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आजाद भारत में मुस्लिम महिलाओं को मिली सबसे बड़ी आजादी

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम समाज की महिलाओं के सशक्तिकरण में मील का पत्थर साबित होगा। डिजीटल इंडिया के युग में एसएमएस, व्हाट्सअप, ईमेल और फोन पर जब से तीन तलाक की खबरें आनी शुरू हुई थीं, तभी से मुस्लिम महिलाओं में बेचैनी देखी जा रही थी। असल में तीन तलाक का दंश मुस्लिम महिलाएं दशकों से झेलती आ रही थीं और इस प्रथा से महिलाएं एकाएक बेघर हो जाती थीं। जिस तेजी से इस प्रथा का दुरूपयोग बढ़ा था, उससे साफ था कि अब इसे समाप्त करने का समय आ चुका है और आज अंततः विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों से आने वाले पांच जजों की पीठ ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया। मुस्लिम महिलाएं और लड़कियां खुशी में मिठाईयां बांट रही हैं क्योंकि आज दशकों बाद एक कुप्रथा के अंत की शुरूआत हुई है, जिससे मुस्लिम महिलाएं अधिक सशक्त बनेंगी।

ऐतिहासिक दृष्टि से तीन तलाक पर आज का फैसला महत्वपूर्ण है और सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों- जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यू.यू. ललित ने बहुमत से तलाक को गैर संवैधानिक और मनमाना करार दिया है और इसे खारिज कर दिया है। तीनों जजों ने तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करार दिया है। जजों ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है और यह उसका सीधा उल्लंघन है। इससे पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय इसे पहले ही गैर संवैधानिक करार दे चुका है।

वैसे चीफ जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस नजीर ने अल्पमत में दिए अपने फैसले में तीन तलाक को धार्मिक परम्परा माना है, इसलिए कहा है कि कोर्ट को इसमें दखल देने की जरूरत नहीं है। हालांकि जजों ने माना कि यह पाप है, इसलिए सरकार को इसमें दखल देना चाहिए और तलाक के लिए कानून बनाना चाहिए। दोनों ने कहा कि तीन तलाक पर छह महीने तक रोक लगनी चाहिए, इस बीच में सरकार कानून बना ले और अगर छह महीने में कानून नहीं बनता है तो यह रोक आगे भी जारी रहेगी। लेकिन यह अल्पमत का फैसला है और संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप तीन जजों- जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यू.यू. ललित का फैसला मान्य होगा।

तीन तलाक के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय की आज केवल शुरूआत हुई है लेकिन स्वयं महिलाओं और मुस्लिम समाज को भी अपने अधिकारों और कर्तव्यों को लेकर जागरूक होना होगा। तीन तलाक के खिलाफ से आवाजें हमेशा उठती रहीं हैं, लेकिन मुस्लिम समाज द्वारा इसे धर्म से जोड़ने की वजह से कोई राजनीतिक दल या सरकार इस पर दखल नहीं देती थी। हालांकि भाजपा इस मुद्दे पर शुरू से ही मुखर थी और स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में कई बार तीन तलाक से मिलकर लड़ने की बात कहते रहे हैं।

भाजपानीत सरकार बनने के बाद 7 अक्टूबर, 2016 को राष्ट्रीय विधि आयोग ने जब इस मसले पर लोगों की राय मांगी तो मामले में बहस शुरू हो गई और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसकी पुरजोर खिलाफत की। हालांकि महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक को समाप्त करने की वकालत की थी और कहा था कि मूल कुरान में कहीं भी तीन तलाक का जिक्र नहीं है, अत: इसे धर्म ले जोड़ना गलत है।

दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर खुद संज्ञान लेकर सुनवाई शुरू की थी और बाद में इससे संबंधित 6 अन्य याचिकाएं भी दाखिल हुईं जिनमें से पांच में तीन तलाक को खत्म करने की मांग की गई थी। लगातार सुनवाई में तीन तलाक के विरोध और पक्ष में दलीलें रखी गईं थीं और केंद्र सरकार ने तीन तलाक को महिलाओं के साथ भेदभाव बताते हुए इसे रद्द करने की मांग की थी। 30 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था कि इससे जुड़ी सभी याचिकाओं पर सुनवाई पांच जजों की संविधान पीठ करेगी, जिसमें सभी धर्मों के जज शामिल होंगे। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जे.एस. खेहर सिख समुदाय से हैं, जस्टिस कुरियन जोसेफ ईसाई हैं। आर.एफ. नरीमन पारसी हैं तो यू.यू. ललित हिंदू और अब्दुल नजीर मुस्लिम समुदाय से हैं। अदालत ने शुरू में ही कहा था कि यह मसला बहुत गंभीर है और इसे दशकों तक टाला नहीं जा सकता।

11 मई 2017 को इस मसले पर संविधान बेंच ने सुनवाई शुरू की थी। 6 दिनों तक इस मामले की लगातार सुनवाई के बाद 18 मई को कोर्ट ने इस पर फैसला सुरक्षित रख लिया। इस दौरान सभी पक्षों ने अपनी-अपनी दलीलें रखीं और मुस्लिम समुदाय के वकील कपिल सब्बल ने इसे पाप और अवांछित माना, लेकिन आस्था का विषय बताते हुए इसकी तुलना अयोध्या की राम जन्मभूमि से कर डाली और पर्सनल लॉ को संविधान का संरक्षण होने की दलील दी और कहा कि इसमें कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि केवल आस्था के आधार पर किसी गैर संवैधानिक कार्य या प्रथा को जारी नहीं रखा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के सामने ये सवाल थे- एक बार में तीन तलाक और निकाह-हलाला धर्म के अभिन्न अंग हैं या नहीं? दोनों मुद्दों को महिलाओं के मौलिक अधिकारों से जोड़ा जा सकता है या नहीं और कोर्ट इसे मौलिक अधिकार करार देकर आदेश लागू करवा सकता है या नहीं? मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला कानूनन वैध हैं या नहीं ?

सभी पक्षों में सहमति बनी थी कि व्यापक सामाजिक हित के मुद्दे पर जल्द सुनवाई होनी चाहिए। कोर्ट ने पहले ही साफ कर दिया था कि वह केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर ही सुनवाई करेगा। अदालत यूनिफॉर्म सिविल कोड के मसले पर विचार नहीं करेगी। 2015 में मामले पर संज्ञान लेते वक्त कोर्ट ने कहा था, “हमें यह देखना होगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में मौजूद तीन तलाक, बहुविवाह और हलाला जैसे प्रावधान संविधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं या नहीं? संविधान हर नागरिक को बराबरी का अधिकार देता है। कहीं इस तरह की व्यवस्था मुस्लिम महिलाओं को इस हक से वंचित तो नहीं करती?” मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत उलेमा ए हिंद जैसे संगठनों ने भी अर्ज़ी दायर कर अदालत में चल रही कार्रवाई बंद करने की मांग की थी। इन संगठनों की दलील थी कि पर्सनल लॉ एक धार्मिक मसला है। कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। केंद्र सरकार ने स्पष्ट स्टैंड लेते हुए कहा था कि पर्सनल लॉ संविधान से ऊपर नहीं है। उसके कुछ प्रावधान महिलाओं के बराबरी और सम्मान के साथ जीने के अधिकार का हनन करते हैं। इन्हें असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया जाना चाहिए।

विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ में सुधारों के सम्बन्ध में मांग उठती रहती है और समय-समय पर सुधार किये भी जाते रहे हैं और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विधायी परिवर्तनों के माध्यम से हिन्दू पर्सनल लॉ में कई प्रमुख सुधार किये थे। डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने अविभाजित हिन्दू परिवार में लैंगिक समानता के संबंध में विधायी परिवर्तन किये थे। इसी प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने हितधारकों के साथ सक्रिय विचार-विमर्श के बाद लैंगिक समानता लाने के सम्बन्ध में ईसाई समुदाय से संबंधित विवाह एवं तलाक के प्रावधानों में संशोधन किया था। पर्सनल लॉ में सुधार एक सतत प्रक्रिया है भले ही इसमें एकरूपता न हो। समय के साथ, कई प्रावधान पुराने और अप्रासंगिक हो गए हैं और उन्हें बदला जाता है लेकिन मुस्लिम समाज को लेकर राजनीतिक दलों की राय अलग रहती है और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की आड़ में समाज को बांटने का ही प्रयास करते हैं।

जैसे-जैसे समुदायों ने प्रगति की है, लैंगिक समानता का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। मुस्लिम महिलाओं को भी गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार है और सुप्रीम कोर्ट के आज के आदेश ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि भारतीय संविधान सर्वोपरि है और बाकी अन्य रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएँ, परम्पराएं सब इसके बाद हैं।

धार्मिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों और नागरिक अधिकारों के बीच एक बुनियादी अंतर है। जन्म, गोद लेने, उत्तराधिकार, विवाह, मृत्यु के साथ जुड़े धार्मिक कार्य मौजूदा धार्मिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न किये जा सकते हैं। लेकिन परम्पराएं, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएं और आस्था जब किसी अपराध या गलत कार्यों के महिमा मंडन का कारण बनने लगें तो उन्हें समाप्त करना या उन पर अंकुश बहुत जरूरी है।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कई दशकों से चली आ रही तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया है लेकिन इसके लिए सरकार को कानून एवं नियम बनाने होंगे क्योंकि केवल असंवैधानिक घोषित करने मात्र से इस पर रोक नहीं लगेगी। इस पर कानून बनने के बाद उसे तोड़ने वाले पर आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का प्रावधान करना होगा, तभी यह प्रथा रूकेगी। धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अत्याचार की इजाजत न भारतीय संविधान देता है और न ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड। लेकिन अशिक्षा के कारण समाज में जागरूकता का अभाव है। शिक्षा और जागरूकता से ही अंतत: बुराईयों से छुटकारा मिलेगा। अत: मुस्लिम समाज को शिक्षा पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

-सोनिया चोपड़ा

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बनेगा ‘न्यू इंडिया’, ‘ओल्ड’ के लिए नहीं होगी कोई जगह!

