतीश ने तो भाजपा के साथ 17 साल तक गठबंधन चलाए रखा। वे अटलजी की सरकार में मंत्री भी रहे। यह ठीक है कि 2013 में मोदी के प्रधानमंत्री-पद के उम्मीदवार बनने की संभावना ने नीतीश की महत्वाकांक्षा को झटका दिया। नीतीश ने इस झटके को सैद्धांतिक जामा भी पहनाया। संघमुक्त भारत का नारा दिया। मोदी को कभी-कभी इस्लामी टोपी पहनने की सलाह भी दी। खुद को ‘बिहारी’ और मोदी को ‘बाहरी’ तक कहा। संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी रचनात्मक सुझाव की मनचाही व्याख्या भी की। मोदी को जिस भोज पर निमंत्रित किया था, उसे नीतीश ने स्थगित कर दिया था। अब अपने इस रूप को भुलाकर नीतीश को नया जन्म लेना होगा। नीतीश को अब मोदी के साथ भोजन ही नहीं, भजन भी करना होगा। इसके संकेत उन्होंने पिछले साल से ही देने शुरू कर दिए थे। उन्होंने नोटबंदी का खुलकर समर्थन किया और रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने का भी! पटना में मोदी के भाव-भीने स्वागत का अर्थ क्या था? सुशील मोदी के लालू पर जबर्दस्त एकतरफा प्रहार का अर्थ सभी को समझ में आ रहा था। अब नीतीश के साथ पटना में भी मोदी और दिल्ली में भी मोदी हैं।

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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