धर्म मनुष्य में मानवता जगाता है, लेकिन जब धर्म ही मानव के पशु बनने का कारण बन जाए तो दोष किसे दिया जाए धर्म को या मानव को ? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ताजा बयान का मकसद जो भी रहा हो लेकिन नतीजा अप्रत्याशित नहीं था। कहने को भले ही हमारे देश की पहचान उसकी यही सांस्कृतिक विविधता है लेकिन जब इस विविधता को स्वीकार्यता देने की पहल की जाती है तो विरोध के स्वर कहीं और से नहीं इसी देश के भीतर से उठने लगते हैं।

जैसा कि होता आया है, मुद्दा भले ही सांस्कृतिक था लेकिन राजनैतिक बना दिया गया। देश की विभिन्न पार्टियों को देश के प्रति अपने ‘कर्तव्यबोध’ का ज्ञान हो गया और अपने अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर बयान देने की होड़ लग गई। विभिन्न टीवी चैनल भी अपनी कर्तव्यनिष्ठा में पीछे क्यों रहते ? तो अपने अपने चैनलों पर बहस का आयोजन किया और हमारी राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के प्रवक्ता भी एक से एक तर्कों के साथ उपस्थित थे। और यह सब उस समय जब एक तरफ देश अपने 66 मासूमों की मौत के सदमे में डूबा है, तो दूसरी तरफ बिहार और आसाम के लोग बाढ़ के कहर का सामना कर रहे हैं।

कहीं मातम है, कहीं भूख है, कहीं अपनों से बिछड़ने का दुख है तो कहीं अपना सब कुछ खो जाने का दर्द। लेकिन हमारे नेता नमाज और जन्माष्टमी में उलझे हैं। सालों से इस देश में मानसून में कुछ इलाकों में हर साल बाढ़ आती है जिससे न सिर्फ जान और माल का नुकसान होता है बल्कि फसल की भी बरबादी होती है। वहीं दूसरी ओर कुछ इलाके मानसून का पूरा सीज़न पानी की बूंदों के इंतजार में निकाल देते हैं और बाद में उन्हें सूखाग्रस्त घोषित कर दिया जाता है। इन हालातों की पुनरावृत्ति न हो और नई तकनीक की सहायता से इन स्थितियों पर काबू पाने के लिए न तो कोई नेता बहस करता है न आंदोलन।

फसलों की हालत तो यह है कि अभी कुछ दिनों पहले किसानों द्वारा जो टमाटर और प्याज सड़कों पर फेंके जा रहे थे आज वही टमाटर 100 रुपए और प्याज तीस रुपए तक पहुँच गए हैं। क्योंकि हमारे देश में न तो भंडारण की उचित व्यवस्था है और न ही किसानों के लिए ठोस नीतियाँ। लेकिन यह विषय हमारे नेताओं को नहीं भाते। किसान साल भर मेहनत कर के भी कर्ज में डूबा है और आम आदमी अपनी मेहनत की कमाई महंगाई की भेंट चढ़ाने के लिए मजबूर। लेकिन यह सब तो मामूली बातें हैं! इतने बड़े देश में थोड़ी बहुत अव्यवस्था हो सकती है। सबसे महत्वपूर्ण विषय तो यह है कि थानों में जन्माष्टमी मनाई जानी चाहिए कि नहीं ? काँवर यात्राओं में डीजे बजना चाहिए कि नहीं ? सड़कों पर या फिर एयरपोर्ट पर नमाज पढ़ी जाए तो उससे किसी को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि किसी समुदाय विशेष की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं। मस्जिदों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद लाउड स्पीकर बजेंगे क्योंकि यह उनकी धार्मिक भावनाओं के सम्मान का प्रतीक है। मोहर्रम के जलूस को सड़कों से निकलने के लिए जगह देना इस देश के हर नागरिक का कर्तव्य है क्योंकि यह देश गंगा जमुना तहज़ीब को मानता आया है। लेकिन कांवरियों के द्वारा रास्ते बाधित हो जाते हैं जिसके कारण जाम लग जाता है और कितने जरूरतमंद लोग समय पर अपने गन्तव्यों तक नहीं पहुंच पाते। और इस यात्रा में बजने वाले डीजे ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं।

इस तरह की बातें कौन करता है ? क्या इस देश का किसान जो साल भर अपने खेतों को आस से निहारता रहता है, या फिर वो आम आदमी जो सुबह नौकरी पर जाता है और शाम को पब्लिक ट्रांसपोर्ट के धक्के खाता थका हारा घर आता है, या फिर वो व्यापारी जो अपनी पूंजी लगाकर अपनी छोटी सी दुकान से अपने परिवार का और माता पिता का पेट पालने की सोचने के अलावा कुछ और सोच ही नहीं पाता। या वो उद्यमी जो जानता है कि एक दिन की हड़ताल या दंगा महीने भर के लिए उसका धंधा चौपट कर देगा, या फिर वो गृहणी जिसकी पूरी दुनिया ही उसकी चारदीवारी है जिसे सहेजने में वो अपना पूरा जीवन लगा देती है, या फिर वो मासूम बच्चे जो गली में ढोल की आवाज सुनते ही दौड़े चले आते हैं, उन्हें तो नाचने से मतलब है धुन चाहे कोई भी हो।

जब इस देश का आम आदमी केवल शांति और प्रेम से अपनी जिंदगी जीना चाहता है तो कौन हैं वो लोग जो बेमतलब की बातों पर राजनीति कर के अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं ? अब जब न्यू इंडिया बन रहा है तो उसमें ‘ओल्ड’ की कोई जगह नहीं बची है। ये बातें और इस तरह की बहस पुरानी हो चुकी हैं इस बात को हमारे नेता जितनी जल्दी समझ जाएं उतना अच्छा नहीं तो आज सोशल मीडिया का जमाना है और यह पब्लिक है जो सब जानती है। बाकी समझदार को इशारा काफी है।

– डॉ. नीलम महेंद्र

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भारतीय रेलवे को इन ‘गंभीर लापरवाहियों’ से बचा लो प्रभु!

भारतीय परिवहन का प्रमुख तंत्र रेलवे पुन: एक बड़ी दुर्घटना के चपेट में आ गया। मुजफ्फरनगर के खतौली में कलिंग उत्कल एक्सप्रेस के 13 डिब्बे पटरी से उतरे, जिसमें कम से कम 30 लोग मर गए तथा 100 से ज्यादा घायल हुए। दुर्घटना की तसवीरों से ही स्थिति की भयावहता को समझा जा सकता है। खतौली रेलवे स्टेशन से आगे जहाँ हादसा हुआ, वहाँ पटरी की मरम्मत का कार्य चल रहा था। पटरी मरम्मत के औजार भी घटनास्थल पर पड़े हुए हैं, फिर भी चालक को इसकी कोई जानकारी नहीं दी गई तथा कलिंग उत्कल एक्सप्रेस चश्मदीदों के अनुसार 100 किमी/घंटा की ज्यादा गति से मरम्मत वाली पटरियों से गुजरी। जिससे यह हादसा तो तय ही था। इस दुर्घटना में रेल मंत्रालय की लापरवाही स्पष्टत: देखी जा सकती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह दुर्घटना तब घटी है, जब अगले ही माह सितंबर में भारत में बुलेट ट्रेन की नींव रखी जानी है। इस हादसे की भयावहता को इससे ही समझा जा सकता है कि रेल का एक डिब्बा बगल के घर में घुसते हुए चौधरी तिलक राम इंटर कॉलेज की बिल्डिंग में भी घुस गया। घर के अंदर के लोग भी इससे घायल हुए हैं।

आखिर मरम्मत वाली टूटी पटरियों पर रेलगाड़ी क्यों दौड़ी?

यह ट्रैक काफी दिनों से खराब था, जिसमें लगातार मरम्मत कार्य जारी था। चश्मदीदों के अनुसार एक माह पहले भी यहाँ एक बड़ी रेल दुर्घटना को स्थानीय लोगों की पहल से रोका गया था। उस समय भी रेल पटरी मरम्मत के कारण टूटे ट्रैक पर ट्रेन आ रही थी, जिसे लाल कपड़ा दिखाकर किसी तरह रोका गया। इस घटना से भी रेलवे ने कोई सीख नहीं ली। यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि मरम्मत के दौरान आखिर ट्रेन को चलने की अनुमति कैसे मिली। उस दिन भारी वर्षा हो रही थी, जिस कारण मजदूर नियत समय पर मरम्मत का कार्य नहीं कर पाए तथा वर्षा के कारण बीच में ही उन्होंने पटरी रिपेयरिंग का कार्य रोक दिया था, लेकिन लग रहा है इसके प्रक्रियात्मक पहलुओं का पालन नहीं किया गया। ऐसे में तो स्पष्ट है कि रेलवे की जानलेवा लापरवाही दुर्घटना का प्रमुख कारण बनी।

देश में रेल दुर्घटनाएँ क्यों होती हैं? कैसे होती हैं? इसके कारण और निदान नीति निर्माता से लेकर आम आदमी तक सभी को पता हैं। फिर भी हर वर्ष ये दुर्घटनाएँ होती हैं, उसकी जाँच होती हैं, बैठकें होती हैं, मुआवजे की घोषणाएँ होती हैं लेकिन स्थायी समाधान नहीं होता। इस बार भी मृतकों के परिजनों को 3.5 लाख रुपए, गंभीर रूप से घायलों को 50 हजार रुपए तथा सामान्य घायलों को 25 हजार रुपए के मुआवजे का रेल मंत्रालय ने ऐलान किया है।

दरअसल रेल दुर्घटनाओं का असर किसी भी अन्य दुर्घटनाओं से काफी ज्यादा होता है। भारतीय रेलवे अंतर्देशीय परिवहन का सबसे बड़ा माध्यम है। दुनिया के इस सबसे बड़े रेल नेटवर्क में से एक भारत में हर रोज सवा दो करोड़ से भी ज्यादा लोग रेल की सवारी करते हैं। ऐसे में भारतीय रेल को दुर्घटनाओं को रोकने के लिए तीव्रतम प्रयास करने होंगे तथा तब तक प्रयत्नशील होना होगा, जब तक रेलवे दुर्घटनाओं को शून्य तक नहीं पहुँचा दे।

सत्य को स्वीकार करने से बचता है रेलवे मंत्रालय

उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव (गृह) अरविंद जी ने स्वीकार किया कि घटनास्थल पर पटरी रिपेयरिंग का कार्य चल रहा था, परंतु रेलवे ने प्रारंभिक तौर पर रिपेयरिंग से इंकार किया है। रेलवे का कहना है कि जाँच रिपोर्ट के बाद ही सच्चाई का पता चलेगा। एक तरह से कमिटी बनाकर जांच के नाम पर मामले को टालने का प्रयत्न है। सबसे दुखद बात यह है कि रेलवे पूर्व में हुई दुर्घटनाओं से कोई सीख नहीं ले रहा है। जाँच समितियों की रिपोर्ट पर बाद में रेलवे द्वारा प्रभावी क्रियान्वयन की कमी से स्थिति में बदलाव नहीं आता है। ये रिपोर्टें बस धूल खाती रहती हैं। कार्रवाई के नाम पर रेलवे के कुछ छोटे कर्मियों की छुट्टी कर मामले को ठंडा करने से रेलवे का भला नहीं होगा। आवश्यकता है कि बड़े स्तर पर रेलवे की इस लापरवाही पर कार्रवाई कर जिम्मेवारी निर्धारित की जाए।

आज वैश्विक स्तर पर तकनीक के द्वारा दुर्घटनाओं को न्यूनतम करने के प्रयास हो रहे हैं, परंतु भारतीय रेलवे में ऐसे समुचित प्रयास कम ही हुए हैं। अगर सूक्ष्मता पूर्वक भारतीय रेल की दुर्घटनाओं का विश्लेषण किया जाए तो करीब 80 प्रतिशत भारतीय रेल दुर्घटनाओं का कारण मानवीय भूल या चूक होती है। इस दुर्घटना के बाद पुन: यह प्रश्न उठता है कि आखिर रेलवे लोगों को सुरक्षित रेल यात्रा कब उपलब्ध कराएगी ? कब तक हम लोग अपने प्रियजनों को यूँ ही खोते रहेंगे ? इन हादसों का जिम्मेदार कौन हैं ?

रेल में इस तरह की मानवीय त्रुटि को कैसे रोकें?

मानवीय चूक को रोकने के वैश्विक स्तर पर दो उपाय स्वीकार किए गए हैं- प्रथम आधुनिकतम तकनीक का प्रयोग कर मानवीय चूक को कम करना, द्वितीय- रेल कार्मिकों का उच्चस्तरीय प्रशिक्षण। अगर आधुनिकतम तकनीक की बात करें तो इसमें ‘यूबीआरडी’ प्रमुख है। रेलवे ने रेल पटरियों की सुरक्षा निगरानी हेतु दक्षिण अफ्रीका से एक खास तकनीक यूबीआरडी आयात की है, जिसमें ट्रांसमीटर एक तरंग छोड़ता है और अगर रिसीवर को वह तरंग नहीं मिलती है तो पता चल जाता है कि कहीं बीच में कोई समस्या है। इस प्रणाली से पटरी की बारीक चटक का भी पता लग जाता है। इसके अतिरिक्त आधुनिक “लिंक हाफमैन बुश” डिब्बे की अनुपस्थिति से भी हताहतों की संख्या में वृद्धि होती है। लिंक हॉफमैन बुश से युक्त डिब्बे पटरी से उतरने के बाद भी ज्यादा असरदार तरीके से झटकों और इसके प्रभाव को झेल सकते हैं और ये पलटते नहीं। इससे जानमाल के नुकसान में अप्रत्याशित कमी आती है।

मानवीय चूक रोकने का दूसरा प्रमुख उपाय रेलकर्मियों का उच्चस्तरीय प्रशिक्षण है। इस मामले में जिस तरह जानलेवा लापरवाही दिखी, उससे रेल कर्मियों में प्रशिक्षण की भारी कमी स्पष्टत: देखी जा सकती है। जब तेज रफ्तार वाली ट्रेन चल रही हो तो ट्रेन के दोनों ओर तैनात कुशल तकनीशयन द्वारा दूर से आ रही रेलगाड़ी की चाल, उसकी लहर व उसके नीचे से निकलने वाली अवांछित आवाजों तथा इंजन व गार्ड के मध्य सभी डिब्बों के बीच झटकों व उनके परस्पर खिंचाव आदि पर पैनी नजर रखनी चाहिए। साथ ही जिस ट्रैक से वह तीव्र गति ट्रेन गुजर रही हो उस पर भी पूरी चौकस नजर रखी जानी चाहिए। खतौली रेल दुर्घटना में तो पटरी मरम्मत तक की जानकारी ड्राइवर को नहीं मिली।

राहत कार्मियों को पहुँचने में विलंब लेकिन स्थानीय लोग दुर्घटनाग्रस्त यात्रियों के लिए बने देवदूत

आपदा प्रबंधन की तमाम तैयारियों की बातों के बीच भी दिल्ली से केवल 100 किमी दूर खतौली में दुर्घटना के कम से कम एक घंटे बाद ही राहत कार्य अधिकृत तौर पर शुरू हो पाया। मुजफ्फरनगर के खतौली निवासियों ने अपने स्तर पर घटना घटते ही बड़े पैमाने पर राहत और बचाव कार्य प्रारंभ कर दिया था। स्थानीय लोगों ने तीव्र गति से लोगों को बाहर निकाला और घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाया। पिछले कुछ समय से भीड़ अपने निर्दयी कारणों से चर्चा में थी, लेकिन खतौली में भीड़ का न केवल मानवीय पक्ष सामने आया अपितु दुर्घटना ग्रस्त यात्रियों के अनुसार वे देवदूत की ही भूमिका में थे।

एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर साल औसतन 300 छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाएँ होती हैं। जब भी कोई रेल दुर्घटना होती है, मुआवजे की घोषणा कर उसे भुला दिया जाता है। हमें इस प्रवृत्ति से बाहर आना होगा। रेलवे सुरक्षा के कई पहलू होते हैं, लेकिन प्रबंधन के स्तर पर सभी पहलू जुड़े रहते हैं। होता यह है कि रेलवे विभाग रेल सेवाओं में तो वृद्धि कर देता है, परंतु सुरक्षा का मामला उपेक्षित रह जाता है। राजनीतिज्ञों और प्रबंधकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि रेलवे सिस्टम को एक तय सीमा से ज्यादा न खींचा जाए। रेलवे सुरक्षा और सेवाओं के मध्य समुचित संतुलन बनाए जाने की जरूरत है। उम्मीद है कि इस वर्ष से अलग रेलवे बजट न होने के कारण रेल मंत्रालय के ऊपर लोकप्रिय निर्णय लेने का दबाव नहीं रहेगा और वह सुरक्षा पर समुचित खर्च कर सकेगी। अब समय आ गया है, जब भारतीय रेलवे सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करे, नहीं तो फिर हम लोग शायद किसी नयी दुर्घटना के बाद भी इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करते दिखें।

राहुल लाल

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लेख

छह दशकों से गीतों के जरिये जीवन में रंग भर रहे हैं गुलज़ार

“मेहनत तो हीरा बेचने वाले को भी करनी पड़ती है, हम तो फिर भी ख्याल बेच रहे हैं” एक 82 साल के बुज़ुर्ग शायर जिन्होंने बॉलीवुड के 6 दशकों में अपने गीतों से रंग भरा है, ने पिछले दिनों बैंगलुरु में हुए पोएट्री फेस्टिवल में युवा कवियों को संबोधित करते हुए यह कहा।

हैरानी होती है कि 82 साल की उम्र में भी उसी जवान जोश और ज़ज्बे से गुलज़ार अपनी महक बिखेर रहे हैं। 18 अगस्त 1934 में झेलम के पास जन्मे (अब पाकिस्तान) सम्पूरण सिंह कालरा ने पिता की नाराज़गी के बाद “गुलज़ार” तखल्लुस (पेन नेम) अपना लिया।

यूँ तो गुलज़ार ने 1957 से ही हिंदी फिल्मों के लिए गाने लिखने शुरू कर दिए थे पर 1963 में पहली बार गुलज़ार ने मशहूर संगीतकार एस.डी. बर्मन के साथ काम किया और ‘बंदनी’ फिल्म के मशहूर गाने “मोरा गोरा अंग लई ले” की रचना की। पांच दिनों में लिखे गए इस गीत में रविन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं की साफ़ छवि देखी जा सकती है।

‘बंदनी’ के बाद तो गुलज़ार ने बॉलीवुड में अपने गीतों की झड़ी लगा दी। आनंद, मेरे अपने, गुड्डी, बावर्ची, परिचय, नमक हराम, चुपके चुपके, मौसम, आंधी, गोलमाल, अंगूर, सदमा, मासूम, रुदाली, माचिस, दिल से, साथिया, ओमकारा और ना जाने कितने फिल्मों के गानों को गुलज़ार ने अपने लफ़्ज़ों से सजाया और उनके इस जौहर के लिए गुलज़ार को 20 दफा फिल्म फेयर से नवाज़ा गया। गुलज़ार आज भी फिल्मों के लिए गाने लिख रहे हैं।

इतनी शिद्दत के साथ काम करने की ताकत और नई सोच गुलज़ार लाते कहाँ से हैं, एक इंटरव्यू में इसका जवाब देते हुए गुलज़ार साब कहते हैं कि “अगर आप आज के तरोताजा ट्रेंड से वाकिफ नहीं रहेंगे तो बच नहीं पायेंगे और ये बात एक इंजिनियर, एक फोटोग्राफर के लिए जितनी सही है उतनी ही सही एक लेखक और कवि के लिए भी है।”

नई चीजों और नई भाषा को अपनाने में गुलज़ार कभी पीछे नहीं रहे हैं। साल 2014 में उन्होंने आज के ज़माने के पोपुलर पंजाबी गायक हनी सिंह के साथ “हॉर्न होके प्लीज” गाने की रचना की जिसमें उर्दू शायरी को नए रैप की शैली में पेश किया गया है।

एक ही वक़्त में अलग अलग मूड के हिसाब से अलग अलग लफ़्ज़ों और भाषाओं में लिखना गुलज़ार की खासियत है वरना कौन 2014 में एक फिल्म के गाने में लिख सकता है-

“गहरी गर्मी में शर्बत-ऐ-जमजम, रूह अफज़ा तू स्वीटा”

और फिर कुछ दिनों बाद दार्शनिक अंदाज़ में ज़िन्दगी से बात करते हुए लिखे-

“क्या रे ज़िन्दगी क्या है तू, तेरी कार्बन कॉपी हूँ मैं या मेरा आइना तू”

गीतों में अपनी खुशबु बिखरने के साथ साथ गुलज़ार ने फिल्म निर्माण और साहित्य में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। मशहूर लेखक/अनुवादक और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक प्रभात रंजन गुलज़ार के फिल्म निर्माण के बारे में कहते हैं कि “मुझे उनकी फिल्म “अचानक” सबसे अच्छी लगती है। 1973 में विनोद खन्ना को लेकर उन्होंने यह फिल्म बनाई थी। बहुत कम कास्ट के साथ एक कमाल की फिल्म है जिसमें डायलाग, गाने सब बहुत कम हैं। लेकिन बहुत अच्छी फिल्म है। यह उनकी सिग्नेचर स्टाइल से थोड़ी अलग हटकर भी है।” इस फिल्म की कहानी 1958 में हुए चर्चित हत्याकांड के.एम. नानावटी बनाम महाराष्ट्र पर आधारित थी।

गुलज़ार के आज की वक़्त में भी जनता के बीच पॉपुलर होने के सवाल पर प्रभात रंजन कहते हैं कि “गुलजार की सबसे बड़ी बात है कि वे लगातार contemporary बने रहे। हर दौर की भाषा में उन्होंने कुछ मीनिंग भरने की कोशिश की। आप देखिये अभी हाल में रंगून फिल्म में उन्होंने एक गीत लिखा था- ब्लडी हेल। meaninglessness को इतना मीनिंगफुल कोई समकालीन गीतकार नहीं बना सकता। वे हर समय के समकालीन बने रहे यही उनकी ताकत है।”

हर वर्ग और उम्र के लिए गुलज़ार ने अलग अलग वक़्त में अपने गीतों के तरकश से एक एक गीत चुन के निकाले हैं। गुलज़ार कभी उधम मचाते कूदते बच्चों के लिए हर इतवार मोंगली के संग चड्डी पहने फूलों को खिलाते हैं तो कभी दिल को बच्चा बना कर पहले प्यार की दुश्वारियों से गुजरते हैं।

गुलज़ार एक रॉक स्टार शायर हैं और इसलिए आज भी किसी कार्यक्रम में अगर वो शामिल होते हैं तो उनके वहाँ उनके चाहने वालों की भीड़ लग जाती है जिसमें अधिकतर युवा होते हैं, दरअसल आज गुलज़ार होना बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है एक 80 साल की इंसान का एक जवां दिल के ज़ज्बातों को लफ्ज़ देना और लिखना-

“हल्की हल्की आहें भरना,
तकिये में सर दे के धीमे धीमे,
सरगोशी में बातें करना,
पागलपन है ऐसे तुम पे मरना,”

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लेख

गोरखपुर में हुई मौतों पर राजनीति करने से बचें सभी पार्टियां

हिन्दुस्तान की सियासत का यह दुर्भाग्य है कि हमारे नेतागण हर मुद्दे को सियासी रंग देते हैं। समस्या कैसी भी हो, मुद्दा कोई भी हो, यहां हर बात में सियासत शुरू हो जाती है। चाहे जनहानि हो या फिर धनहानि, चाहे देश की सुरक्षा से जुड़ा मसला हो या फिर देश के स्वभिमान की बात, चाहे अतीत की गलतियां हो या फिर वर्तमान की खामियां, सब को हमारे सियासतदार राजनैतिक चोले से ढक देते हैं। बिना यह सोचे समझे कि इससे किसका कितना नुकसान होता है और किसको फायदा मिलता है। दुख की बात यह है कि सह सिलसिला आजादी के बाद से चला आ रहा है और आज तक बदस्तूर जारी है। बस फर्क इतना है कि कभी कोई सत्ता पर काबिज होता है तो कभी कोई, लेकिन जो आज विपक्ष में होता है वह पूरी बेर्शमी से अपना कल (अतीत) भूल जाता है। ऐसा ही कुछ गोरखपुर मेडिकल कालेज में काल के गाल में समा गये दर्जनों बच्चों के कथित ‘रहनुमा’ बनने वाले भी कर रहे हैं।

यह देख और सुनकर दुख होता है कि गोरखपुर में मारे गये बच्चों की मृत्यु के कारणों की जांच करने गये समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल में से किसी ने भी हकीकत नहीं उजागर की। सभी दलों के प्रतिनिधिमंडल में शामिल तमाम बड़े−बड़े नेताओं ने चंद मिनटों के दौरे में समझ लिया कि पूरे कांड के लिये योगी सरकार जिम्मेदार है। सीएम योगी सहित उनके मंत्रियों से इस्तीफा मांगने वालों की कतार ही लग गई। मानो ऐसा पहली बार हुआ हो। मौत के समय बात आंकड़ों की नहीं खामियों की होनी चाहिए, लेकिन आंकड़ों को समझे बिना हकीकत समझी भी नहीं जा सकती है। असल में पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह (एनसेफेलाइटिस बुखार) समस्या पुरानी है। हर साल इसी तरह से मौत का तांडव होता है। योगी जो आज तक गोरखपुर के सांसद हैं, लम्बे समय से एनसेफेलाइटिस के खिलाफ मुहिम चलाये हुए हैं, लेकिन इस बीमारी से निपटने के लिये जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, उस ओर न तो पूर्व की राज्य सरकारों ने तवज्जो दी, न ही केन्द्र की सरकारों ने कभी इसे गंभीरता से लिया। सीएम योगी की यह बात अगर सच है कि जब यूपीए की सरकार थी, तबके स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने इसे राज्य सरकार की जिम्मेदारी बता कर अपना पल्ला झाड़ लिया था तो यह बेर्शमी की हद थी।

बात इससे इतर की जाये तो सच्चाई यह भी है कि विरोध के नाम पर विरोध करने वाले सियासतदारों की वजह से ही दर्जनों बच्चों की मौतों के जिम्मेदारों के खिलाफ अभी तक पुख्ता कार्रवाई नहीं हो पाई है। अगर सपा, बसपा और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य मौत को लेकर इतने ही ईमानदार थे तो उन्हें तथ्यों के साथ उन डॉक्टर/अधिकारियों के नाम अपनी रिपोर्ट में देना चाहिए था, जो उनकी जांच में कुसूरवार पाये गये हों। लेकिन इस सबका पता लगाने का तो समय ही किसी के पास नहीं था। सिर्फ सियासत चमकानी थी तो चमकाई गई। शायद, ऐसे ही व्यवहार की वजह से यह दल और उनके आका जनता की नजरों से दूर होते जा रहे हैं। विपक्ष द्वारा जैसा रवैया बच्चों की मौत पर अख्तियार किया जा रहा है, कमोवेश ऐसा ही रवैया यह नेतागण आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, धार्मिक उन्माद, प्राकृतिक आपदाओं के समय भी अपनाते हैं। कुछ नेताओं की तो पहचान ही बन गई है, जो ऐसे दुखद मौकों पर सियासत करने के लिये मैदान में कूद पड़ते हैं और फिर न जाने कहां चले जाते हैं। ऐसे बयान बहादुरों से न तो देश का भला होता है, न जनता को कोई फायदा पहुंचता है। मगर, यह नेता समझने को तैयार ही नहीं हैं कि समय बदल गया है।

बात बीते दिनों दर्जनों बच्चों की मौत को लेकर चर्चा में आए गोरखपुर मेडिकल कॉलेज की कि जाये तो यहां भी कुछ ऐसे ही हालात पैदा कर दिये गये हैं। यहां तमाम दलों के नेताओं का जमावड़ा लगा। योगी आदित्यनाथ भी पहुंचे और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा भी। इससे पहले योगी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह भी पूरा मामला समझने आये थे, लेकिन वह मीडिया से रूबरू होते समय ऐसे आंकड़ों में उलझे कि योगी सरकार की किरकिरी ही करा बैठे। गोरखपुर से योगी का जुड़ाव सब जानते हैं। वह यहां के प्रतिनिधि ही नहीं हैं। गोरखधाम के प्रमुख भी है। योगी की यहां बारीक पकड़ है। वह उस मेडिकल कालेज में तमाम बार जा चुके हैं जो आजकल चर्चा में है। दर्जनों बच्चों की मौत के बाद गोरखपुर पहुंचे योगी ने यह बात सबको समझाने की पूरी कोशिश की कि वह तो इस बीमारी के खिलाफ कब से मुहिम चलाये हुए हैं। मेडिकल कॉलेज का दौरा करने के बाद सीएम योगी ने दोषी लोगों के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई की बात कही, जिस पर अविश्वास की कोई वजह नहीं हो सकती है। वह अपेक्षा के अनुरूप भी है, लेकिन आवश्यकता इसकी बात की भी है कि पूरे प्रकरण की जांच तो हो ही आगे से ऐसी घटना कहीं और न दोहराई जाये, इसके लिये अभी से सख्त कदम उठाये जायें। अफसोस तो इस बात का भी है कि चार दिन पहले ही मुख्यमंत्री मेडिकल कॉलेज का निरीक्षण करके आये थे। स्पष्ट है कि वह उस अव्यवस्था से अवगत नहीं हो सके जो वहां व्याप्त थी। सार यही है कि सीएम योगी यहां के स्टाफ का शातिराना व्यवहार समझ नहीं पाये।

दरअसल, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ऐसे निरीक्षण ज्यादा सफल नहीं रहते हैं। इसीलिए जरूरत औचक अथवा औपचारिक निरीक्षण की नहीं, बल्कि व्यवस्था में मूलभूत सुधार की है, जिसके लिये सबको मिल जुलकर कर प्रयास करना होगा। यह दुखद है कि एक ओर तो अपने देश में सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की दशा बहुत दयनीय है और दूसरी ओर पिछले कई वर्षों में इस ढांचे को भ्रष्टाचार का घुन खोखला किये जा रहा है। एनएचआरएम घोटाला इसकी सबसे बड़ी बानगी है, जिसमें कई मंत्री और नेता फंसे हुए हैं।

इससे भी संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि जगह−जगह नये एम्स बन जायें। हर कोई जानता और समझता है कि मौजूदा एम्स वह चाहे दिल्ली का हो या अन्य शहरों का, तमाम समस्याओं से घिरे हुए हैं। यहां भी मरीजों को लम्बी वेटिंग से जूंझना पड़ता है। तमाम मरीज तो इलाज के इंतजार में ही दम तोड़ देते हैं। देश की राजधानी दिल्ली स्थित एम्स में गंभीर बीमारी से ग्रस्त तमाम मरीजों को ऑपरेशन के लिए दो−दो साल बाद की तिथि मिल़ रही है। जब दिल्ली के एम्स में यह स्थिति हो तब फिर देश के अन्य हिस्सों में एम्स का क्या हाल होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। नामी अस्पतालों से हटकर नीचे देखा जाये तो तमाम सरकारी अस्पतालों अथवा मेडिकल कॉलेजों कि स्थिति तो और भी बदतर है। प्राइमरी हेल्थ सेंटरों को तो उससे भी बुरा हाल है। यहां तो डॉक्टर ही नहीं मिलते हैं। सरकारी अस्पताल आम तौर पर अव्यवस्था के पर्याय बनते जा रहे हैं, जिसका फायदा उठाकर निजी अस्पताल मालामाल हो रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में कदम−कदम पर मरीजों की उपेक्षा−अनदेखी आम बात है। इससे भी अफसोस की बात यह है इन सरकारी अस्पतालों के आसपास ऐसे दलाल टहलते रहते हैं जो दूर−दराज से आये मरीजों को बहला−फुसला कर अपने यहां ले जाते हैं और अक्सर मोटी कमाई करके उन्हें असहाय छोड़ देते हैं। इन दलालों का पूरा नेटवर्क काम करता है जिसे स्वास्थ्य विभाग के बड़े अधिकारी हमेशा अनदेखा करते हैं तो तमाम डॉक्टर इनको शह देते हैं।

कई बार तो ऐसा लगता है कि धरती का यह भगवान शैतान बन गया है। पूरा का पूरा चिकित्सीय तंत्र सेवा भाव से ही विमुख हो गया है। यह पहली बार नहीं है जब मेडिकल कॉलेज में अव्यवस्था−अनदेखी से मरीजों की अस्वाभाविक मौत के बाद हंगामा हो रहा है, लेकिन इससे कभी सबक नहीं लिया गया। चाहे केंद्र सरकार हो अथवा राज्य सरकारें, वे स्वास्थ्य तंत्र में सुधार का कोई ऐसा उदाहरण पेश नहीं कर पा रही हैं जो सरकारी स्वास्थ्य ढांचे के लिए अनुकरणीय साबित हो सके।

किसी भी अस्पताल में गंभीर बीमारी से ग्रस्त मरीजों की मौतें होना स्वाभाविक है, लेकिन दुख तब होता है जब मौत की वजह लापरवाही होती है। ऐसी मौतों के पीछे की लापरवाही पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज की घटना उत्तर प्रदेश सरकार के साथ−साथ केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों के लिये कुछ और सख्त कानून बनाये जायें। इसके साथ−साथ जो कानून ताक पर रख दिये गये हैं उन्हें भी प्रयोग में लाया जाये, ताकि भविष्य में इस तरह की मौतें नहीं हों। पूरी दुनिया में मां−बाप के सामने बच्चे की अर्थी उठने से बड़ा कोई गम हो ही नहीं सकता है। बच्चों की मौत क्यों हुई इसकी जांच करके जल्द से जल्द दोषियों को जेल की सलाखों के पीछे भेजना योगी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। बच्चों की ऐसी दर्दनाक मौतों पर सियासत करने वालों को भी कम से कम भगवान से तो डरना ही चाहिए।

यह है जापानी एनसेफेलाइटिस

गोरखपुर में दर्जनों मौत की वजह बना जापानी एनसेफेलाइटिस बुखार संक्रमित मच्छरों के काटने से होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस से संक्रांत पालतू सूअर और जंगली पक्षियों के काटने पर मच्छर संक्रांत हो जाते हैं। इसके बाद संक्रांत मच्छर पोषण के दौरान जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस काटने पर मानव और जानवरों में जाते हैं। जापानी एनसेफेलाइटिस के वायरस का संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं होता है। उदारहण के लिए आपको यह वायरस किसी उस व्यक्ति को छूने या चूमने से नहीं आ सकता जिसे यह रोग है या किसी स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी से जिसने किसी इस प्रकार के रोगी का उपचार किया हो। केवल पालतू सूअर और जंगली पक्षी ही जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस फैला सकते हैं।

बात इसके लक्षणों की कि जाये तो यह सिर दर्द के साथ बुखार को छोड़कर हल्के संक्रमण में और कोई प्रत्यक्ष लक्षण नहीं होता है। गंभीर प्रकार के संक्रमण में सिरदर्द, तेज बुखार, गर्दन में अकड़न, घबराहट, कोमा में चले जाना, कंपकंपीं, कभी−कभी ऐंठन (विशेष रूप से छोटे बच्चों में) और मस्तिष्क निष्क्रिय (बहुत ही कम मामले में), पक्षाघात होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस की संचयी कालवधि सामान्यतः 5 से 15 दिन होती है। इसकी मृत्युदर 0.3 से 60 प्रतिशत तक है।

इस बुखार की कोई विशेष चिकित्सा नहीं है। यह रोग अलग अलग देशों में अलग अलग समय पर होता है। क्षेत्र विशेष के हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले, वहां प्रतिनियुक्त सक्रिय ड्यूटी वाले सैनिक और ग्रामीण क्षेत्रों में घूमने वालों को यह बीमारी अधिक होती है। शहरी क्षेत्रों में जापानी एनसेफेलाइटिस सामान्यतः नहीं होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस के लिए भारत में निष्क्रिय मूसक मेधा व्युत्पन्न (इनएक्टीवेटेड माउस ब्रेन−डिराइव्ड जेई) जापानी एनसेफेलाइटिस टीका उपलब्ध है।

– अजय कुमार

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लेख

आने वाले 70 सालों में भी कश्मीर समस्या का हल मुश्किल

आजादी का जश्न मुझे अपने गृह−नगर में बिताए गए दिनों की याद दिला देता है। मैं कानून की डिग्री हासिल करने के बाद वकील बनने की तैयारी में था, लेकिन बंटवारे ने मेरी सारी योजना बिगाड़ दी। इसने मुझे वह जगह छोड़ने को मजबूर कर दिया, जहां मैं पैदा हुआ और मेरी परवरिश हुई। मैं जब भी इस बारे में सोचता हूं, यह एक उदासी भरी याद होती है।

लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि इससे हिंदुओं और मुसलमानों का संबंध ज्यादातर बेअसर रहा। मेरे पिताजी, जो चिकित्सक थे, ने जब भी सियालकोट छोड़ने की सोची, उन्हें रोक लिया गया। एक दिन उन्होंने लोगों को बिना बताए यात्रा का फैसला किया। वे लोगों की नजर में आए बगैर ट्रेन में चढ़ गए। कुछ देर बाद, पड़ोस के कुछ नौजवानों ने उन्हें पहचान लिया और उनसे आग्रह किया कि वे नहीं जाएं। मेरे पिताजी ने कहा कि वे सिर्फ अपने बच्चों से मिलने जा रहे हैं, जो पहले से दिल्ली में हैं और जल्द ही लौट आएंगे। लेकिन नौजवान हठ कर रहे थे कि वे यात्रा नहीं करें। कुछ समय में, वे मान गए और उन्होंने मेरे माता−पिता से एक दिन बाद उसी ट्रेन से जाने के लिए कहा। उन्होंने खुले तौर पर स्वीकार किया कि पास के नरोवाल ब्रिज पर इस ट्रेन के सभी यात्रियों की हत्या की योजना है।

और ऐसा हुआ। दूसरे दिन वे हमारे यहां आए और उन्होंने हमारे माता−पिता से कहा कि वे यात्रा कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि इसका इंतजाम किया गया है कि उनका सफर सुरक्षित रहे। उन्होंने न केवल मेरे बीमार माता−पिता को पैदल पुल पार करने में मदद की, बल्कि उन्हें सरहद पर अलविदा भी कहा।

मैं कुछ दिनों तक वहीं रूक गया था। मैंने वाघा जाने के लिए एक दूसरी सड़क वाला रास्ता लिया। एक ब्रिगेडियर, जिसका तबादला भारत में हो गया था, जाने से पहले, मेरे पिताजी से यह कहने आया था कि क्या वह कोर्इ मदद कर सकता है। मेरे पिताजी ने मेरी ओर देख कर ब्रिगेडियर से कहा था कि वह मुझे सरहद के पार ले जाए। मैंने सामानों से लदी एक जीप में पीछे बैठकर यात्रा की।

सियालकोट अमतृसर जाने वाली मुख्य सड़क से थोड़ा हट कर है। लेकिन, मैं यह देख कर भौंचक्का था कि यह सड़क सैंकड़ों लोगों से भरी हुई थी। एक छोटी सी धारा पाकिस्तान में प्रवेश कर रही थी और, हमारी, बड़ी धारा अमतृसर की ओर जा रही थी। एक चीज पक्की थी कि वापसी नहीं हो सकती थी। मैंने लाशों की बदबू महसूस की। लोग जीप को रास्ता दे देते थे।

एक जगह, लहराती दाढ़ी वाले एक बूढ़े सिख ने हमें रोका और हम से अपने पोते को उस पार ले जाने का आग्रह किया। मैंने उसे कहा कि मैंने अभी−अभी पढ़ाई पूरी की है और एक बच्चे को नहीं पाल सकता। उसने कहा कि इससे कोर्इ फर्क नहीं पडत़ा और आग्रह किया कि मैं उसे शरणार्थी शिविर में छोड़ दूं। सिख ने कहा कि वह जल्द ही शरणार्थी शिविर में अपने पोते के पास आ जाएगा। मैंने उसे मना कर दिया और आज भी उसका लाचार चेहरा मुझे परेशान करता है।

सियालकोट में, एक अमीर मुसलमान गुलाम कादर, ने अपने बंगले खोल दिए और मेरे पिता से कहा कि वे इसे तब तक अपने पास रखें, जब तक शहर में वह चीजें सुरक्षित महसूस न करें। बंगला खुद एक शरणार्थी शिविर बन गया और एक समय हम सौ लोग उसमें रहते थे। कादर हम सभी लोगों को राशन मुहैया करते थे और हमारा दूध वाला नियमित दूध पहुंचाता था।

जब मैंने सरहद पार की तो मेरे पास सिर्फ एक छोटा थैला था जिसमें एक जोड़ी कपड़ा और 120 रूपए थे जो मेरी मां ने दिए थे। लेकिन मेरे पास बीए (आनर्स) और एलएलबी की डिग्री थी और मुझे यकीन था कि मैं अपनी जिंदगी फिर से बना लूंगा। लेकिन मैं अपने पिता को लेकर चिंतित था कि उन्हें जालंधर में फिर से सब कुछ शुरू करना था। और, वह कम दिनों में बहुत लोकप्रिय हो गए और सुबह से शाम तक मरीज उन्हें घेरे रहते थे।

मैं दिल्ली चला आया, जहां दरियागंज में मेरी मौसी रहती थी। जामा मस्जिद काफी नजदीक था और मैं यहीं खाता था क्योंकि यहां बढ़िया मांसाहारी भोजन सस्ता मिलता था। वहीं मेरी किसी से मुलाकात हो गई जो मुझे उर्दू अखबार, अंजाम में ले गया। और इस तरह मैंने पत्रकारिता में अपना कैरियर शुरू किया। बाकी इतिहास है।

लेकिन मैं उस पर ज्यादा चर्चा करना नहीं चाहता। क्या बंटवारा जरूरी था क्योंकि इसने दोनों तरफ दस लाख लोगों की जान ली? वह कड़वापन जारी है और वे अभी भी दुश्मनी के साथ जीते थे। भारत और पाकिस्तान तीन युद्ध, 1965, 1971 और 1999 में, लड़ चुके हैं। आज भी सीमा दुश्मनी से भरी है और सशस्त्र सैनिक गोली चलाने के लिए हरदम तैयार रहते हैं।

हमने आजादी का 70वां दिवस मना लिया है। लेकिन सीमा पर नरमी, जिसकी मैंने कल्पना की थी, के बदले कंटीले तार हैं और हर समय गश्त जारी रहती है। लंबी सीमा पर सरगर्मी कभी कम नहीं होती। दोनों देशों के बीच कोर्इ बातचीत नहीं है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि इस्लामाबाद से बातचीत नहीं हो सकती क्योकि वह घुसपैठियों को प्रोत्साहित करता है।

पाकिस्तान कहता है कि वे इसके हिस्सेदार नहीं हैं और घुसपैठियों की गतिविधियों पर उसका कोर्इ नियंत्रण नहीं है। इसलिए दोनों पड़ोसी देश अभी भी एक दूसरे से दूर हैं, बिना संपर्क के। वीजा पाना बहुत कठिन हो गया है। दोनों तरफ, रिश्तेदार और दोस्त असली पीड़ित हैं।

पाकिस्तान किसी तरह के संबंध के पहले कश्मीर की समस्या का समाधान चाहता है। कश्मीर खुद एक लंबी कहानी है क्योंकि बंटवारे का फार्मूला सिर्फ भारत और पाकिस्तान को मान्यता देता है। कश्मीर घाटी की आजादी, जो वहां के लोग चाहते हैं, पर फिर से विचार और इसके बारे में सोचने के लिए इसमें कोर्इ प्रावधान नहीं है। वास्तविकता है कि अपना लक्ष्य पाने के लिए उन्होंने बंदूक उठा लिए हैं।

हाल ही में, मैं उनमें से कुछ से श्रीनगर में मिला और पाया कि वे घाटी को आजाद इस्लामिक राष्ट्र बनाने का हठ किए हैं। वे इस पर कितनी भी दलील को स्वीकार नहीं करते कि यह संभव नहीं है। मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कश्मीर को आजादी देने के किसी प्रस्ताव पर हमारी संसद विचार करेगी। पाकिस्तान मानता है कि यह उसके लिए जीवन−रेखा है।

इसलिए, मैं आगे आने वाले 70 सालों में भी समस्या का कोर्इ हल नहीं देख पाता हूं, उतना ही समय जो एक दूसरे पर गोली चलाने में हमने बर्बाद कर दिया है। पहली चीज होनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ में दी गई याचिका वापस ली जाए और पाकिस्तान को आश्वस्त किया जाए कि भारत इस्लमाबाद के साथ शांति और अच्छे संबंध चाहता है। शायद दोनों तरफ के मीडिया प्रमुख आमने−सामने बैठें और कोई ठोस प्रस्ताव तैयार करें, अगर यह संभव है।

-कुलदीप नायर

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लेख

अभिशाप है अनुच्छेद 35-ए, इसे हटाने का यही है सही वक्त

जम्मू-कश्मीर में अशांति का सबसे बड़ा कारण धारा 370 एवं अनुच्छेद 35-ए है। इन्हीं दोनों के कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा हासिल है, जिसकी आड़ में कश्मीरी अलगाववादी पाकिस्तान की शह पर कश्मीरी नौजवानों को बरगलाकर कश्मीर की आजादी के नाम पर उग्रवाद की ओर धकेल रहे हैं। देश का हित चाहने वाले जम्मू-कश्मीर सहित देशभर के लोगों को मोदी सरकार से उम्मीद है कि वह कड़ा कदम उठाकर धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर में धारा 370 एवं 35-ए हटाकर शांति बहाली और उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगी। दरअसल धारा 370 एवं अनुच्छेद 35-ए की आड़ में दो क्षेत्रीय पार्टियों के नेता लोगों की भावनाओं को भड़का कर अर्धदशक से भी ज्यादा समय से प्रदेश में जमे हुए हैं और प्रदेश विकास की दौड़ में सम्पूर्ण भारत से बहुत पीछे छूट गया है।
अनुच्छेद 35-ए की आड़ में तो जम्मू-कश्मीर की लड़कियों का ही नहीं बल्कि भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से आये शर्णार्थियों से भी भेदभाव किया जाता रहा है। संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी कानून या संविधान संशोधन संसद के दोनों सदनों में पारित किये बिना लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन कहा जाता है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रपति के विशेष आदेश से इसे जम्मू-कश्मीर में लागू करवा दिया था, जिसका दंश दशकों बाद भी जम्मू-कश्मीर की लड़कियों और वहां की जनता को झेलना पड़ रहा है। अब जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो न्याय की उम्मीद की जा सकती है।

भाजपा के कई प्रवक्ता और नेताओं का इस पर स्पष्ट रूख है कि भेदभाव करने वाला कोई भी कानून या प्रथा समाप्त होनी चाहिए और यही स्टैंड उनका तीन तलाक के मामले पर भी है। धारा 370 एवं 35-ए के मामले में जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला असमंजस में हैं और उन्हें लगता है कि केन्द्र की भाजपानीत सरकार सुप्रीम कोर्ट में इसे समाप्त करने की वकालत कर सकती है और इसी वजह से महबूबा मुफ्ती एवं फारूक अब्दुल्ला दिल्ली में लॉबिंग कर रहे हैं और महबूबा मुफ्ती तो यहां तक कह गईं कि यदि ऐसा हुआ तो कोई भारत का तिरंगा झंडा जम्मू-कश्मीर में कोई नहीं उठायेगा लेकिन जब जम्मू-कश्मीर में सैन्य बलों पर वहां के स्थानीय नागरिक पत्थरबाजी करते हैं तो वह खामोश रहती हैं। दरअसल इस सबका सबसे ज्यादा फायदा दशकों से अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार उठाता आ रहा है और उन्हें, उनकी पार्टियों और अलगाववादियों को ही इससे तकलीफ है। यही फारूक अब्दुल्ला कश्मीरी जनता के प्रतिनिधि के तौर पर केवल 7 प्रतिशत वोट पड़ने के बावजूद सांसद बन गये हैं और भारत सरकार की सारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। दरअसल कश्मीर की जनता भी अपने इन नेताओं के ऊपर से भरोसा खो चुकी है। इसलिए दोनों ही पार्टियां समय-समय पर अलगाववादियों के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर में अपने निजी एजेंडे के तहत जनता को उकसा कर अपना हित साधती रही हैं। अत: इस आशंका मात्र से कि यह धारा हटने से उनकी राजनैतिक विरासत खतरे में पड़ जायेगी, दोनों ही पार्टियों के नेता विपक्ष के साथ लॉबिंग में जुट गये हैं ताकि भाजपा पर दबाव बनाया जा सके। दोनों ही पार्टियों के नेता कश्मीर की जनता को भड़काने वाले बयान दे रहे हैं।

कानून-व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है और सैन्य बलों की संभावित तैनाती भी राज्य सरकार की सहमति से ही होती है। आजकल कश्मीर से इस प्रकार की खबरें आनी शुरू हुई हैं कि सैन्य बलों के साथ मुठभेड़ों में मरने वाले आतंकवादियों के जनाजे में बड़े-बड़े ईनामी आतंकवादी हथियारों का प्रदर्शन करते हुए खुलेआम शामिल हो रहे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसकी स्थानीय प्रशासन और विशेषकर पुलिस को जानकारी होगी ही, लेकिन उनका मूक समर्थन उन्हें हासिल है और यही कारण है कि जब सैन्य बलों को आतंकवादियों के छुपने का पता चलता है और मुठभेड़ शुरू होती है तो पत्थरबाजों की भीड़ इसमें बाधा डालने का प्रयास करती है। उग्रवाद के चरम दौर में भी ऐसी स्थिति नहीं थी।

दरअसल 1947 में बंटवारे के दौरान पाकिस्तान से लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत आए थे। यह लोग देश के कई हिस्सों में बस गये थे और आज वहीं के नागरिक बन चुके हैं। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, चेन्नई, उत्तर प्रदेश या जहां कहीं भी यह लोग बसे, आज वहीं के स्थायी निवासी बन गये हैं। जम्मू-कश्मीर में कई दशक पहले बसे यह लोग आज भी शरणार्थी ही कहलाते हैं और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित हैं। 1947 में हजारों लोग पश्चिमी पकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे। इन हिंदू परिवारों में लगभग 80 प्रतिशत दलित थे। आज भी इन्हें न तो स्थानीय चुनावों में वोट डालने का अधिकार है, न सरकारी नौकरी पाने का और न ही सरकारी कॉलेजों में दाखिले का अधिकार दिया गया है।
यह स्थिति सिर्फ पश्चिमी पकिस्तान से आए इन हजारों परिवारों की ही नहीं बल्कि लाखों अन्य लोगों की भी है। इनमें गोरखा समुदाय के वह लोग भी शामिल हैं जो बीते कई सालों से जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं। इनसे भी बुरी स्थिति वाल्मीकि समुदाय के उन लोगों की है जो 1957 में यहां बसाये गये थे। उस समय इस समुदाय के करीब 250 परिवारों को पंजाब से जम्मू-कश्मीर बुलाया गया था। इन्हें विशेष तौर से सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त करने के लिए यहां लाया गया था। बीते 60 सालों से यह लोग यहां सफाई का काम कर रहे हैं। लेकिन इन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता है। इनके बच्चों को सरकारी व्यावसायिक संस्थानों में दाखिला नहीं दिया जाता है और किसी तरह अगर कोई बच्चा किसी निजी संस्थान या बाहर से पढ़ भी जाए तो यहां उन्हें सिर्फ सफाई कर्मचारी की ही नौकरी मिल सकती है।

जम्मू-कश्मीर में रहने वाले ऐसे लाखों लोग भारत के नागरिक तो हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता है। यह लोग लोकसभा के चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर में पंचायत से लेकर विधानसभा तक किसी भी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं दिया गया है। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि यह लोग भारत के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन जिस राज्य में कई सालों से रह रहे हैं वहां के ग्राम प्रधान भी नहीं बन सकते।

दरअसल तत्कालीन सरकार के प्रस्ताव पर 14 मई, 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति के एक आदेश के जरिये भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35-ए जोड़ दिया गया है। यही आज लाखों लोगों के लिए अभिशाप बन चुका है। अनुच्छेद 35-ए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा तय कर सके और उन्हें चिन्हित कर विभिन्न विशेषाधिकार भी दे सके। इसी अनुच्छेद से जम्मू और कश्मीर की विधानसभा ने कानून बनाकर लाखों लोगों को शरणार्थी मानकर हाशिये पर धकेल रखा है ताकि उनकी राजनीति पर कोई आंच न आये।
भारतीय संविधान की बहुचर्चित धारा 370 जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार देती है। 1954 के जिस आदेश से अनुच्छेद 35-ए को संविधान में जोड़ा गया था, वह आदेश भी अनुच्छेद 370 की उपधारा (1) के अंतर्गत ही राष्ट्रपति द्वारा पारित किया गया था। इसे मुख्य संविधान में नहीं बल्कि परिशिष्ट (अपेंडेक्स) में जोड़ा गया है ताकि इसकी संवैधानिक स्थिति का पता ही न चल सके। भारतीय संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ देना सीधे-सीधे संविधान को संशोधित करना है। अनुच्छेद 35-ए दरअसल अनुच्छेद 370 से ही जुड़ा है और इस बार मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सरकार भी अपना पक्ष रखने वाली है और उम्मीद है कि सरकार इसकी समाप्ति का समर्थन करेगी लेकिन फिलहाल अटार्नी जरनल वेणुगोपाल ने कोर्ट में कहा है कि केन्द्र सरकार इस पर कोई हलफनामा दायर नहीं करना चाहती, क्योंकि इस पर विस्तृत बहस की जरूरत है और इसे बड़ी बेंच के पास भेजा जाना चाहिए क्योंकि इसमें संवैधानिक मुद्दे जुड़े हैं, जिसके बाद मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय बेंच सुनवाई कर रही है।

भारतीय जन संघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 के खिलाफ लड़ाई लड़ने का बीड़ा उठाया था और उन्होंने इस लड़ाई को आगे ले जाने के लिए 1951 में भारतीय जन संघ की स्थापना की थी। बाद में 1980 में इसका नाम बदलकर भारतीय जनता पार्टी रख दिया गया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस संवैधानिक प्रावधान के खिलाफ़ थे और उन्होंने कहा था कि इससे भारत छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट रहा है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1953 में भारत प्रशासित कश्मीर के दौरे पर गए थे और वहां कानून लागू था कि भारतीय नागरिक जम्मू-कश्मीर में नहीं बस सकते और वहां प्रवास के दौरान उन्हें अपने साथ पहचान पत्र रखना जरूरी था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तब इस क़ानून के खिलाफ भूख हड़ताल की थी। वह जम्मू-कश्मीर जाकर अपनी लड़ाई जारी रखना चाहते थे लेकिन उन्हें जम्मू-कश्मीर के भीतर घुसने तक नहीं दिया गया था और अंतत: उन्हें नेहरू और शेख अब्दुल्ला के इशारे पर गिरफ्तार कर लिया गया था। 23 जून 1953 को हिरासत के दौरान ही उनकी संदिग्ध अवस्था में मौत हो गई थी।

प्रवास के दौरान पहचान पत्र रखने के प्रावधान को बाद में कानूनन रद्द कर दिया गया। लेकिन तब से लेकर अब तक भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता और स्वयंसेवक लगातार कहते आये हैं कि भाजपा की सरकार बनने पर धारा 370 समाप्त होगी। पहले मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की अगुवाई में सरकार बनी थी, तब इस पर कोई विचार ही नहीं हुआ और फिर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 14 दलों की सरकार बनने पर भी इस पर कुछ नहीं हो सका, लेकिन इस बार धारा 370 एवं 35-ए के प्रावधानों से त्रस्त लोगों को उम्मीद बंधी है कि भाजपा नेतृत्व जम्मू-कश्मीर पर कोई भी फैसला करने में सक्षम है और अब तो संसद के दोनों ही सदनों में भाजपा को पूर्ण बहुमत हासिल है और वह कोई भी निर्णय लागू करने में पूरी तरह सक्षम है, जिसे राज्य में कठोरता से लागू किया जा सकता है। आज जम्मू-कश्मीर जिस स्थिति में है और सुरक्षा बल विकट स्थिति से जूझ रहे हैं, उससे ज्यादा खराब हालात होने की उम्मीद नहीं की जा सकती और यदि हालात बिगड़ने के डर से कोई कानून लागू करने में सरकार खुद को अक्षम पाती है तो फिर जम्मू-कश्मीर ही नहीं देश के दूसरे हिस्सों में भी स्थिति बिगड़ने के अंदेशे से कोई कानून लागू ही नहीं किया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले पर गंभीर रूख अपना सकता है। सुप्रीम कोर्ट सर्वथा सर्वशक्तिमान है और जैसा कि उन्होंने ज्यूडिशियल एकांऊटेबलिटी बिल मामले में साबित किया है। सुप्रीम कोर्ट जब एक ऐसे कानून को रद्द कर सकता है जो दोनों सदनों से पास होकर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से कानून बन चुका है तो इस प्रकार के जनहित के मामले पर कड़ा रूख अपनाकर भी यह संदेश दे सकता है कि भारत एक है और इसका संविधान भी एक है तो फिर जम्मू-कश्मीर में ही नागरिकों से भेदभाव क्यों हो?

-सोनिया चोपड़ा

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लेख

अंसारी साहब आपने कुछ प्रेरणा डॉ. कलाम से ही ले ली होती

देश के शीर्षस्थ पदों में से एक उपराष्ट्रपति पद पर विराजमान रहे हामिद अंसारी ने अपनी विदाई के समय जो बात कही है, वह किस हद तक सही है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन ऐसा बोल कर उन्होंने संकुचित मानसिकता का परिचय दिया है। उनकी बातों से ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह देश के उपराष्ट्रपति होते हुए भी केवल अल्पसंख्यक वर्ग के ही प्रतिनिधि बन कर रह गए। हो सकता है कि देश के अल्पसंख्यक वर्ग ने उनको यह परेशानी की बातें बताई हों, लेकिन यह भी सत्य है कि उपराष्ट्रपति पद पर रहने के बाद उनको केवल एक पक्ष की बात सुनकर ही मत व्यक्त नहीं करना था। वे उपराष्ट्रपति पद पर रहे, उन्हें पूरे देश की वास्तविकता की पूरी जानकारी रही भी होगी। उन्होंने ऐसा बोलकर उपराष्ट्रपति जैसे पद का भी सम्मान नहीं किया। हामिद अंसारी ने लगभग वैसा ही बयान दिया है, जैसा राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के दिया जाता है। हामिद अंसारी ने पूरे देश की चिन्ता की बात न करते हुए केवल अल्पसंख्यक समुदाय की बात कहकर एक प्रकार से दो साल से दबे विचार को प्रकट कर दिया।

भारत ने उनको दूसरे नंबर का सबसे महत्वपूर्ण पद प्रदान करके उनको सम्मान दिया। वे केवल एक बार नहीं, बल्कि दो बार देश उपराष्ट्रपति पद पर विराजमान रहे। हम जानते हैं कि हमारे देश में कलाम साहब भी एक मुसलमान थे और वे राष्ट्रपति पद पर विराजमान रहे, लेकिन उन्होंने ऐसा काम किया कि वे पूरे देश के हो गए। उन्हें पूरा देश दिखाई देता था। उनकी वाणी भारत की वाणी थी, वे जब भी युवाओं से कोई बात कहते थे तो उनकी दृष्टि में समानता का भाव रहता था। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का कोई भेद नहीं था। उन्होंने पूरे देश को सम्मान दिया, इसलिए देश ने भी उनको भारत रत्न जैसा ही सम्मान दिया। सवाल यह आता है कि हामिद अंसारी पूरे देश के होते हुए भी पूरे देश के नहीं हो पाए। देश का बहुत बड़ा वर्ग आज उनकी बात पर प्रतिक्रिया दे रहा है। वास्तव में उन्हें पूरे देश की जनता की चिन्ता समान रुप से करनी चाहिए, लेकिन उनकी नजर में पहले भी और बाद में भी संकुचन का भाव दिखाई दिया। हम जानते हैं कि उपराष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी उन्होंने देश भाव को प्रधानता नहीं दी। वंदेमातरम नहीं गाया, विजयादशमी के कार्यक्रम में आरती की थाली लेने से इंकार कर दिया, इतना ही नहीं वे राष्ट्र के मूल सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता को भी नहीं अपना सके। वर्तमान में भले ही धर्मनिरपेक्षता को एक ही वर्ग के तुष्टिकरण करने के भाव के साथ देखा जाता हो, लेकिन यह सही है कि धर्मनिरपेक्षता में सभी धर्मों को समान भाव से देखे जाने का प्रावधान है।

हो सकता है कि हामिद अंसारी ने जो कहा है वह सही हो, लेकिन सवाल यह आता है कि यह असुरक्षा कहीं न कहीं मुसलमान समाज ने ही खड़ी की है। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को वास्तव में यही कहना चाहिए था कि देश का मुसलमान, हिन्दुओं की पूज्य गौमाता का वध नहीं करे। आज वे अल्पसंख्यकों के असुरक्षित होने की बात कर रहे हैं, जबकि सत्य यह है कि व्यक्ति अपने कार्यों के चलते ही सुरक्षा और असुरक्षा का वातावरण निर्मित करता है।

खैर अब हामिद अंसारी उपराष्ट्रपति के पद से मुक्त भी हो गए हैं, अब उनके पास पूरा समय भी है। उन्हें देश की स्थिति का ज्ञान भी है। जाते जाते जो चिंता उन्होंने व्यक्त की है, उसे दूर करने के उपाय भी करना चाहिए। लेकिन उन्हें यह भी ध्यान में रखना होगा कि उनकी नजर में भारत की दृष्टि होनी चाहिए। एक समुदाय की नहीं। जब वे एक समुदाय की भावना को जानकर भाव व्यक्त करेंगे तो स्वाभाविक रुप से सवाल भी उठेंगे। फिर उन सवालों का जवाब किस प्रकार से दे पाएंगे, यह सोचने की बात है।

वास्तव में हामिद अंसारी ही नहीं बल्कि देश के अंदर ऐसा वातावरण बनता हुआ दिखाई दे रहा, जिसमें समाधान की बात नहीं है, समस्याएं खड़ी करना हमारे देश की नियति सी बन गई है। देश का पूरा समाज राजनीतिक और संवैधानिक नेतृत्व से ऐसी आशा लगाए बैठा है, जो समस्या का समाधान प्रस्तुत करे। हामिद अंसारी से यही आशा थी कि वे समस्या का समाधान प्रस्तुत करते, लेकिन वे तो समस्या खड़ी करके चले गए। एक ऐसी समस्या जो तुष्टिकरण के भाव को पैदा कर सकती है। वास्तव में तुष्टिकरण का भाव किसी भी समाज का सांत्वना दे सकता है, स्थायी समाधान नहीं बन सकता। जब उपराष्ट्रपति पद पर बैठने वाला व्यक्ति समाधान नहीं बता सकता तो किससे उम्मीद की जाए। अब समस्या नहीं, समाधान का काल है। जनता के सामने समस्याओं का अंबार है। जिसका अंत करने में पूरा देश लगा है, हामिद अंसारी को भी समाधान के मार्ग पर कदम बढ़ाना चाहिए था। सही समय की मांग है और राष्ट्र की आवश्यकता भी है।

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लेख

अनुच्छेद 35 ए के हटने के भय से बेचैन हो रहे हैं कश्मीरी नेता

स्वस्थ लोकतंत्र में वैचारिक संघर्ष, बहस तथा नीतिगत विरोध एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि ऐसा न हो तो संसदीय शासन प्रणाली गूंगी-बहरी गुड़िया से अधिक कुछ भी नहीं किंतु जब से केन्द्र में नरेन्द्र भाई मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी है, तब से विपक्षी दलों के नेता जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह किसी भी तरह राष्ट्र अपमान की भाषा से कम नहीं। सरकार की नीतियों के विरोध का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि देश से लोकतंत्र की जड़ें ही खोद डाली जाएं या शत्रुओं की तरफ खड़े होकर देश पर पत्थर फैंके जाएं या फिर ऐसा करने वालों के समर्थन में आवाज उठाई जाए और उसे आजादी का नाम दिया जाए!

जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि यदि कश्मीर से धारा 35 ए हटी तो जिस तिरंगे को हमारे आदमी उठाते हैं, उस तिरंगे को कश्मीर में कोई कांधा देने वाला नहीं मिलेगा। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला कह रहे हैं कि भारत की पूरी सेना मिलकर भी आतंकवादियों से हमारी रक्षा नहीं कर सकती। यह तो तब है जब हुर्रियत के बड़े नेता देश के खिलाफ प्रच्छन्न युद्ध लड़ने वालों को धन पहुंचाने के आरोप में सलाखों के पीछे जा चुके हैं तथा एनआईए इस घिनौने अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र के काफी बड़े हिस्से का पर्दा फाश कर चुकी है। जिस 35 ए के हटने के भय से कश्मीरी नेता इतने बेचैन हुए जा रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि कश्मीर की सारी समस्या की जड़ यही धारा है जिसे जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से अध्यादेश के माध्यम से संविधान संशोधन के रूप में लागू करवाया और जिसे संसद ने आज तक स्वीकृति नहीं दी। इसी धारा ने कश्मीर को भारत रूपी समुद्र में एक स्वायत्तशासी टापू में बदल दिया जो भारत के संविधान से मुक्त रहकर, भारत के चीनी, चावल, पैट्रोल और सीमेंट को मजे से जीम रहा है। इसी धारा की आड़ में कश्मीरी नेता दिल्ली आकर आलीशान बंगलों में रहते हैं और आम भारतीय, काश्मीर में झौंपड़ा तक नहीं खरीद सकता। अब मुफ्ती तथा अब्दुल्ला को इस धारा के हटने का भय सता रहा है।

पीडीपी, नेशनल कान्फ्रेन्स तथा हुर्रियत के नेताओं द्वारा लगाई गई इस आग में घी डालने का काम राहुल गांधी, मणिशंकर अय्यर, संदीप दीक्षित और उनके बहुत से साथी बहुत सफलता से कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि प्रधानमंत्री अपने फायदे के लिए कश्मीरी लोगों का खून बहा रहे हैं तो कोई पाकिस्तान में जाकर कह रहा है कि पाकिस्तान, नरेन्द्र मोदी की सरकार गिराकर कांग्रेस की सरकार बनवा दे। विनोद शर्मा जैसे पत्रकार भी हुर्रियत के नेताओं से गलबहियां मिलते हुए देखे गए हैं। ममता बनर्जी तो कंधे पर तृणमूल का झण्डा लेकर, भारत को जनता द्वारा भारी बहुमत से चुनी गई सरकार से मुक्त करने के मिशन पर निकली ही हुई हैं, हालांकि वे इस मिशन का उद्देश्य भारत को बीजेपी से मुक्त कराना बता रही हैं।

जनता दल यू के शरद यादव भी इन दिनों काफी बेचैन हैं। राजद के लालू यादव सारी मर्यादाएं भूलकर देश के प्रधानमंत्री के विरुद्ध ऐसा अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं जो राष्ट्रीय अपमान की सीमाओं को स्पर्श करता है। कम्यूनिस्टों का हाल ये है कि वे भारतीय सेना को चीनी हमले से भयभीत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे। संभवतः उनके मन में ये है कि भारत भयभीत होकर साम्यवादी चीन के कॉमर्शियल कॉरीडोर के नाम पर बन रहे मिलिट्री कॉरीडोर को बन जाने दे। विभिन्न विपक्षी दलों के इन नेताओं को क्यों यह समझ में नहीं आता कि देश की जनता को अधिक समय तक गुमराह नहीं किया जा सकता। देर-सबेर ही सही, जनता तक सच पहुंच ही जाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह आयकर विभाग मीसा भारती, तेज प्रताप तथा तेजस्वी यादव की छिपी हुई सम्पत्तियों तक पहुंच गया है और एनआईए हुर्रियत नेताओं को पकड़कर सलाखों के पीछे खींच ले गई है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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लेख

करन थापर और बरखा दत्त को हटाने का बहुत दबाव रहा होगा

मैं अपने पसंदीदा टेलीविजन एंकर करन थापर और अभी हाल में, बरखा दत्त को बेकार ही ढूंढ रहा था। मुझे बताया गया कि उन्हें हटा दिया गया है। यह अनुमान का विषय है कि किसने ऐसा किया। कुछ लोग कहते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार का दबाव है, जबकि कुछ लोगों का रोना है कि यह चैनल के मालिकों का काम है। ऐसा जिसने भी किया हो, उसने सेंसरशिपकर्ता की तरह व्यवहार किया है।

मुझे आश्चर्य इस बात का है कि कोई विरोध नहीं है। हमारे समय में, यह बताने के लिए शोर मचता था या बैठक होती थी कि प्रेस का मुंह बंद किया गया है या आलोचना को चुप कराया गया है। बेशक, उस समय की बात दूसरी है जब आपातकाल लगाया गया था। लेकिन इसके पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी प्रेस के खिलाफ कदम उठाने की हिम्मत नहीं करती थीं। वह समर्थक ढूंढती थीं− जो पर्याप्त संख्या में थे− लेकिन आलोचकों की संख्या भी बड़ी थी।

मुझे याद है कि 1975−77 में आपातकाल लगाने के बाद उन्होंने विजयी भाव से कहा था कि एक कुत्ता भी नहीं भौंका। इससे मैं और दूसरे कई लोग आहत थे। हम लोग प्रेस क्लब में जमा हुए−सख्ंया 103 की थी और हमने सेंसरशिप की आलोचना का प्रस्ताव पारित किया। सूचना मंत्री वीसी शुक्ला, जो मुझे जानते थे, ने चेतावनी देने के लिए मुझे फोन किया ”तुममें से हर एक को जेल में बंद कर दिया जाएगा”। सच में ऐसा हुआ और मुझे भी तीन महीने के लिए हिरासत में रखा गया।

मेरी आंखों के सामने वही समय आ गया जब तसलीमा नसरीन ने कहा कि ”दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विरोध की बहुत कम आवाज सुनाई देती है”। कोलकता छोड़ने के बाद उन्हें औरंगाबाद की सीमा में रोक कर रखा गया। वह बांग्लादेश की हैं और कट्टरपंथियों ने उन्हें बाहर खदेड़ दिया क्योंकि उन्होंने अपने देश में कट्टरपंथियों के हाथों हिंदू औरतों की दुर्दशा की कहानी बताने वाली ‘लज्जा’ नाम की किताब लिखी।

यह भारतीय लोकतंत्र के लिए कलंक है कि वह अपने पसंद के शहर में नहीं रह सकतीं। मुझे बताया गया कि कुछ दिन पहले उन्हें औरंगाबाद वापस भेज दिया गया। मैं इस घटना की चर्चा को आगे खींचना नहीं चाहता, लेकिन मेरे दिमाग में जो बात है वह है हमारे लोकतंत्र पर खतरा।

आपातकाल बिना लगाए, आपातकाल जैसी स्थिति रह सकती है। आरएसएस विभिन्न शिक्षण सस्ंथानों के उदारवादी प्रमुखों को उनके पद से हटाने में सफल रही है। मैंने नेहरू मेमोरियल सेंटर के मामले को देखा तो यह पाकर भयभीत हो गया कि जाने−पहचाने उदारवादी चेहरे गायब हो गए हैं। सच है, भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के शब्द अंतिम हैं। लेकिन वे लोगों के पास इस पर वोट मांगने नहीं गए थे। यह उनके एजेडें पर भी नहीं था।

फिर भी, तसलीमा नसरीन का मामला है जो अस्पष्ट है। औरंगाबाद के हवाई अड्डे को छो़ड़ कर किसी भी हवाई अड्डे, नजदीक के पुणे हवाई अड्डे में भी, उन्हें दाखिल नहीं होने दिया गया। जाहिर है, सरकार ने यह निर्देश दिया होगा कि उन्हें बाकी जगहों में अदंर नहीं लिया जाए। यह सब ‘सैटनिक वर्सेस’ किताब, जिसने इस्लाम के खिलाफ सवाल उठाए हैं, लिखने के लिए सलमान रूश्दी के खिलाफ इरान के फतवे जैसा मालूम होता है। भारतीय राष्ट्र को हरदम चौकन्ना रहना है क्योंकि वह 19 महीने की सेंसरशिप से गुजर चुका है। प्रेस ने अति कर दी थी क्योंकि, जैसा भाजपा के एलके आडवाणी ने कहा, आपको झुकने के लिए कहा गया था लेकिन आप तो ”रेगं गए”। बहुत हद तक, आडवाणी सही थे। पत्रकार इंदिरा गांधी सरकार की ओर से अदालती मुकदमों में घसीटे जाने से डरे हुए थे। यहां तक कि प्रेस का रखवाला, प्रेस कौंसिल आफ इंडिया भी इंदिरा गांधी के समर्थन में झंडा उठाने में उनके समर्थकों से स्पर्धा कर रहा था।

आज यह मामला उलटा है। प्रेस का भगवाकरण कर दिया गया है और अखबार या टीवी चैनलों में कुछ अलग आवाजों को छोड़कर, प्रेस सत्ता में बैठे लोगों के इशारे पर नाचता है। पहले और आज में बहुत कम अंतर है क्योंकि अखबार या टेलीविजन चैनलों के मालिक और पत्रकारों के दिमाग में अपना अस्तित्व बचाने की बात सबसे ऊपर रहती है।

एनडीटीवी दबाव में है क्योंकि इसके मालिक प्रणव राय ने एक कर्ज लिया था। लेकिन सीबीआई ने आरआरपीआर होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड, प्रणय राय और उनकी पत्नी राधिका राय और आईसीआईआसीआर्इ बैंक के एक अज्ञात कर्मचारी के खिलाफ साजिश, धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार का मामला दर्ज कर दिया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह सरकार के इशारे पर हुआ है।

टेलीविजन चैनल से लंबे समय तक जुड़े रहने के कारण, सरकार करन थापर और बरखा दत्त को परेशान करने के लिए कुछ तरीका अपना सकती है। वे सबसे ज्यादा खुलकर पीड़ित लोगों की बात उठाने वाले एंकर थे। जाहिर है कि यह सत्ता प्रतिष्ठान के पसंद का नहीं था। उन दोनों को हटाने के लिए चैनल बहुत दबाव में रहा होगा।

हम किस तरह स्वतंत्रता का माहौल वापस लाएं? आज राष्ट्र के सामने यही सवाल है। पत्रकारों के सिर पर कांट्रैक्ट की तलवार लटके होने के कारण वे अपनी बात रखने में डरते हैं कि मालिक नाराज न हो जाएं। आखिरकार, राष्ट्र को वही खबर मिल रही है जो विभिन्न दबावों तथा बाधाओं के कारण विभिन्न जगहों से छन कर आती हैं।

अमेरिका में ऐसी स्थिति आई थी तो पत्रकार इकट्ठा हो गए और अपना चैनल शुरू कर दिया। यह एक प्रकार का साहस था क्योंकि आखिरकार इतने लोग आलोचना के दायरे से बाहर हो गए और छोड़ देने की प्रवृत्ति काफी बढ़ गई। संसाधन की बुरी तरह कमी महसूस की गई और आजादी से समझौता करना पड़ा।

करन थापर और बरखा दत्त दोनों को दिमाग में रखना होगा कि उनकी यात्रा लंबी और कठिनाइयों से भरी होगी। उन्हें अपनी तरफ फुसलाने के लिए सत्ता लालच देगा। लेकिन यह उन पर है कि वे बियावान में कठिनाइयां सह पाते हैं। यह आसान नहीं है, लेकिन वे अपने चरित्र के बल पर ऐसा कर सकते हैं। उन्हें मेरा समर्थन है, यह उनके जितने भी काम का हो। वे साहस के उदाहरण हैं। अब सब कुछ उनकी ताकत और प्रेस से मिले समर्थन पर निर्भर है। सिर्फ मीडिया नहीं, बल्कि सारा देश उनकी ओर देख रहा है।

आपातकाल के समय जो हुआ, शायद अब वैसा न हो। उस समय प्रेस बुरी तरह फेल हुई। लेकिन मिलकर हम कामयाब हो सकते हैं।

– कुलदीप नायर

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